दिवस बीति रहि आश में आश ना आशा कोय
वहि आशा नहीं आश है जिह मैं आशा ना होय ॥ १ ॥
यह जीवन तो फूल है फ़िर क्यों बनता धूल
तूं सुख की सागर निधि करता क्योंकर भूल ॥ २॥
राम नाम तूं राम कह कह ना दूजो नाम
राम सुबह का नाम है बाकी से है शाम ॥ ३॥
यह जन्म सुख का पुंज है दुःख तो कुछ का नाम
कुछ खोजो कुछ जानके घूमों ना निष्काम ॥ ४॥
खोजन मैं प्रेमी चला हुआ झूठ बदनाम
पाय खडाऊं आन बसा किया जगत कोहराम ॥ ५॥
गुरु तो ज्ञान का नाम है मातु बसत है प्राण
पिता सुख समृद्धि है बाकी धूल सामान ॥ ६ ॥
मातु विपत करुणामयी पित्रि विपत मनोदास
गुरु विओग जीवन दुखी नहीं लोचन कबहूँ सुखाश ॥ ७॥
मैं मैं मैं का दास हूँ फ़िर क्योंकर कोई बात
मैं सागर के पास जब लहर करे क्यों घात ॥ ८ ॥
अगुन सगुण निर्गुण जगत सब में है तत्वेक
ग्यानान्धाकार तुझमें बसा तिस कारन है अनेक ॥ ९॥
3 टिप्पणियां:
बहुत ही खुब सुरत हे आप की रचना.सभी एक से बढ कर एक धन्यवाद
मैं मैं मैं का दास हूँ फ़िर क्योंकर कोई बात
मैं सागर के पास जब लहर करे क्यों घात....
आपने अच्छा लिखा है अनिल... इसी तरह लिखते रहें। और हां सोंचा नहीं, सोचा होता है आपके ब्लॉग के हैडर पर इसे ठीक कर लें।
बहुत उम्दा, क्या बात है!आनन्द आ गया.
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