आज मैं कुछ सोच रहा हूँ . समझ रहा हूँ. विचार कर रहा हूँ . यह जानते हुए भी कि इसका कोई प्रतिफल मुझे प्राप्त होने वाला नही है , पर क्योंकि एक नागरिक हूँ देश का , सदस्य हूँ समाज का , अंश हूँ समुदाय का , प्रतिभागी हूँ भविष्य में बन्ने वाले किसी संगठन विशेष का इसलिए उस मंच पर जहां बहुत सी मूर्तियाँ दिखती हैं अपनी अपनी भूमिका में , कोई किसी रूप में तो किसी रूप में . अवसर सभी को मिलता है , परिस्थितियाँ सभी को मिलती हैं पर समयाभाव के कारन स्थितियां परिवर्तित कर दी जाती है .
unhin स्थितियों पर कर रहा विचार पूर्ण व्यवहार हूँ .
दो महत्वपूर्ण दिवस 'राष्ट्रीय शिक्षक दिवस '' और ''अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस '' हमारे सामने से जा रहे हैं हर साल की तरह इस साल भी . एक की गूँज पूरे हिन्दुस्तान में है तो दूसरा सम्पूर्ण विश्व में गुंजायमान हो रहा है . दोनों का ही उद्देश्य मानव को मानवीयता प्रदान करना है . आंकड़े दोनों पर बैठे जा रहे हैं . ग्राफ दोनों का ऊंचा है लोगों को दिखाए जा रहे है . बताये जा रहे हैं न्यूज पेपरों और टीवी चनलो पर कि इस वर्ष अगले वर्ष की अपेक्षा इतने लोगो को साक्षर बनाया . इतने बेरोजगार अध्यापकों को अध्यापकी दी गयी और वरिष्ठ अध्यापकों को सम्मानित किया गया . मतलब सरकारी आंकड़े feelgood के आवरण में चमचमा रहे हैं जबकि वास्तविक स्थितिया यथार्थता के धरातल पर दम तोड़ रही हैं . सिसक रही हैं .
बात अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस की
निरक्षर कौन था ? कौन है ? कौन साक्षर हुआ ? क्या इसका जवाब लिखित रूप में किसी सरकारी महकमें में पाया जा सकता है .? जो निरक्षर हैं , स्कूल नही पहुच पा रहे हैं , स्कूल का द्वार उन्हें दिखाया गया तो कैसे ? उन अनपढ़ , अशिक्षित , और नासमझ अविभावकों को साक्षरता के विषय में समुझाया गया तो कैसे ? क्या यह बताया जा सकता है ? ''सर्वशिक्षा अभियान '' '' सभी पढो , आगे बढ़ो '' का जो नारा सभ्य समाज द्वारा दिया गया है उसका कितना असर अनपढ़ और गंवारों पर पड़ा क्या कहीं दर्शाया जा सकता है ? जो पढ़े लिखे है , जो स्कूल जा रहे हैं , जिनके अविभावक समझदार हैं उन्हीं की एक लम्बी चौड़ी फ़ौज इकठ्ठा करके किसी जुलुस में दिखा देना क्या यही सर्वा शिक्षा अभियान है ?
सर्वशिक्षा अभियान'' के तहत '' मिड-डे-मिल ''योजना को आकर्षण का केंद्र बताया जा सकता है . बच्चे दिन प्रतिदिन के खानें के लालच में पढ़ने आयेंगे . गरीब अविभावको को सुविधा होगी , वे बच्चों को पढ़ने भेजेंगे . पर जरा बताइए कितने अध्यापको की तैनाती है ऐसे विद्यालयों में ? भोजन जो दिए जाते हैं , क्या यह सत्य नहीं है है कि उसमें कीड़े मकोड़े स्वतंत्र रूप से विचरण कर रहे होते हैं . फिर जो माता-पिता दिन - रात मजदूरी करके दो वक्त की रोटी का जुवाड करते हैं क्या वे अपने बच्चों को नहीं खिला सकेंगे ? इस जगंह मिड- डे - मिल की क्या जरूरत थी ? क्या इसके बजे कोई दूसरी योजना नहीं बनाई जा सकती थी ? बनाई जा सकती थी . पर उन ग्राम प्रधानों और अध्यापको का क्या होता जो मिड डे मिल के दाने से ही अपना पेट भर रहे हैं . इनके इस दलाली पण और धोखाधड़ी के चलते ही निचले तबके के लोग भी स्कूल नहीं भेजते अपने बच्चों को ... क्या कभी सोंचा गया .....?
बात राष्ट्रीय शिक्षक दिवस की
निरक्षरों को साक्षर बनाये कौन , माता-पिता या अध्यापक ?माता - पिता तो अपनी भूमिका अदा कर देते हैं . नहला दुला कर भेज देते हैं . खाने की चिंता भी नहीं रही पर जिस स्कूल में वे आते हैं , जिनके आश्रय में उनको रखा जाता है , वह अध्यापक ही तो है ? आखिर उसकी कमी कौन पूरा करे ? कई स्कूल तो ऐसे हैं जहाँ पर एक भी अध्यापक नहीं है . विद्यार्थी ही शिक्षक है विद्यार्थी ही शिक्षार्थी . कितने विद्यालय इस तरीके के भी हैं जहाँ अभी तक आवास की उपलब्धता नहीं हो सकी है और एक अध्यापक के सर पर ३००-४०० बच्चों को ठोका जा रहा है . क्या यह बात समझा जा सकता है कि अध्यापक भी आम लोगों की तरह एक आम इन्सान ही है ना कि कोई जादूगर या भगवान जो इतनी बड़ी संख्या को पढ़ा सके .
स्पष्ट है कि ना तो वह पढ़ा सकता है और ना ही तो उन्हें अपने कंट्रोल में ही रख सकता है . जमाना भी वह नहीं है कि मार पीट दे किसी बच्चे को और उसके डर से सहमें रहे सभी , क्योंकि कानून के दायरे में अब एक बात और आनें वाली है ''न तो अध्यापक बच्चे को चाटा मार सकता है और ना ही तो उन्हें मुर्गा ही बना सकता है (दैनिक जागरण) मतलब अब वह एक ही कार्य कर सकता है कि एक डंडी लेकर भेड़ चरवाहों की तरह बैठा रहे और इशारे से सिर्फ उसे निर्देशित करता रहे . कहीं वह भेड़ बहंक जाए . किसी का कुछ नुकसान कर दे मार वह चरवाह ही खाए . उसकी दशा पर रोने वाला कोई नही . वेतन के रूप में तनख्वाह जो पा रहा है . सांसदों की तनख्वाह बढ़ाई जा रही है . विधायकों की तनख्वाह बधाई जा रही है . कहीं कोई कुछ भोलने वाला नहीं . फिर अध्यापकों के वेतन पर इतनीं बड़ी आपत्ति क्यों ? वह जो आठ घंटे बड़ी मशक्क्कत करता है , ३००-४०० बच्चों के बीच माथा-पच्ची करता है . स्वयं के स्तित्त्व को भुलाकर बच्चों के व्यवहार को वरण करता है , क्या कभी उसकी परेसनियों मजबूरियों और दिक्कतों को समझा गया ? अगर समझा भी गया तो क्या अध्यापको की नियुक्तियों को बढाया नहीं जा सकता ? क्या हिंदुस्तान में स्नातकों की कमी है ? ? बी एड धारको की कमी है या फिर वे मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं ? स्नातक हैं . बी एड धारक हैं . सक्षम हैं मानसिक रूप से वे पर अध्यापकी करने के लिए पुलिसों की लाठी खाने के लिए . जेल जाने के लिए . दौड़ा दौड़ा कर पीते जाने के लिए .
आखिर यह विडंबना ही तो है , दुर्भाग्य ही तो है देश का कि एक तरफ अध्यापकों की व्यापक कमी है और दूसरी तरफ प्रशिक्षित डिग्री धारक , प्राइवेट अध्यापक दौड़ा दौड़ा कर पीटे जा रहे हैं सडकों पर . फिर शिक्षक दिवस किस बात का ? क्या गिने चुने व्यक्तियों को राष्ट्रीय पुरस्कार दे देना ही शिक्षक दिवस है ? यदि ऐसा है तो क्या इसे राजनीतिक दांव नहीं कहा जा सकता ? सबको अँधेरे में रखकर एक को उजाला देना या सभी को भूखे रखकर एक को खीर खिलाना राजनीती नही तो आखिर क्या है ? इस राजनीतिक सोंच को बदलना होगा . परिवर्तित करना होगा उनको अपने इरादों को . ''सभी पढो , सभी बढ़ो '' के सपने को साकार भी तभी किया जा सकता है . क्यों कि कोई अध्यापक अपने स्तित्त्व को बेंच नहीं सकता . हर एक राजनीतिज्ञों की तरंह वे 'बिन पेन के लोटा ' नहीं होते हैं . उनका अपना एक सम्माननीय स्तर होता है . एक स्तित्त्व होता है. और ऐसी जगंह पर भारतीय राष्ट्रपति जी को उन अध्यापको से रोज स्कूल आने और शिक्षण कार्य जरी रखने की शिक्षा देने से ज्यादा बेहतर होगा कि अपने ही राजनीतिज्ञों के नेक नशीहत दें ताकि उनकी नज़रों में भी ''अध्यापकी '' की सार्थकता हो , और कम से कम अध्यापकों और शिक्षको के पक्ष में जो निर्णय लें उसका कोई निहितार्थ निकले . .......
गुरुवार, 30 सितंबर 2010
शनिवार, 25 सितंबर 2010
कुछ दोहे
याद न कर मन और अब , याद रहे ना कोय
जे मन उलझा याद में , याद गये ना कोय ....
आंसू पानी एक सम , एक प्राण दो रूप
एक रहे जीवन सरल , एक रहे नर - रूप ......
मन क्यों मन से दूर है , मनन का है फेर
मन मांगे मन ना मिलै , मन का है अंधेर .. ..
ध्यान रहा निज रूप का , मन का सुनी गुहार
रूप घटा यौवन ज़रा , फीका मन का द्वार .....
हार न माँ बढ़त चल , सब जग निज घर द्वार
सब संग प्रेम बढाय के , हो जा गले का हार .....
गिरत बूँद मन होत खुश , बूँद गिरे दुख धोय
बूंदन की महिमा बहुत , सागर पूरित होय ......
प्यासी धरती धधक कर , नभ से मांगी तोय
जे नभ बरसा गरजकर , होत ख़ुशी सब कोय .....
जे मन उलझा याद में , याद गये ना कोय ....
आंसू पानी एक सम , एक प्राण दो रूप
एक रहे जीवन सरल , एक रहे नर - रूप ......
मन क्यों मन से दूर है , मनन का है फेर
मन मांगे मन ना मिलै , मन का है अंधेर .. ..
ध्यान रहा निज रूप का , मन का सुनी गुहार
रूप घटा यौवन ज़रा , फीका मन का द्वार .....
हार न माँ बढ़त चल , सब जग निज घर द्वार
सब संग प्रेम बढाय के , हो जा गले का हार .....
गिरत बूँद मन होत खुश , बूँद गिरे दुख धोय
बूंदन की महिमा बहुत , सागर पूरित होय ......
प्यासी धरती धधक कर , नभ से मांगी तोय
जे नभ बरसा गरजकर , होत ख़ुशी सब कोय .....
शायद मैं , आंसुओं का समुन्दर हूँ एक
शायद मैं
आंसुओं का समुन्दर हूँ एक
छाती है घटा जिधर से भी
देता हूँ दो बूँद फेंक
हर मौके की अपनी
सिनाखत होती है एक
वहीँ छोटी सी इस जिंदगी में
आफत होती है अनेक
कोई समझे न मुझे
रहता हूँ बेखबर इस दुनिया से
पल दो पल बाद
देता हूँ दो बूँद फेंक
फिर भी कुछ लोग समझे
धुंए के तेज से निकली
आँखों का पानी है ये
समय बेसमय इसीलिए
देता हूँ दो बूँद फेंक
न हंसी हो हमारी
न बदनामी उन आसुओं का
कि समझे लोग
खेल है ये किन्हीं मासूमों का
खाकर गम ही सही
देता हूँ दो बूँद फेंक
शायद , शायद मैं
आंसुओं का समुन्दर हूँ एक .............. .
आंसुओं का समुन्दर हूँ एक
छाती है घटा जिधर से भी
देता हूँ दो बूँद फेंक
हर मौके की अपनी
सिनाखत होती है एक
वहीँ छोटी सी इस जिंदगी में
आफत होती है अनेक
कोई समझे न मुझे
रहता हूँ बेखबर इस दुनिया से
पल दो पल बाद
देता हूँ दो बूँद फेंक
फिर भी कुछ लोग समझे
धुंए के तेज से निकली
आँखों का पानी है ये
समय बेसमय इसीलिए
देता हूँ दो बूँद फेंक
न हंसी हो हमारी
न बदनामी उन आसुओं का
कि समझे लोग
खेल है ये किन्हीं मासूमों का
खाकर गम ही सही
देता हूँ दो बूँद फेंक
शायद , शायद मैं
आंसुओं का समुन्दर हूँ एक .............. .
अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनिओन के प्रांगन से
लाल लाल लाल धरा का लाल आ गया है
प्रगति का उन्नति का नव भूचाल आ गया है
सुधरों ऐ पूजीपतियों सम्हालो स्वयं को
न समझो ये भ्रष्टाचार का कोई दलाल आ गया है
और ना ही तो कूराकर्कत का कोई जंजाल आ गया है
निचोड़कर खाए हो जिसके चामों को अभी तक
भूख से चरमराता वही कंकाल आ गया है
समझो तुम्हारे ऐय्यासी पर मंडराता तुम्हारा काल आ गया है
क्योंकि प्रगति का उन्नति का नव भूचाल आ गया है ....... .
* * *** * * * * * * *
चल रहा था बेचैन हवा इस कदर
बह रहा था कहीं मै इधर कुछ उधर
उठा एक झोंका कि बस सबर खा गये
थोड़ी देर के लिए ही सही , कहीं गुजर पा गये
बंद हुआ जब चलना हवा, तो सोंचा ,हम कहाँ आ गये
और पहुंचा जब यहाँ तो लगा घर आ गये
* * * *** **** *** **** * ****
कितने लोग हमारे लिए इतने आत्मीय होते हैं
बड़े होकर भी , हम उनके लिए छोटे हैं
पता नहीं वे हमको याद करते हैं कि नहीं
हम तो उनके ख्यालों में अब भी रो लेते हैं ................ .
प्रगति का उन्नति का नव भूचाल आ गया है
सुधरों ऐ पूजीपतियों सम्हालो स्वयं को
न समझो ये भ्रष्टाचार का कोई दलाल आ गया है
और ना ही तो कूराकर्कत का कोई जंजाल आ गया है
निचोड़कर खाए हो जिसके चामों को अभी तक
भूख से चरमराता वही कंकाल आ गया है
समझो तुम्हारे ऐय्यासी पर मंडराता तुम्हारा काल आ गया है
क्योंकि प्रगति का उन्नति का नव भूचाल आ गया है ....... .
* * *** * * * * * * *
चल रहा था बेचैन हवा इस कदर
बह रहा था कहीं मै इधर कुछ उधर
उठा एक झोंका कि बस सबर खा गये
थोड़ी देर के लिए ही सही , कहीं गुजर पा गये
बंद हुआ जब चलना हवा, तो सोंचा ,हम कहाँ आ गये
और पहुंचा जब यहाँ तो लगा घर आ गये
* * * *** **** *** **** * ****
कितने लोग हमारे लिए इतने आत्मीय होते हैं
बड़े होकर भी , हम उनके लिए छोटे हैं
पता नहीं वे हमको याद करते हैं कि नहीं
हम तो उनके ख्यालों में अब भी रो लेते हैं ................ .
बालक वह चलता
बालक वह चलता
दिन भर टहलता
काम सारे अपने हिस्से का
खुश होकर करता
मलाल नहीं उसे इस बात की
संरक्षण में वह दूसरों के पलता
कोई भी सामान घर का
कोई भी स्थान घर का
जिससे न बनती हो उसकी
नहीं कोई भी इन्सान घर का
सभी चाहते सभी मानते
हावी नहीं उसपर परवशता
सुनता है सब की
करता है अपनी
सब कुछ खाता है
सब कुछ सहता है
सुख -दुःख क्या है
नहीं भेद कर पाता है
यहाँ का सामान वहाँ
वहाँ का सामान यहाँ
घर की सजावट वह
अपने मनमाफिक करता है
खुश रखता है सबको , वह
खिलखिला के हँसता
शायद सोंचता है वह
किसी पर न पड़े भारी
उसकी अपनी लघुता
बालक वह चलता .......... .
दिन भर टहलता
काम सारे अपने हिस्से का
खुश होकर करता
मलाल नहीं उसे इस बात की
संरक्षण में वह दूसरों के पलता
कोई भी सामान घर का
कोई भी स्थान घर का
जिससे न बनती हो उसकी
नहीं कोई भी इन्सान घर का
सभी चाहते सभी मानते
हावी नहीं उसपर परवशता
सुनता है सब की
करता है अपनी
सब कुछ खाता है
सब कुछ सहता है
सुख -दुःख क्या है
नहीं भेद कर पाता है
यहाँ का सामान वहाँ
वहाँ का सामान यहाँ
घर की सजावट वह
अपने मनमाफिक करता है
खुश रखता है सबको , वह
खिलखिला के हँसता
शायद सोंचता है वह
किसी पर न पड़े भारी
उसकी अपनी लघुता
बालक वह चलता .......... .
बुधवार, 22 सितंबर 2010
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
उन मृदुल संबंधों की कैसे कहूं मैं कोई कहानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
मन कैसे विचलित हो उठा था ,थी अधीर मेरी जवानी
पाकर क्षण -सुख , दुःख वियोग का ,भर आया आखों पानी
थी हंसी , देख निज आकर्षण में ,पागल मेरे लिए इतना
होगा ना लहर सागर से भी मिलने को आतुर जितना
अव्यक्त ,अथाह , माया से लिपटी हुई सुरु अतृप्त कहानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
प्रत्यक्ष ही नहीं तुम यहाँ परोक्ष रूप भी आती हो
अपने कोमल - गात - स्नेह से मदमस्त हमें कर जाती हो
रोकता मन , दूर रहे छवि तेरी , बादल सा छा जाती हो
जागूं या सोऊ , ऊपर मैं , तर तुम आती जाती हो
फिर तो इस सौंदर्य गुलाम से करती रहती ऐसी मनमानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मृदु बानी ..
उन काले बालों की साया छाया अंचल पटु का उसके
रोक रही थी ,अवरुद्ध मार्ग था ,निर्मल ह्रदय,कटुता झुकते
तन पर वह थी ,उसपर मन था , आरी-बगल कोमल से सपने
प्रिये प्रिये उस प्रेम यग्य मे लगा ह्रदय माला से जपने
और खेल रही थी लिपटकर दोनों की नवल नादानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
बढ़ने दो अभी कुछ और , यूं रोको न , दो कोई ठौर
आनंद की असीमता में न आयेगा दूसरा ं दौर
अभी इसी वक्त मुझे सब कुछ पकड़ कर लेने दे
है आतुर ह्रदय मेरा कुछ और अधिक दे - लेने दे
हुई व्याकुल थी अंगुलियाँ ले - दे रही थी कोई निशानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
मेरा मन विह्वल होता तन ऐसे सहलता जाता था
अपने कठोर हाथों से , उसके तन को मसल जब पाता था
जाती थी वह सिहर तब मजा और मुझे आता था
उसकी ना ना एक रट थी , मुझे और कुछ भाता था
पकरके स्निग्ध प्रेम को मचली ऐसे वह दीवानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
स्तब्ध निशा थी , शांत प्रभा थी , तेज वासना का इतना
आतुरता थी हृदय मिलन की मेघ बरसने का जितना
''प्यासे तन को प्यासे मन से बरसकर हमको सिचना ह''ै
''रुको , आह ! न बढ़ो इतना कुछ अभी मुझे समझना है ''
बोली वह कुछ ऐसे जैसे कविवर कोई ग्यानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
हुई शांत सांसे जैसे थमी लहर किनारे से
निराश हो उठा मन ज्यों भिखमंगा धनी द्वारे से
भभक उठी आग तन की ज्वाला जैसे फौव्वारे से
लगी तड़पने वासना जैसे चीरी गयी हो आरे से
व्रिद्धावास्था सी दयनीय , लाचार , हुई अशांत जवानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
लगी कहने वह निश्छल '' ठहरो अभी समझना है
पागल होकर सब की तरंह नहीं यहाँ हमें उलझना है
यह काम - कामना ही नहीं सब कुछ , मुई मोह मई छलना है
वासनांचल से लिपटकर ही जीवन भर नहीं भटकना है
सोए हुए हो , जागो , देखो , करो न ऐसी नादानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ...
जिसके लिए पागल हो जगता था अभी तक रातों को
सुन्दर सोने - से सपने , रखता गर्वित जज्बातों को
सहेज रखा था जिनके लिए हसीन चाँदनी रातों को
टाल गयी पल भर में वह उन गर्वीली बातों को
उस अव्यक्त अगाध प्रेम को कह गयी मेरी नादानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
मोह मई छलना ही था क्यों किया निमंत्रित मुझको
वशीभूत हो वासना के क्यों किया नियंत्रित खुद को
अरे ! इतना ही था सयम सम्हाला नहीं क्यों खुद को
जीवन का मर्म समझ प्यारी कैसे समझाऊँ तुझको
आ गले मिल मिल , कर तृप्त ह्रदय , चलने दे पवन सुहानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ...
मिल कर गले से , हृदय के ताप सभी मिट जाने दे
जो जरूरी वस्तु है प्यारी मुझे और बस पाने दे
जाने दे उन अंत क्षणों तक , न बना कोई बहाने
''क्यों पागल - तम - निशा मे ं बिजली - सा आए रिझाने
ऐसा कह वह लगी बरसने जैसे बिन बादल पानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
जरूरी वस्तु क्या तुम्हारा क्षण भर का वह आनंद मोह
जिसमें उलझ , बर्बाद युवा , लगा सका ना कोई टोह
करते रहे हो दीन हीन माँ बाप जिंदगी भर बिछोह
खाने को दो अन्न नहीं कराह रहे हों हो दयनीय, ओह !
आती नहीं समझ तुम्हारी कैसी मद भरी जवानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
वासना आकांक्षित , उद्यान अंकुरित मृत वासनामाय उपवन में
''जीवन का मर्म '' क्या यही बीते समय बस स्वप्न शयन में
सत्य यही यदि क्यों न फिर हो जन्म श्वान योनी में
क्यों कलंकित करे आर्य को हो उत्पन्न मानस योनी में
इससे तो अच्छा यही , हो प्रवृत्ति हमारी शैतानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
माना दलदल यह ऐसा जहाँ नहीं सका बच कोई
काम-वासना विधि-विधान श्रृष्टि का नहीं प्रवंचना कोई
फिर भी वासनामय असुर से तुम्हें अभी लड़ना होगा
जो नहीं सका कर कोई उम्र भर , तुम्हे सभी करना होगा
ताकि उज्जवल रहे चरित्र जैसे निर्मल पानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
कमल-सेज से , करो विगत मन , पुष्पित तन के मोह से
दग्ध हृदय ताकि न हो प्रिय के मिलन - विछोह से
कर्म - कार्य में आत्मीयता काम - वासना से हो वंचित
करो तुम आलिंगन मेरा , अपने ह्रदय को भी अभिशिंचित
जिससे नवीन मानचित्र पर हो , पुनः परिभाषित जवानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ....
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
मन कैसे विचलित हो उठा था ,थी अधीर मेरी जवानी
पाकर क्षण -सुख , दुःख वियोग का ,भर आया आखों पानी
थी हंसी , देख निज आकर्षण में ,पागल मेरे लिए इतना
होगा ना लहर सागर से भी मिलने को आतुर जितना
अव्यक्त ,अथाह , माया से लिपटी हुई सुरु अतृप्त कहानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
प्रत्यक्ष ही नहीं तुम यहाँ परोक्ष रूप भी आती हो
अपने कोमल - गात - स्नेह से मदमस्त हमें कर जाती हो
रोकता मन , दूर रहे छवि तेरी , बादल सा छा जाती हो
जागूं या सोऊ , ऊपर मैं , तर तुम आती जाती हो
फिर तो इस सौंदर्य गुलाम से करती रहती ऐसी मनमानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मृदु बानी ..
उन काले बालों की साया छाया अंचल पटु का उसके
रोक रही थी ,अवरुद्ध मार्ग था ,निर्मल ह्रदय,कटुता झुकते
तन पर वह थी ,उसपर मन था , आरी-बगल कोमल से सपने
प्रिये प्रिये उस प्रेम यग्य मे लगा ह्रदय माला से जपने
और खेल रही थी लिपटकर दोनों की नवल नादानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
बढ़ने दो अभी कुछ और , यूं रोको न , दो कोई ठौर
आनंद की असीमता में न आयेगा दूसरा ं दौर
अभी इसी वक्त मुझे सब कुछ पकड़ कर लेने दे
है आतुर ह्रदय मेरा कुछ और अधिक दे - लेने दे
हुई व्याकुल थी अंगुलियाँ ले - दे रही थी कोई निशानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
मेरा मन विह्वल होता तन ऐसे सहलता जाता था
अपने कठोर हाथों से , उसके तन को मसल जब पाता था
जाती थी वह सिहर तब मजा और मुझे आता था
उसकी ना ना एक रट थी , मुझे और कुछ भाता था
पकरके स्निग्ध प्रेम को मचली ऐसे वह दीवानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
स्तब्ध निशा थी , शांत प्रभा थी , तेज वासना का इतना
आतुरता थी हृदय मिलन की मेघ बरसने का जितना
''प्यासे तन को प्यासे मन से बरसकर हमको सिचना ह''ै
''रुको , आह ! न बढ़ो इतना कुछ अभी मुझे समझना है ''
बोली वह कुछ ऐसे जैसे कविवर कोई ग्यानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
हुई शांत सांसे जैसे थमी लहर किनारे से
निराश हो उठा मन ज्यों भिखमंगा धनी द्वारे से
भभक उठी आग तन की ज्वाला जैसे फौव्वारे से
लगी तड़पने वासना जैसे चीरी गयी हो आरे से
व्रिद्धावास्था सी दयनीय , लाचार , हुई अशांत जवानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
लगी कहने वह निश्छल '' ठहरो अभी समझना है
पागल होकर सब की तरंह नहीं यहाँ हमें उलझना है
यह काम - कामना ही नहीं सब कुछ , मुई मोह मई छलना है
वासनांचल से लिपटकर ही जीवन भर नहीं भटकना है
सोए हुए हो , जागो , देखो , करो न ऐसी नादानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ...
जिसके लिए पागल हो जगता था अभी तक रातों को
सुन्दर सोने - से सपने , रखता गर्वित जज्बातों को
सहेज रखा था जिनके लिए हसीन चाँदनी रातों को
टाल गयी पल भर में वह उन गर्वीली बातों को
उस अव्यक्त अगाध प्रेम को कह गयी मेरी नादानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
मोह मई छलना ही था क्यों किया निमंत्रित मुझको
वशीभूत हो वासना के क्यों किया नियंत्रित खुद को
अरे ! इतना ही था सयम सम्हाला नहीं क्यों खुद को
जीवन का मर्म समझ प्यारी कैसे समझाऊँ तुझको
आ गले मिल मिल , कर तृप्त ह्रदय , चलने दे पवन सुहानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ...
मिल कर गले से , हृदय के ताप सभी मिट जाने दे
जो जरूरी वस्तु है प्यारी मुझे और बस पाने दे
जाने दे उन अंत क्षणों तक , न बना कोई बहाने
''क्यों पागल - तम - निशा मे ं बिजली - सा आए रिझाने
ऐसा कह वह लगी बरसने जैसे बिन बादल पानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
जरूरी वस्तु क्या तुम्हारा क्षण भर का वह आनंद मोह
जिसमें उलझ , बर्बाद युवा , लगा सका ना कोई टोह
करते रहे हो दीन हीन माँ बाप जिंदगी भर बिछोह
खाने को दो अन्न नहीं कराह रहे हों हो दयनीय, ओह !
आती नहीं समझ तुम्हारी कैसी मद भरी जवानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
वासना आकांक्षित , उद्यान अंकुरित मृत वासनामाय उपवन में
''जीवन का मर्म '' क्या यही बीते समय बस स्वप्न शयन में
सत्य यही यदि क्यों न फिर हो जन्म श्वान योनी में
क्यों कलंकित करे आर्य को हो उत्पन्न मानस योनी में
इससे तो अच्छा यही , हो प्रवृत्ति हमारी शैतानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
माना दलदल यह ऐसा जहाँ नहीं सका बच कोई
काम-वासना विधि-विधान श्रृष्टि का नहीं प्रवंचना कोई
फिर भी वासनामय असुर से तुम्हें अभी लड़ना होगा
जो नहीं सका कर कोई उम्र भर , तुम्हे सभी करना होगा
ताकि उज्जवल रहे चरित्र जैसे निर्मल पानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
कमल-सेज से , करो विगत मन , पुष्पित तन के मोह से
दग्ध हृदय ताकि न हो प्रिय के मिलन - विछोह से
कर्म - कार्य में आत्मीयता काम - वासना से हो वंचित
करो तुम आलिंगन मेरा , अपने ह्रदय को भी अभिशिंचित
जिससे नवीन मानचित्र पर हो , पुनः परिभाषित जवानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ....
मन ! ना भटक यार ना भटका मुझको .
मन !
ना भटक यार
ना भटका मुझको
किसी ऐसे जगंह
जहां न तो तुझे आजादी मिले
और ना हमें
ना अटक खुद और
ना अटका मुझको
तू , जानता है सब
समझता है सब
कौन कैसा है कैसा नहीं
परखता है सब
तूं ही किया सब कार्य
अपने मन माफिक
ना सका कोइ भी समझा तुझको
फिर क्यों?
क्यों पागल है इतना ?
कस्तूरी की खोज में भटकता मृग जितना
सब कुछ तुझमें
तूं न किसी में
स्थायित्व दे स्वयं को
त्याग कर अहम् को
छोड़ सब बहम को
ना पागल बन
ना पागल बना मुझको
मन ! ना भटक यार
ना भटका मुझको . .. .......
ना भटक यार
ना भटका मुझको
किसी ऐसे जगंह
जहां न तो तुझे आजादी मिले
और ना हमें
ना अटक खुद और
ना अटका मुझको
तू , जानता है सब
समझता है सब
कौन कैसा है कैसा नहीं
परखता है सब
तूं ही किया सब कार्य
अपने मन माफिक
ना सका कोइ भी समझा तुझको
फिर क्यों?
क्यों पागल है इतना ?
कस्तूरी की खोज में भटकता मृग जितना
सब कुछ तुझमें
तूं न किसी में
स्थायित्व दे स्वयं को
त्याग कर अहम् को
छोड़ सब बहम को
ना पागल बन
ना पागल बना मुझको
मन ! ना भटक यार
ना भटका मुझको . .. .......
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