शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

अभी अभी छूटा था माँ का आँचल
दोस्तों का साथ तो मानो भूला भी ना था
चलता था मेड़ पर तो पैर डगमगाते थे
सच , चड्ढी का नाड़ा बांधना भी तो नहीं सीखा था
उठा हाथ पिता का तो मानों मैं बड़ा हो गया ॥
दिन दिन महीने महीने रेघता एक कपड़े के लिए
जूते तो स्वप्न ही हो गए थे
थे चप्पल हवाई, चमड़े के नशीब होते कभी
स्यूटर एक , सना रेह और धूल से
जरूरत पड़ी कोट की तो मानों मै बड़ा हो गया ।।
दो टाफी , बिस्कुट , चीनी साथ गुड भी मिलते
घंटों मांगते , मिलते , बुझे चेहरे खिलते
पर पड़ते जब थप्पड़ आंसू रोके ना रुकते
दो चार रुपये , बडे आते , मिलते कभी कभी
माँगा जब सौ तो मानो मैं बड़ा हो गया ॥
बड़ा हो गया अब तो छोटों का नमो निशा ना रहा
क्या क्या सुनाऊं सब कुछ तो गुनाह हो गया
सहा हर वह कुछ जो बडो नें किया , फ़िर भी
गलत रहा हो या सही , एक नीतिवादी बनकर
जरूरत पड़ी बोलने की तो मानों मैं बड़ा हो गया ॥
छीन गया अधिकार सब , टूटी थाली छूटी कलम
भटकने लगा दर दर मिला हर जगह वही गम
ना कोई किनारा , ना कोई सहारा , भटकता गलियों में बिचारा
हर चाहने वालों नें पुकारा अब अपने पैरों खड़ा हो गया
फिसला जब ,माँगा सहारा तो मानों मैं बड़ा हो गया ॥
भटक रहा हूँ भटकने दो , दो ना सहारा
पर कृपा करके कहो ना मैं बड़ा हो गया
टूटी थाली छूटा कलम तो क्या हुआ , हौसले हैं अभी
अभी तो कली हूँ , कौन सा तबसे बुरा हो गया
छोटा रहना ही करूंगा पसंद ना कहो की मैं बड़ा हो गया ॥

अच्छा तो हमें नशीब नहीं बुरा ही बस बनते चलो ...


दोस्त तुम घटे चलो यार तुम मिटे चलो


अयोग्यता का प्रचार हो विद्वता का संघार हो


ना आएगी कुसमय कभी ये न होगी दुर्दशा कभी ये


निर्माण से विनाश पथ पर ऐ यार तुम डटे चलो ॥




संसार है पलट रहा हर द्वार है उलट रहा


पहले जहा तरु-पत्तियां , अब धूल ही उचट रहा


क्या पेड़ तुम लगाओगे , व्यर्थ समय यूँ गवाओगे


जो तालाब हैं कुवा खुदे , उन्हें भी बस पटे चलो ॥




कटे चलो परिवार से आचार से व्यवहार से


ना पित्रि से ना मात से सम्बन्ध हो बस स्वार्थ से


बनाए जो पूर्वज , सभी मिटाओ तुम अभी अभी


है सभ्यता तो पश्चिमी ना भारतीयता लखो ॥




उठो उठो उठो सभी हुंकार लो अंधकार हो


किसी तरंह कलयुग का अभी अभी उद्धार हो


जहाँ को है भूनना उठा लो तुम हथियार को


मनुजता को ना सोचो बस पशुता पर अड़े चलो ॥




बढ़े चलो बढ़े चलो विनाश दूर अब नहीं


शीलता और दीनता तो जिन्दा ही नहीं कहीं


कहीं कहीं जो थोड़ी सी इमान है बची अभी


उसे भी क्रूर अशिष्टता से दमित तुम करते चलो ॥




चलो चलो चलो चलो , जागो , सभी चलते चलो


कतराए जो चलनें से यूँ , उसे भी कुचलते चलो


क्या पता कब तक रहो , मृत्यु आज ना कि कल ही हो


अच्छा तो हमें नशीब नहीं बुरा ही बस बनते चलो ...........................,, ॥

हम जूझ रहे हैं ...........


घूम रहे हैं आज हम


बेसुर, बेताल और बिना किसी कारण के


हम घूम रहे हैं


कहीं जनता की खीझ है


एक , एक दूसरे के ऊपर टूट रहा


पछाड़ने के चक्कर में ,


तेज रफ्तार से


गिरते लड़खड़ाते कूद रहा


तो कहीं गाड़ियों की कर्कश आवाज


यहीं कहीं


रिक्शेवान की चलती सांसे हैं


चपटे गाल और चिपके पेट


कई अनबूझ सवालों को बूझ रहे हैं


और हम जूझ रहे हैं


अपने ही मन की उदासी से


हैरत में है ये लोगो को देखकर


जनता की भेड़चाल पर


गाड़ियों की बड़ी बड़ी कतार पर


रिक्शे वाले के अनूठे व्यवहार पर


खुशी हैं वे अपनें अपनें आचार पर


फ़िर भी नाहक ही


अनेक तरीके जीनें के


आज हमको सूझ रहे हैं


लगातार उन तरीकों से


ऐसा लग रहा है


हम जूझ रहे हैं ....................... ।