गुरुवार, 27 दिसंबर 2007

स्मृति के झरोखे से

हुआ क्या कदम आज रुकने लगे

तुम मुझे आज बेगाने लगने लगे

ऐ प्रिये कुछ बताओ भला क्या हुआ

तेरे हर गम में खुश हम यूँ लगने लगे


याद कर लो उसी दिन को जब तुम मिले

थे मिटे उस दिन पहले के कितने गिले

फिर गिले आके आख़िर क्यों ऐसे मिले

कि एक दूजे के दुश्मन हम लगने लगे


तुमने कहा कुछ क्या हमने सुना

क्या हमने कहा तुम समझते गए

कुछ सुने भी गए कुछ रहे अनसुने

दोष तुमपे तुम हमपे यूँ मढ़ने लगे


चला न पता दोष किसका कहाँ तक

न तुम नम हुए ना ही हम कम हुए

बात एक दिन न हो न बिताए बिते

आज दूरी को ही नजदीकियां हम समझने लगे


चलो अच्छा है प्यारी ये अच्छा ही था

अब आगे बढ़ो कुछ समझते हुए

कुछ ऐसा करो कुछ लगे कुछ भला

ताकि दूरियां नजदीकियों में बदलने लगे ............... ।

गुरुवार, 6 दिसंबर 2007

रिश्तों पर-2

दिया था कसम भौरों ने फूल को जब
जनम भर रहेगा ये बन्धन हमारा
कड़ी धूप में,वर्षा, ठंडी हर पहर में
चमका करेगा प्यार का ये सितारा

कहा
फूल से एक दिन भौरे नें खिलखिलाकर
प्रिये तुम रहोगी सदा सर्वदा ही हमारी
न प्यारी खूबसूरती न लालच है यौवन का
न समझना कभी मुझे सौंदर्य का पुजारी

नियत ही है मन मानवीय स्वभाओं से निर्मित
कभी गर ये भटके तो कहेना न विलासी
अगर भूल चाहे चखना स्वाद तेरे हुस्ने जहाँ का
बनाना मुझे तत्क्षण स्व-मन मर्जी का प्रवासी

सौंदर्य का पुजारी तो जहाँ ही रहा है
न चलना मुझे रीति-पथ अनुसरण कर
कहाँ घर, जाती, धर्म, रीति कौन सा है तुम्हारा
न मतलब है रहेना हमें नैतिकता को वरण कर

बना स्वर्ण माटी वही जाती थी वह
बँटा पूर्व थाती वही धर्म था वह
बने थे हम दानव नैतिकता को तजकर
हुए थे विलासी वही रीति थी वह

वही परंपरा थी भूल कर्तव्य लड़े हम
जहाँ ने था देखा बर्बादी को अपने
सितारों ने बनाया था जो स्वर्ग इस जहाँ को
हुए नर्क से बद जो देखे न सपने ...................

मंगलवार, 4 दिसंबर 2007

रिश्तों पर-1

जिंदगी कभी कभी बहोत हारी,सुस्ताई और मायूस सी लगती है। खासकर तब जब कोई अपना या कोई अपना लगने वाला उसके प्रति अपने कर्तव्यों से विमुख होने लगता है। और तब न तो ये कलम काम करती है और ना ही तो ये सोंच या कल्पना जिससे कुछ नया विचार करके उससे निजात पाने का तरीका ढूँढा जा सके। यही दुखित मन अपने ही पता नही क्या क्या सोंच लेती है और कौन कौन से ताने बाने बुन लेती है कि सहसा ही मन में एक तरंग उठती है और वह उसका साथ छोड़ देने के लिए अपनी सहमति प्रदान करती है। पर क्या किसी समस्या का हल केवल त्याग में ही संभव है ? क्या उसके लिए कोई और प्रयत्न नहीं किये जा सकते ? किये जा सकते हैं, पर यह प्रयत्न केवल मात्र उसी पर ही निर्भर नहीं होनी चाहिये। आख़िर उसमें भी तो दोनों के अभिव्यक्ति की आवश्यकता होती है। पर किस बात की अभिव्यक्ति ? परिश्रम की अभिव्यक्ति, विचारों की अभिव्यक्ति या एक के प्रति दूसरों के आत्मसमर्पण की अभिव्यक्ति। शायेद ये सभी हो सकते हैं। बस अवसर की अनुकूलता होनी चाहिये। अवसर कब, कहाँ, किसको मिलती है ये तो नहीं कहा जा सकता पर अवसर की भी तो उत्पत्ति शायेद एक ही के हित में होती है। जबकि उसमें भी लगभग दूसरे का अहित ही छिपा होता है।
आख़िर इस प्रश्न के बार बार उठाने का क्या कारन है कि मैं उसके लिए सब कुछ करता हूँ वह मेरे लिए कुच्छ नहीं करता या उसके एक ही इशारे पर मैं आशामन के तारे तोड़ने को उद्यत हो उठता हूँ और जब उसकी बारी आती है तो ऐसा आभाष होता है कि उसका छत ही गिरता जा रहा है। क्या इसमें रिश्तों के टूटने का साफ साफ संकेत नहीं मिलता ? आख़िर ऐसी अवस्था में त्याग का विचार नहीं आएगा तो क्या सम्बंध बनाए रखने का विचार आएगा ! संभवत दोनों ही हो सकते हैं। पर शायेद त्याग का स्तर कुछ ऊंचा ही हो!...................

सोमवार, 3 दिसंबर 2007

तारे-1

रे तारे !

रोज ही तूं भाग आता है

नहीं कहीं और जाता है

रात रात भर जग जग कर

देता रहेता है पहेरा

मौसम साफ हो चाहे छाया घना कोहरा

तुझे कौन सी दिक्कत

क्या आन पड़ी पारिवारिक संकट

शादी तो तेरी हुई नहीं

न ही दुश्मनी किसी से कोई कहीं

जरूर,तेरे पोषक ने तुझको दुत्कारा

फिर रहा तूं मारा मारा

चुक गयी न आज घर की रोटी

मिटटी का तेल खतम, बुझ गयी न ज्योति

काट रहा तूं प्रवास

नहीं तो होता घर का प्रकाश

चल छोड़ क्यों घबडाता है

बैठ सुना सब कुछ अब और कहाँ जाता है .......