सोमवार, 2 जून 2008
' सिद्धविनायक ' में अमिताभ बच्चन
धन्य हुए हम , हुए जो मेहरबान
ना तो गीता श्लोक को पढ़ना
ना ही तो रटना पड़ा कुरान
तुम आए आए तुम भगवान
तुम चले जलसा से सिद्धविनायक
हे युग निर्माता हे जननायक
तुमसे बड़ा कौन , है कौन तुमसे महान
तुम आए आए तुम भगवान्
लगाए कतार , गणेश नहीं तुम्हारा जयकार
उनके दर्शन में होती देरी - अदृश्य वे
दिखे तुम प्रत्यक्ष , स्पष्ट , साकार
नहीं शिकायत , गिला कुछ भी
बसता तुम्हारे दर्शन में प्राण
तुम आए आए तुम भगवान ....... ।
मेरी दुनिया में ' तुम ' तुम ना रहे
मेरी दुनिया में " तुम " तुम ना रहे
कोई और आया था तुमसे पहले
आप बनकर
सहज सुंदर स्वाभाविक रूप सा
एकदम सरल एकदम सीधा
मिलता भी हर जगंह
' यहा ' या ' वहाँ ' या कहीं और
जरूरी नहीं की मैं ही
उसके पास जाऊं रोज सुबह सुबह
जरूरत हर की हर से होती है
हमारे उसके रिश्ते के
सबसे ठोस प्रत्यक्ष वजह
एक एक के लिए , एक दूसरे जैसा
बिन ' दूसरे ' एक कैसा
क्योंकि हमारी दुनिया है निराली
निराली दुनिया में पहले के ' तुम '
आज के ' आप ' हो गए
' आप ' साथी , दोस्त बने
दुश्मन ना रहे
मेरी दुनिया में ' तुम ' तुम ना रहे
कोई और आया था तुमसे पहले
आप बनकर ....... ।
तब तुम याद आते हो .......
कभी कभी
जब हर जगंह से
टहल टहल कर थक जाता हूँ मैं
तब तुम याद आते हो
याद आते हो की यदि पास होते
तो तुम्हारा आंचल होता
होता मैं दुखी जब , हाँथ के साथ उठता
वह आंचल तेरा, मेरे सिर तक पहुँचता
धीरे धीरे नींद आती होती
आ जाती , तब तुम जगाते
जगाते और कहते
खाने से पहले मत सोया करो
सोया करो पर जल्दी नहीं
पढ़ लिख कर
आते हो याद तब भी
जब कोई डांट जाता है
की यदि होते तुम तो कहते लोग 'प्यारे भइया '
'उठ उठ ' ना कह कर कहते लोग
' उठो बेटा ! सुबह हो गयी .......... ।
अपने हित की बात
मेरी कल्पनाएँ
यादें मेरी
उकसाती हैं मुझे
युद्ध करूं मैं उनसे
सोंचता हूँ मैं
पड़ोसी मेरे ये
सुखी रहें
समृद्ध रहें
क्या लड़ाई
क्या तकरार
पड़ोसी हैं ये बने रहें ऊंचे
नाम होगा मेरा ही ....... ।
ये आशाएं
होती हैं कितनी अच्छी ये
जब चलता हूँ मैं
हो लेती हैं साथ मेरे
रहती हैं साथ समय हर
और देती है साथ मेरा हर समय
ताकि हम सोंचते रहें
ताकि हम मूक न हों
विचरते रहें
दुनिया , देश , समाज के हित
कुछ करने के लिए
हम सोंचते रहें
सोंचते रहें हम
की कैसे हमें उठना है
कैसे चलना है
बच बच कर रहना है
और होना है कैसे सफल
निराशाओं के पथ पर
ये सब बताती हैं
ये आशाएं ....... ।
रविवार, 1 जून 2008
जीता रहता हूँ मैं
लोग कितने आलसी हो गए हैं
एक घर के निर्माण में
एक महीने के दिन भी
हो जाते हैं कम
कितनी कर्मठता है मुझमें
की एक घर मैं रोज ही
बनता हूँ , रहता हूँ , और
बिगाड़ता हूँ
छोड़ देता हूँ उसको
ख़ुद के लिए नहीं
आने वाली नस्लों के लिए
खंडहर के रूप में
रहता है वह खंडहर
कम, अधिक , घटते - बढ़ते क्रम से
वह निरंतर रहती है
जीता रहता हूँ मैं
उसके लिए नहीं
आने वाली नस्लों के लिए
एक पूर्वज के रूप में ........ ।
यादें
कभी कभी बीते हुए पलों में जाकर , वो तू ही है न जो कर देती है रोने को मजबूर ना चाहते हुए भी तूं ला देती है दूसरों के साथ विताये गए पलों को , गुजारे गए लम्हों को , किए गए वादों को । क्या इसलिए कि हमारा समय पास हो या फ़िर इसलिए कि हों टूटे हुए रिश्ते प्रगाढ़ ? प्रगाढ़ता आयेगी कैसे बोल ? क्या टूटे हुए दिल के तार कभी सांत्वनापूर्ण जुडते हैं , यदि ऐसा होता तो क्यों कहलवाती तूं रहीम से "रहिमन धागा प्रेम का तोड़ो न चटकाय" पगली तूं क्या है रे , क्या अब तेरा मिलन आत्मा से नहीं होता ? तभी तो हो जाती है बैठे बैठे बोर और आ जाती है समय बिताने के लिए हमारे स्मृति पटल में । पर तब , जब तूं समय बिताने आती है , क्यों नहीं लगती मेरे अनुरूप ? तूं है क्या यादें ही या कोई और , पहले स्पष्ट कर तेरे कितने प्रतिरूप ?