बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

जहाँ पढ़ना और पढाना ही सब कुछ होता है...

आज कई दिनों से जब मैं स्व-वेदना और पारिवारिक दुर्दांत के ग्रसन से मुक्त हो अपने अध्ययन कार्य में पुनः व्यस्त हो चुका हूँ, तबसे मेरे कुछ दोस्त अक्सर ये कहते हुए, और जैसा की मैं भी मनता हूँ कि मैं कालेज बराबर नहीं आ रहा हूँ। यदि आ भी रहा हूँ तो लगभग क्लासों में बंक मार जाता हूँ । मेरे चाहने वालों में तो कई लोग यह भी कहते हुए नहीं हिचकते कि कहीं मैं "इलाहबाद "में चल रहे "नहावन" में तीर्थ यात्रा करनें तो नहीं गया था। सही है उन सब का सोंचना, और जाहिर है ऐसे प्रश्नों का उठना । दरअसल अबतो मैं भी मनता हूँ कि मैं तीर्ता यात्रा में नहीं पर तीर्थ-स्थल पर जरूर रहता हूँ । जहाँ पर कभी कभी मुझे इलाहबाद के ;"शास्त्री पुल"पर " निराला" की "वह तोड़ती पत्थर"वाली औरत भी मिल जाया करती है और कभी कभी मुंशी प्रेमचंद के "गोदान" का होरी गऊ दान के स्वप्न लिए उसी तट पर दिखाई देता है । जहाँ दिनकर के "रश्मिरथी" का कर्ण दलितों के उत्कर्ष के लिए हांथों में अर्ध लेकर सूर्य से प्रार्थना करते हुए दिखाई देता है वहीं अज्ञेय के "हरी घांस पर क्षण भर" के लिए बैठे एक प्रेमी जोडा यह सोंच कर उठता हुआ प्रतीत होता है कि कहीं ये ईर्ष्यालु समाज उनको कुछ और न समझ बैठे ।
इस तीर्थ- स्थल की जीतनी भी प्रसंसा की जाए उतनी ही कम है । क्योंकि यहाँ पर हमारी संस्कृति है , सभ्यता है , परम्परा का निर्वहन कराने के लिए नए और पुराने व्यक्तियों के बीच संवाद का जरिया है और है जीवन को जीने की कला । एक ऐसी कला जिसमें मार्क्सवाद के दर्शन यदि आर्थिक समस्याओं के हल खोजने की प्रेरणा देता है तो गाँधी जी के विचार उसको पाने का तरीका बतलाता है । जहाँ कबीर दास ,"का बाभन का जुलाहा" कहकर समाज में भाईचारा को बढ़ने और जाती-पांति को ख़त्म कर देना चाहते हैं वहीं घनानंद जी यह बतानें के लिए उद्यत हो रहे हों कि इस मार्ग पर चलने का एक ही तरीका है और वह है प्रेम । एक ऐसा प्रेम "जहाँ सांचे sचले तजि अपुनपौ झाझाकी कपटी जे निसाक नहीं।"
यहाँ मोहन राकेश के "अशाध का एक दिन"से संवाद करती मुक्तिबोध की "अंधेरे में "खड़ी कविताएँ है जो पूर्ण होते हुए भी मोहन राकेश के दुनिया में "आधे अधूरे " हैं। यहाँ पर आशा है, निराशा है , वेदना है संवेदना है और है फणीश्वरनाथ रेणू की आंचलिकता । "मैला आँचल" "परती-परिकथा"यदि जीवन की वास्तविकता पर आने के लिए मजबूर कर देती हैं तो "रस्प्रिया", "तीसरी कसम", "आदिम रात्रि की महक",तथा "संवदिया" मध्यम से श्रद्धालु परदों के पीछे छुपे हुए सत्य को पहचानकर मानवीय संवेदना को वेदना के स्वर से भर कर समाज में नव क्रांति लाने को उद्यत हो उठता है । जहाँ पर हर कोई ऐसे पवित्र स्थल पर मत्था टेक कर जतिवादिता और वर्ग-भेदभाव के कारण खड़ी दीवार को तोड़ देना चाहता है, दहा देना चाहताहै और चाहता है निर्माण करना ऐसे परिवेश और सभ्यता का जहाँ पर मानव का मानव के साथ व्यापार का नहीं मानवीयता का सम्बंध हो ,और हर कोई , हर किसी से , अशोक वाजपेयी जी के "कविता का गल्प" का माने तो संवाद करता हुआ दिखाई दे , चिंतन करता हुआ दिखाई दे , अपने जीवन के प्रति , अपनी वास्तविकता के प्रति और सबसे आवश्यक तथा महत्वपूर्ण समस्या साहित्य और समाज के प्रति । की जब साहित्य व्यक्ति की समस्याओं को केन्द्र में रखकर उनके लिए निराकरण खोजने का प्रयास कर रहा है तो आखिर क्या कारण है कि साधारण-वर्ग से लेकर उच्चा-वर्ग , और अध्यापक वर्ग से लेकर विद्यार्थी -वर्ग तक उससे अपनी दूरियां बढाये जा रहा है । कि जब कविता चाहे "भिक्षु" हो या "दींन" , चाहे "वह तोड़ती पत्थर" हो अथवा अर्थहीन जीवन का रोना रोता वृद्ध "चल रहा लाकुटिया टेक" हो इन सबका इन सबके अपने अपने अर्थों में साथ दे रही हो तो आखिर वे सब क्यों उसके विकास और संवर्धन के विषय में उदासीन हैं ।
वास्तव में दोस्तों मुझे बहुत ही आनंद आ रहा है इस तीर्थ स्थल पर आकर। जो तीर्थ यात्रा से ज्यादा पुण्य कमाने का अवसर देती है । श्रद्धा देती है और देती है हौसला जबकि क्लास में क्या है वही ४५ मिनट डेस्क के सामने कुर्सी पर बैठा एक इन्सानिं मूर्ती । या समय पर पहुँच कर लगातार ४५ मिनट लिखवाने वाला ट्यूटर , अथवा फ़िर ये कहें कि गुरु के मर्यादाओं के साथ खेलते हुए "बुद्धिमान बुद्धू" विद्यार्थिओं की संगती । बहुत हद तक अब तो आप सब ये sweekare ही होंगे कि हाँ "ये सब ये सब कुछ" । तो जब ये सब ये सब कुछ है तो आप सब भी आ जाओ इस तीर्थ स्थल पर "जिस तीर्थ स्थल का नाम है "साहित्य" "साहित्य का संसार" और अगर गुरु प्रो० सुनील अग्रवाल सर का मानें तो "आनंद का स्वर्ग" , जहाँ पर पढ़ना और पढाना ही सब कुछ होता है । ..............................

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

आलस्य-युग में मनुष्य लक्ष्यहीन एवं पूर्णरूपें कर्महीन होगा

जंग करना आसान है। जंग में विजय प्राप्त करना आसान है। किन्तु यह जंग तलवारों की हो न की आपसी विवादों की । जहाँ जंग तलवारों की होती है वहां फैसला बाहुबल पर जाता है तथा विजय प्राप्त करना कुछ हद तक मुमकिन हो जाता है। और जब यग लड़ाई आपसी विवाद की होती है , तब दिल कुछ भी करनें से इंकार कर देता है। फिर इन्सान कर भी क्या सकता है? कलह, अशांति व्यक्ति को इतना लाचार कर देती है कि व्यक्ति दिन प्रतिदिन निराशा एवं आत्मग्लानी में डूबता जाता है। एक दिन वह समय आ जाता है जब जिंदा आदमी बुत्परस्त बन जाता है । सब कुछ देखता हुआ भी अनदेखा कर देता है । सब कुछ जानकर भी वह अनजान बन जाता है । अपनी पहचा वह इस कदर भूल जाता है, जैसे डाल से टूटा हुआ पत्ता । यह आत्मविश्वाश ही कितना सहायक होगा ? नसीब ही कितना साथ देगी ? कोई किसी का भला क्या कर सकेगा ? इन सभी विवादों में उलझाना, साथ ही साथ इन विवादों का निराकरण कैसे निकले ? कौन हल करे ये छोटे- छोटे दो चार विवाद ?
अजीब विडंबना है । आज इन्सान खुद को ही नहीं बता पा रहा है कि वह क्या है, उसके अंदर कितना गुण समाहित है,वह समाज के लिए कितना उपयोगी है ? वास्तविकता तो यह है कि आज प्रत्येक व्यक्ति अपनें स्वाभिमान के परे एक कायर की भांति जीवन बितानें में अपना कर्तव्य समझ रहा है। फिर क्या हक है उसे किसी दूसरे पर टिप्परी करनें की ? वह क्यों भाषण देता है कि हम परिवार या समाज की भलाई के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर सकते हैं ? एक आलसी की भाँती जीवन यापन करना इन्सान को शोभा नहीं देता। आलसी व्यक्ति अपनें किसी कार्य को करनें में असमर्थ होता है । फिर वह परिवार समाज या किसी और के विषय में क्या सोंच सकता है ? यदि आज जन जन, बच्चा - बच्चा आलस्य का त्याग नहीं करेगा तो आने वाला समय आलस्य - युग के नाम से जान जाएगा। अर्थात , आलस्य-युग में मनुष्य लक्ष्यहीन एवं पूर्णरूपें कर्महीन होगा । .............

सोमवार, 4 फ़रवरी 2008

फिर क्यों रख रो रही वह अपनी पकी रोटी?

जल रही आग के आगे
तप रहे तावे पर , बैठी
रख रही वह पिसान कि तहें
धीरे धीरे नरम हांथों से
उलटती पलटती देखती
फिर चौपतती
फिर पहुँचाती सबके सामने
कच्ची है रोटी
काले धब्बे ज्यादा पड़ गए हैं
अभी और पकाना था
नहीं लगाई आंच
पक तो गयी , पर जल गयी
ज्यादा लगाई आंच
नहीं इसमें कोई स्वाद
हो गया सब बर्बाद
रख , पका दूसरी रोटी
देना उसे जो आये मेरे बाद
जली , भुनी , रोई
पस्ताती फिर ले आयी रोटी
वही धुवां वही आग
पर पसीना है नया
उलट पलट तरासती
फिर वही नयी रोटी
बन गयी रोटी एकदम नयी
पर फिर क्यों रख रो रही
वह अपनी पकाई रोटी ?.............

रविवार, 3 फ़रवरी 2008

..........इज्जत क्या,उनको रोटी भी नसीब होती है तो इन्हीं चमारों के कारन

कभी कभी, जब कभी , कोई ऐसी रचना हमें पढनें को मिलती है, जिसमें भारतीय वर्ण-व्यवस्था के प्रति व्यंग और मानव जीवन को पाने के बावजूद पशुतर जीवन जीने के लिए मजबूर निचली जातियों, अर्थात दलितों की समस्याओं को सत्य के धरातल पर रख उनके निरासमय जीवन के प्रति, कुंठित भावनाओं एवं संवेदनाओं को, जहाँ दुखों को सहना उनकी परंपरा और वैसे वातावरण में रहना, जहां न तो साफ सफाई हो और ना ही तो कोई घर बार हो , हो तो झुग्गियां- झोपरियाँ । जिनका समय या असमय कभी भी नष्ट हो जाना निश्चित ना हो, उनका परिवेश बन जाता है। ऐसी कहानियो को सुनकर या पढ़कर निश्चित ही ह्रदय में दो तरहं की चिंगारियां फूटती हैं जिसमें एक वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरहं समाप्त कर देना चाहती हैं जबकि दूसरी उन दलितों को, जो पशुतर जीवन जी रहे हैं, वर्ण-व्यवस्था के प्रधान, ब्रह्मण और क्षत्रियों के बीच खड़ा कर देना चाहती हैं।
रामनिहोर विमल की कृति,"अब नहिं नाचाब" हालांकि इसकी रचना १९८० के आसपास की गयी पर भारतीय वर्ण-व्यवस्था की प्रधानता से पूरी तरहं लड़ती हुई और सूद्रों , चमारों एवं दलितों के अधिकारों का समर्थन करती हुई एक ऐसे रंगमंच का निर्माण करती है जहां यदि दलितों को उत्साहित होनें की प्रेरणा मिलती है तो क्षत्रियों और ब्राहमणों को ग्लानी और वर्ण व्यवस्था के प्रति, जो हमारे पूर्वजों, वेदों, तथा उपनिषदों के द्वारा हमें प्रदान किये गए, क्शोभित होनें के लिए हमें मजबूर कर देती है।
अपनें वक्तव्य में विमल जी यह बात मानते हैं,"हमनें इस कहनीं को घटी होते हुए नहीं देखा।"पर आज के परिप्रेक्ष्य में और खासकर जिस समय यह लिखी गई, पूर्णतः सत्य सिद्ध होती है। कन्हाई भगत का, जो कहानी का मुख्य पत्र है, पंडित विद्याधर चतुर्वेदी तथा बाबु साहब शेर शिन्घ से दंडवत प्रणाम करना और उनका ध्यान ना देना। ध्यान देते हुए भी,"उठ उठ ससुर तुम लोग को समय असमय का जरा भी ख्याल नहीं , जब भी मेहरिया भेंज दिहिस, चलि दिहें।"दुत्कार कर अपमानित करना ब्रह्मण और क्षत्रियों का तो परिवेश ही बन चूका था। आज के परिवेश में भी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के लगभग ८०% दलितों की, जहां सवर्णों की बहुलता पाई जाती है,यही दशा है । जो ना तो उनके सामनें खड़ा हो सकते हैं और ना ही तो उनके साथ, उनके खाट पर बैठ ही सकते हैं। ये आज भी समझते हैं,"चमारों की इज्जत जानें से गाँव की इज्जत नहीं जाती। और जिस गाँव में चमारों की इज्जत होती है, उसमें फिर हम लोगों की इज्जत नहीं होती।" पर शायद ये भूल जाते हैं कि इज्जत क्या उनको रोटी भी नसीब होती है तो इन्हीं चमारों के कारन।............................