रविवार, 4 जुलाई 2010

हुआ क्यों नहीं ऐसा सोचा निराला नागार्जुन ने जैसा

हरे भरे दूब, घास
हरियाली लिए तरुण वृक्ष
नीले आकाश के तले
पले बढे ये पेड़ मनचले
कैसे हो गए सुन्दर इतने

पड़ी नहीं थी
माघ, पूस की कडकडाती  ठंडी ,शायद
बरसा नहीं था बादल उमड़ घुमड़
नहीं लगी जून की कडकडाती धुप क्या इनको
कि झुलस गये होते पत्ते इनके
फट गयी होती दंठालियाँ सारी
रो रही होती इनकी क्यारी
सूख कर जर्जर हो गयी होती भूमी यह
विलासिता के संरक्षण में आ रही जो निखार
कंगाली पण में जाती ढह

कम से कम आते न वह
जो खा खा कर मोटे हुए हैं
सम्पन्नता का खाका लटकाए
आदत से निहायत ही छोटे हुए हैं
न काम के न धाम के
तरुण, तरुनियाँ, बूढ़े ,जवान
ये आज के
जो यहाँ पर टहल रहे हैं
निथल्लुओं सा कर पहल रहे हैं

न आते यहाँ पर , जाते वहाँ पर
धान, गेहूं , जौ की खेती
ऊंघ रहे हैं जहा पर
न बारिस , न हवा , न पानी
न छांव, न धूप
ऐसा विपन्न , ऐसा अव्यवस्थित
गाँव, पट  गये जहां के सारे कूप

पहुँचते , टहलते , दौड़ते
पेलते डंड
दिन भर , रात भर , चलते चलते , खटते हुए
किसानों का होता राज अखंड

हुआ क्यों नहीं ऐसा
सोचा निराला नागार्जुन ने जैसा
क्या हवा पानी प्रकृति
ये सब के सब दिख रहे निठल्ले
फिर कैसे हुए इनके बल्ले बल्ले ?   

शनिवार, 3 जुलाई 2010

सभी को एक ही परिदृश्य पर खड़ा करके सुधार का पाठ पढ़ाते हैं कबीर ....

वियोगी होगा पहला कवी ,'' जब पन्त ने यह बात कही थी तो शायद उनका ध्यान सीधे कबीर की तरफ गया था क्यों की यही एक ऐसा सख्स है जो सामाजिकता के परिप्रेक्ष्य में 'पहला ' और जीवन के धरातल पर 'वियोगी' होने का उत्कृष्ट प्रमाण पेश करता है । क्योंकि कबीर के काव्य के पहले सामाजिक वातावरण का व्यापक परिदृश्य कहीं भी नजर नहीं आता है , अगर है भी कहीं तो श्रृंगार है , दरबारी व्यवहार है , सत्ता और नारी के बीच पिस रहे राजाओं की स्वतंत्र तकरार है । और जहाँ सत्ता और नारी है वहाँ सामाजिकता का बोध ही किसे होता है । सारी फिजा ''खावै और सोवै ''के परिवेश पर फ़िदा होता है ''जागे अरु रोवै '' की श्रेणी में तो वही न आ सकता है , जो घुट रहा हो ,लुट रहा हो ,पिस रहा हो ,घिस रहा हो , उंच नीच , भेद-भाव , जाती-पांति के अँधेरे में ,अपमान तिरस्कार और दुत्कार को न सिर्फ मह्शूश कर रहा हो अपितु झेल रहा हो इन अमानवीय प्रताड़नाओं को और इसके बावजूद भी ''बाजार'' में खड़ा होकर सबके लिए ''खैर'' मांग रहा हो । ना काहूँ से दोश्ती न काहूँ से बैर'' के सिद्धांत पर ।
जो सभ्य हैं वो भी और जो असभ्य है वे भी , सभी की एक ही समस्या है । सभी माया से ग्रसित है । सभी जाती-पांति के पहरेदार हैं । स्वार्थ लोलुपता ,दरिद्रता,कंगालिपन और पारिवारिक भावुकता से सभी ग्रसित हैं । फिर कबीर किससे दोस्ती करे और किससे करे 'बैर' । सभी में सुधार की आवश्यकता है इसीलिए वह'' मांगे सबकी खैर '' । फिर 'का हिन्दू का मुसलमाना '' का बाभन का सूद '' सभी को एक ही परिदृश्य पर खड़ा करके सुधार का पाठ पढ़ाते हैं कबीर '' बलिहारी गुरु आपने '' जे माध्यम से ।
यही नहीं'' कबीरा खड़ा बाजार में '' जाती के आधार पर समाज पर रौब गांठने वाले ब्राह्मणों से खुले रूप में पूंछ बैठता है''तुम काहें को बाभन पांडे हम काहें के सूद '' अथवा ''काहें को कीजै पांडे छोटी विचारा छूतिः ते उपजा संसारा'' ''जे तूं बाम्हन बहमनी जाया और द्वार ह्वै क्यों ना आया ।'' इसी तरंह हिन्दू और मुश्लिम के बीच फैले तमाम प्रकार के रूढ़ियों और अंधविश्वासों को कबीर ने न सिर्फ दूर करने का प्रयास किया अपितु अपने स्वतंत्र और फक्कड़ मिजाज के बल पर दोनों को ही सामाजिकता के रंग में रंगने के लिए मजबूर कर दिया । और यह उनका स्वतंत्र व्यक्तित्वा ही था जो तत्कालीन समय के मुश्लिम समुदाय से भी , जिनके हाथ में हिंदुस्तान का शासन था ' पूंछ बैठता है ''कंकर पत्थर जोरि के मस्जिद लई बनाय ता चढ़ी मुल्ला बाग़ दे का बहरा हुआ खुदाय । '' जे तुरुक तुरुक्नी जाया भीतर खतना क्यों न कराया । '' और तो और उनकी आस्था पर भी क्या गजब का सवाल करते हुए दिखाई देते हैं कबीर ,''दिन भर रोजा रखत हैं रात हनत हैं गाय , यह हत्या वह वन्दगी कैसे ख़ुशी खुदाई । ''
इस प्रकार की स्वतंत्रता ,स्वच्छंदता , इस प्रकार की सामाजिकता और समाज से जुड़े हुए प्रत्येक वर्ग के प्रति व्यावहारिकता , रूढ़ियों और समाज विरोधी परम्पराओं को खुली चुनौती देने की प्रतिबद्धता क्या कबीर से पहले के किसी कवी में पाई जा सकती ? इसीलिए तो महान आलोचक और भारतीय साहित्य के शलाका पुरुष आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने स्पष्टतः उदघोष किया किया की '' हिंदी साहित्य के हजार वर्षों में कबीर जैसा व्यक्तित्वा लेकर ना तो कोई उत्पन्न हुआ और ना ही तो होगा । ''

सरस्वती वंदना - ऐसा वर दो

छोड़ मातु पिता गुरु साथ चले तव खोजन में माँ सरस्वती
एक आश बड़ा विश्वाश भरा मम पूरा करो माँ सरस्वती
हे वीणापाणिं वीणा वादिनी हम आज तुम्हारे शरणों में
दर दर भटका कुछ मिला नहीं अब ध्यान तुम्हारे चरणों में ॥

इतना सा बस किरपा कर दो हो सर ऊंचा ऐसा वर दो
अज्ञान हरण हो ज्ञान महा दुर्बुद्धि में ऐसा सुध भर दो
औरों की चाह नहीं मुझको बस नाम तुम्हारा अधरों में
पर -कार्यन में मन रमा रहे रहे निरत सदा शुभ कर्मो में ॥

धन की कुछ चाह नही मुझको नहीं शौक किसी सुख साधन की
नहीं अभिलाषा मणि -महलों में रहूँ पर क्षमता दो दुःख भाजन की
वीणा की जो नव सुर हो ''अनिल'' वह सुर फैले हर नगरों में
हो शीतल तेज प्रकाशित मन विचलित नहीं भौतिक लहरों में ॥

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

शायद भारतीय और भारतीयता को गाली देना ही कुछ लोगों का विशेष ''इरादा'' हो गया है ... .

ये इश्क बड़ा बेदर्दी है '' जो सिर्फ उसे ही नहीं ''रात दिन जगाये '' जो इसके गिरफ्त में आये बल्कि अब यह उन लोगों के लिए भी गले की फास होती जा रही है जो ''इश्क के इन दीवानों '' के बीच में आते हैं और 'सामाजिक प्रतिष्ठा'या पारिवारिक मर्यादा ' अथवा सभ्य समाज का हवाला देकर उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं । जबकि वे करते तो एक प्रकार से ठीक ही हैं क्योंकि प्रेमी जोड़ों का इस प्रकार से स्तित्व में आना न सिर्फ अनैतिकता को निमंत्रण देना है अपितु आधुनिकता के वातावरण में आदिमान्वी प्रवृत्ति को पोषना भी है । पर इनके इस उद्दघोष के आगे की '' जब जब प्यार का पहरा हुआ है प्यार और भी गहरा हुआ है ''या '' प्यार में जियेंगे या मर जायेंगे '' अथवा ''प्यार करने वाले किसी से डरते नहीं '', उनकी सभी उक्तियाँ बेजान सी दिखाई देनें लगी हैं ।

तब ऐसी अवस्थामें खाप पंचायतें वोट बैंक हैं ,ग्रामीण परिवेश मूर्ख है ,पारंपरिक भारतीय समाज गधों का समाज है जो सिर्फ और सिर्फ भेडचाल करना जानती है । जो ना तो किसी के स्तित्व को समझती है और ना ही तो सभ्यता के आगे सम्बंधित 'संवेदना' को मान्यता देती है ।

तो क्या उन प्रेमी जोड़ों के स्तित्व को स्वीकार कर लिया जय । १०-१५ वर्ष तक के लडके लडकियों को प्रेम करने की खुली छूट दे दी जय ? खुली छूट जिसमें लडके लडकियाँ खुले तौर पर कहीं भी , किसी भी जगंह , बाहों में बाँहें डाले , होठ से होठ सताए , निर्वस्त्र, नंगे , कुत्तों और जानवरों की तरंह सडको पर , गलियों में , अथवा अन्य किसी भी सार्वजनिक स्थल पर ,जिस्मानी सम्बंध बनाए और लोग देखते रहे ? और फिर क्या इस बात की कल्पना की जा सकती है की लोग सिर्फ देखेंगे ही ? क्या वे भी इसी रंग में नहीं रंग जायेंगे ? तब ऐसी स्थिति में क्या दशा होगी भारतीयता की अथवा उस भारतीय समाज की जो आदर्श्ता, नैतिकता और संयम जैसे नीव पर आधारित है ?

फिर तो भाई-बहन , माता -भाभी आदि रिश्तों का कोई सवाल ही नहीं रह जाता , स्तित्व ही नहीं रह जाता यहाँ पर । जहां पर इश्क ही सब कुछ समझ लिया जाय, प्रेम ही सब कुछ मान लिया जाय ,अथवा जान लिया जाय मुहोब्बत को ही सब कुछ वहाँ पर तब रिश्ते नाम की क्या कोई चीज रह जायेगी ?आखिर एन जी ओ ,' चाहती तो यही है की 'प्रेमी जोड़ों को कानूनी सुरक्षा दी जाय', 'प्रत्येक जिले में कानूनी कार्यालय बनाई जाय।' ' उनके लिए दंड का प्रावधान किया जाय जो इनके विरोध में खड़े होते है अड़े होते हैं उनको सामाजिकता का बोध कराने के लिए ''।

क्यों ? आखिर ऐसा क्यों ? समझ नहीं आता की ये किसी विशेष अधिकार की मांग है या एक विशेष प्रकार का पागलपन जो कभी प्रेम की स्वतंत्रता के प्रति उमड़ता है तो कभी वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने के प्रति । फिर एक सभ्य समाज पर इन कानूनों का क्या असर पड़ेगा क्या इसके भी विषयों पर कभी सोंचा गया ? जहां तक मेरा ख्याल है तो भारतीय और भारतीयता को गाली देना ही कुछ लोगों का विशेष इरादा हो गया है .... ।

यही सचेतनता यदि ना आयी होती 'धाम धन ' छोड़ने की तो शायद ही ........ .

आदर्शता और नैतिकता क्या कभी विकास का पर्याय हो सकते हैं ? समझ में यही नहीं आता । विकास वह विकास जिसमें भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार का उद्देश्य लक्षित हो और वह आदर्शता और नैतिकता के आवरण में फलता फूलता दिखाई दे । पर ये सिर्फ और सिर्फ संभावनाएं हैं और अटकल हैं । जिसमें सिर्फ आशाये की जा सकती है । अटकलबाजी की जा सकती है । वास्तविकता दूर दूर तक कहीं भी नजर नहीं आ सकती । फिर आखिर किस प्रकार विकास पथ को सुदृढ़ किया जय ?

चारित्रिक दृष्टि से तो आदर्शता और नैतिकता की बात कुछ हद तक तो समझ में आती है पर ये एक ऐसी कड़ी है जो कभी भी चाहे वह आध्यात्मिक मार्ग हो या फिर भौतिक मार्ग ठीक ठाक तरीके से सिर्फ जीवन यापन करने का तरीका दे सकती हैं ना तो आध्यात्मिकता का संबल प्रदान कर सकती हैं और ना ही तो भौतिकता का आनंद । क्योंकी इतिहाश गवाह है , जो कोई भी, कभी भी अपना विकास किया है , भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही अस्तर पर , उन्हें इस आदर्शता और नैतिकता को ठुकराना पड़ा है । छोड़ना पड़ा है और पड़ा है त्यागना । फिर चाहे वह महात्मा गांधी हों , [सत्य के प्रयोग], या फिर गौतम बुद्ध । भीमराव आंबेडकर हों या फिर क्रन्तिकारी सरदार भगत सिंह । 'सत्य के प्रयोग' में महात्मा गाँधी जब वकालत के लिए विदेश का रुख करते हैं उन्हें मिलता क्या है -जाती निकला का तमगा जिनके चलते इन्हें उन नैतिक नियमों को तिलांजलि देना पड़ा । दलित वर्ग को ठीक ठाक स्थिति में लाने के लिए हिन्दू धर्म को त्यागने का निर्णय आंबेडकर को भी करना पड़ा था। हालांकि रोक लिया गया ये बात दूसरी थी , पर रास्ता तो वही था ''विद्रोह'' आदर्शता और नैतिकता से ।

विद्वनों, कवियों और दार्शनिको की भी मने तो यही बात सामने आती है और कुछ तो इसे माया की संज्ञा देकर ''माया महा ठगनी हम जानी '',कहा तो कुछ ने पारिवारिक वातावरण से दूर होकर ''छोड़ धाम धन जाकर मैं भी रहूँ उसी वन में '' की धरना अपनाई । जबकि बहुतो ने '' अब हम तो चले प्रदेश की मेरा यहाँ कोई नहीं '' या ''ये गलियाँ ये चौबारा यहाँ आना नहीं दुबारा '' की प्रवृत्ति का अनुसरण किया ।और यही '' मेरा यहाँ कोई नहीं '' की प्रवृत्ति ने ही उन्हें विकास का फलक प्रदान किया । और इस भाई- भतीजावाद की भवचक्कर में कुल्चक्कर में उलझकर बर्बाद हों से सचेत किया क्योंकि यही सचेतनता यदि ना आयी होती 'धाम धन' छोडनें की तो शायद ही यहाँ पर गाँधी और विवेकानंद जैसे प्रेरणाश्रोत के दर्शन होते ।

वो बस एक कल्पना भर थी .....

हुए जो दूर तो
नजदीकियों की एक चाहत ने
आवाज दिया धीरे से
खामोश हो सुनता रहा
मजबूरी की दबिस में
मन ही मन घुटता रहा
मह्शूश किया तपिश
आत्मा की
और एक कदम बढाया
आशाओं की एक आहट ने
स्वागत किया धीरे से
पास आये , थे जो दूर
किया मैं उनको इस कदर मजबूर
क्या हुआ की
वो बस एक
कल्पना भर थी ...... ।