आ रही थी वह
एक अदृश्य स्वप्न - सा
यथार्थ का रूप लेते
धीरे धीरे धीरे
स्मृति पटल में
तेज ठण्ड में
सूर्य की प्रथम किरण - सा
हल्का धूप - देते
जरूरत नहीं थी धूप की
शीतलता की भी नहीं
आवश्यकता एक जलन की थी
तपन की थी
सिरहन और शिष्कन की थी
बन आहार वह
विशिष्ट त्यौहार का -सा
छा रही थी
धीरे धीरे धीरे
समस्त मानसिक क्रियाओं में
वेबस असहाय
उस शीतलता उस धूप को
निःशब्द मैं
था लाचार - लेते
वह विजित
हंसती रही
मुझे छांव धूप देते ॥
2 टिप्पणियां:
आपकी लेक्नी बहुत ही कमाल की है
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
Is tarah apni paristhiti ko bayan karna... kamal hai...
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