हरे भरे दूब, घास
हरियाली लिए तरुण वृक्ष
नीले आकाश के तले
पले बढे ये पेड़ मनचले
कैसे हो गए सुन्दर इतने
पड़ी नहीं थी
माघ, पूस की कडकडाती ठंडी ,शायद
बरसा नहीं था बादल उमड़ घुमड़
नहीं लगी जून की कडकडाती धुप क्या इनको
कि झुलस गये होते पत्ते इनके
फट गयी होती दंठालियाँ सारी
रो रही होती इनकी क्यारी
सूख कर जर्जर हो गयी होती भूमी यह
विलासिता के संरक्षण में आ रही जो निखार
कंगाली पण में जाती ढह
कम से कम आते न वह
जो खा खा कर मोटे हुए हैं
सम्पन्नता का खाका लटकाए
आदत से निहायत ही छोटे हुए हैं
न काम के न धाम के
तरुण, तरुनियाँ, बूढ़े ,जवान
ये आज के
जो यहाँ पर टहल रहे हैं
निथल्लुओं सा कर पहल रहे हैं
न आते यहाँ पर , जाते वहाँ पर
धान, गेहूं , जौ की खेती
ऊंघ रहे हैं जहा पर
न बारिस , न हवा , न पानी
न छांव, न धूप
ऐसा विपन्न , ऐसा अव्यवस्थित
गाँव, पट गये जहां के सारे कूप
पहुँचते , टहलते , दौड़ते
पेलते डंड
दिन भर , रात भर , चलते चलते , खटते हुए
किसानों का होता राज अखंड
हुआ क्यों नहीं ऐसा
सोचा निराला नागार्जुन ने जैसा
क्या हवा पानी प्रकृति
ये सब के सब दिख रहे निठल्ले
फिर कैसे हुए इनके बल्ले बल्ले ?
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