शुक्रवार, 16 मई 2008

गांधी वादिता की असफल कोशिश ( रिएलिटी सो )

वर्षों बीत गए । यादें नम होनें लगीं । वो ईश्वर बनने लगे । धीरे धीरे कुछ विस्म्रितियाँ याद ही आ रही थी की नया रूप सामनें आया । वह रूप एक रूप ही नहीं एक तेज जैसा , जो हजारों लोकोक्तियों और कहावतों को वाश्तविकता का परिप्रेक्ष्य देनें में वाश्तविकतः वास्तविक । यह कोई और नहीं हाल ही की गांधी की दूसरी प्रतिमूर्ति , जो आते ही एक बार फ़िर इतिहाश के आइनें में इस कहावत को चरितार्थ कर गयी ' सबै सहायक सबल के निर्बल के नहीं कोय
अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी का ब्रिटिश दौरा "चैनल ४ " के अंतर्गत इस बार कुछ ऐसा ही पेश कर रही हैं। जो कुछ हकीकत लग रही है तो कुछ स्वप्न । कुछ को उभार रही है तो कुछ को सत्य के धरातल पर लाने के लिए एक असफल कोशिश मात्र । जबकि घटनाएँ १०० साल पहले की हैं । नस्लवाद । गोरा , काला । और क्या क्या कुछ कम कुछ बहुत । पर क्या यह सही है ? क्या इसके पहले इस प्रकार के शब्दों को उभारा नहीं जाता था । या फ़िर यों कहा जाय की अन्य भारतीयों व एशियायियों के लिए ये शब्द उनके अपनें रिश्ते बन गए थे , जो उनका उच्चारण सुनते ही स्वागत करनें के लिए तैयार रहते । हर समय । हर जगंह । हर हालत और हालात में । चाहे वह सार्वजनिक स्थल हो या सार्वजनिक मार्ग अथवा कोई अन्य स्थल , मेले , बाजार आदि इन सब जगंहों पर आख़िर यही शब्द तो हैं जो एशियायियों के आचार और शिष्टाचार को बयां करते थे । जिसमें घृणा , फटकार और भेदभाव तो रोज रोज की आनीं जानी थी । होते थे तब भी इस शब्द के प्रयोग होते थे । तब भी इस शब्द के आदी थे ये अंग्रेज लोग । बजाय इसके की आज भी ऐसे शब्दों का प्रयोग वहाँ पर एक सभ्यता बनीं हुई है । ये बात और है की वे आम हैं । कमजोर हैं । गरीब हैं । लचर हैं ! और जिस पर ये लाचार रुपी बिच्छू के डंक लग जाते हैं , उस पर मीडिया रुपी जड़ी - बूटी भी अपना राग नहीं चला पाती है । फ़िर अचानक इन सबको हो क्या गया की ब्रिटिश मीडिया , मंत्रिमंडल और संसद से लेकर भारतीय मीडिया और सदन तक नस्लवाद , नस्लवाद , भेदभाव के सुर अलापनें लगे ।
फ़िर शिल्पा के सम्बंध में घटित इस छोटे से विवाद पर हम भला कैसे कह सकते हैं कि हाँ हम अपनें भारतीयत्व की रक्षा कर रहे हैं । और यह एक पल के लिए ठीक भी हो सकता था कि वह प्रतियोगी के उस उद्दंडता को जिसमें अभद्र व्यवहार किया गया , खेल एक अंश मानकर ही भूल गयी होती । और फ़िर खेल में तो हर कोई प्रतियोगी चाहता है कि किसी तरंह उसके मनोबल को गिराया जाय । आख़िर शिल्पा में और उन प्रतियोगियों में अन्तर ही क्या रह गया । क्या इसमें भारतीयत्व को दिखानें की जरूरत नहीं थी ? अच्छा तो शायद यह था जब वह इन आलोचनाओं को सहते हुए विजित होकर नये तेवरों में जवाब देती कि वास्तविकता क्या होती है । पर ऐसा कुछ नहीं हुआ ।
हुआ फ़िर भी कुछ हुआ । कम से कम मीडिया को एक नया मसाला तो मिला कि उस सुपर स्टार को काला कहा गया जो सौंदर्य की एक देन है । औलत की एक खान है । देश के करोड़ों लोग उस पर फ़िदा हैं । कुछ या ना हो पब्लिसिटी तो मिलेगी । अब तो ऐसा लगता है कि सम्पूर्ण भारतीयत्व सौंदर्य और दौलत के झरोखे से बहते दो आंसू में सिमट कर रह गयी है । जबकि ऐसे पता नहीं कितने आंसू विदेश की तो बात ही छोडो देश में गिर रहे है । बह रहे हैं । नदियों की तरंह नालों की तरंह , जहाँ पर वास्तव में ये भारतीयत्व तार तार हो रही है । उसका किसी को ख्याल नहीं । किसी को परवा नहीं । क्योंकि उनके पास ना तो शायद सौंदर्य है और ना ही तो धन है दौलत है । है तो बस एक शरीर का ढांचा है । जो कर्ज रुपी बोझ के तले दबा हुआ है । वास्तविकता तो ये है कि इन स्थानों की जो भारतीयत्व है वह भले ही सौंदर्य विहीन है पर एक अचल सम्पदा है । जो लुट रही है बर्बाद हो रही है । क्या इन्हें बचानें का अपेक्षित प्रयास किया जा रहा है ? यह कह पाना तो पूर्णतः मुश्किल है । पर वाकई शिल्पा ब्रिटिश में इस भेदभाव पूर्ण रवैये को खतम करने का गांधी के बाद दूसरा स्थान लेनें का एक सफल चाल चली थी यह बात और है कि वह उस रूप में नहीं प्रतिष्ठित हो पायी । क्योंकि यह एक खेल मात्र था । जबकि वह एक संघर्ष था । इसमें आंसू छलके , लेकिन उसमें आंसू नहीं वेदना और करुना के धार बहे । वेदना के स्वर में आत्मा की अभिव्यक्ति होती है जो करोड़ों भारतीय प्रवासियों के लिए आवश्यक है । जरूरी । अपरिहार्य है.......... ।

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