अरस शमन है प्रगति का घमंड वीरवशान
क्रोध खंगारत रिश्ते को तजहूँ समय धरि ध्यान ॥
सुरभि चमके सुरभि में तारा ज्यों द्विज पास
मानव चमके शुद्धाचरण धरि संतन के आश ॥
अनंत शर्म निज कर्म पर चखि अरस कर स्वाद
सोवत विगत समुन्नत लखि रोवत होत बर्बाद ॥
अनिल गुरु सन जाय के सीखहूँ सगुन सहूर
दुर्गम पथ तजि सुगम पथ धरहूँ नाहिं अति दूर ॥
देखहु तो या जगत में नीचन की भरमार
जहाँ नीच होइहैं बहुत तहां संत दुई चार ॥
जीवन वितत ढूँढत सफर सफर सवारी गात
श्रवण शान्ति मन भ्रान्ति विकल कहत निशा परभात ॥
3 टिप्पणियां:
waah bhaiya
वाह !!! बहुत ही सुन्दर ...
बहुत बढ़िया दोहे . धन्यवाद
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