देखो जरा सम्हल के दुनिया कहाँ डुबी है
है राज रंग किनारा पर होश में नहीं है
कैसे बताऊँ क्या मैं क्या आज हो रहा है
मानवता के शिखर पर मानव ही रो रहा है
पड़े हैं कुछ गरीबी उनका भी ख्याल रख लो
घूमते हुए नजर से उनको भी थोड़ा लख लो
मझधार में फंसे हैं है ना कोई किनारा
हो पास में तुम्हीं गर तो आश है तुम्हारा
भूखे हैं वो है प्यासे बस दम निकल रहा है
लेकिन समय वफा की वफ़ा ही सो रहा है
ऐ आधुनिक जमानें फैशन से बाज आओ
भूले हुए जो पथ हो वापस उसी पर जाओ
क्या बात हो अगर तुम इंसानियत पर होते
आतंक दर्द गरीबी नामों निशा न होते
जाने कहाँ क्या कैसे इस युग में हो रहा है
कुछ होश में था जो भी उसको यूँ खो रहा है
2 टिप्पणियां:
bhut sahi baat ko bhut hi sundar tarike se kah di aapne. badhai ho. likhte rhe.
जाने कहाँ क्या कैसे इस युग में हो रहा है
कुछ होश में था जो भी उसको यूँ खो रहा है
बहुत ही सुन्दर रचना हे हर पक्त्ति कुछ कहती हे धन्यवाद
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