सोमवार, 13 दिसंबर 2010

'दस्तूर दुनिया की हम सबको निभाना है .

यही है जीवन . इसमे और उसमे कितना फर्क है . एक तरफ ख़ुशी के फौव्वारे फूट रहे होंगे तो दूसरी तरफ गम के बादल बरस रहे होंगे . " रुंधे गले से सोचते हुए वह बोला था तब जब लडकी की बिदाई हो रही थी . छाती पीट रोई थी उसकी माँ . उसके लिए जो अब तक आँगन की एक चिड़िया थी . हंसती थी, बोलती थी और अपने बालक पण से सबको हर्षित करती थी . उसके लिए जो अब
घर की मालकिन थी . घर का  सारा काम काज , साफ-सफाई ,चौका -बर्तन , खाना-पीना , दिया -सलाई आदि सभी जिम्मेदारियां निभाती आई थी . जिसको वह पाली पोशी थी .आज वह विदा होकर जा रही थी और माँ उसकी रो रही थी छाती पीट पीटकर .
                        'सही है पर उसमे ढोंग है . दिखावापन है . रुढियों के आवरण में पिसता हुआ जीवन है . पर यहाँ वास्तविकता है . सत्य है . और सत्य होता भी वहीँ है जहां दुःख होता है , गम होता है और होती है विपदा . " दूसरा उस बात को स्पष्ट करते हुए बोला था .
                    इसके पहले ही वह एक बारात कर चूका था . दूसरे में सामिल हुआ था .खूब मजा उठाया था पहले बारात में . जम के काफी लिया था . मिठाइयाँ तो खूब खाया था .बफर सिस्टम था . कोई पाबन्दी नहीं थी .ना ही तो किसी से कुछ मांगना था . और न ही तो किसी का इंतजार करना था . सभी कुछ तो सजा कर रखा हुआ था . जो मर्जी सो  खाता . छोला, फुलकी , कुल्फी , चाट, पापड़ क्या नहीं खाया था वह .पर अब इतना ज्यादा खाया था कि और खाया नहीं जाता था .तब देखने लगा था खड़ा होकर अन्यों को .
                 "कैसे कैसे आदमी आये हैं हमारे गाँव के , हमारे सगे सम्बन्धी ,हमारे अतिथि . ........ पर नहीं नहीं वे नहीं हो सकते " असमंजस में पड़ा था वह " अरे!यह रवि पंडित है . ये तो चप्पल पहनकर खाना खाना गलत समझते है .और यह क्या विनय जी तो कभी पन्त में बैठ कर खाते ही नहीं थे . " यह आशचर्य हुआ था उसको . इसलिए नहीं कि वे खाना खा रहे थे . अपितु इसलिए कि ये धर्म के सबसे बड़े ठीकेदार थे . पर आज उनका व्रत , उनका संयम ,धिर्म उनका स्वयं पर रो रहा था और वे खाए जा रहे थे . इनके साथ ही गाँव के अन्य मानिंद व्यक्ति भी थे जो लीनों में खड़े होकर , कतारों में खड़े होकर , कलछुल हाथ में लेकर खाना ले रहे थे . खा रहे थे . हंस रहे थे . चिल्ला रहे थे .मनो उस व्यवस्था पर नहीं , उस सिस्टम पर नहीं. मानवीयता पर मानव द्वारा बनाये गये समाज पर . क्योंकि कुत्ते भी इस तरंह क्या खाना खाना पसंद करते . कवर उठाओ , उठाकर फैंक दो क्या मजाल कि मुंह मार दे . पर यहाँ मुंह ही  नहीं मार रहे हैं . घिस रहे हैं "
                  एक एक करके उसे वह सारा दृश्य याद आ जाता है . पर रात्रि में ही वह चला आया था विदाई  के इस माहौल से साक्षात्कार उस दिन उसका नहीं  हुआ था .पर आज , आज वह दुखी है . आज वह परेशां है और है वह चिंतित लोगों को देखकर , समझकर जानकर .
                 यही है मानव यही है मानव समाज . एक के गम के लिए , एक के दुःख के लिए , एक  के विपदाओं , वेदनाओं में सांत्वना देने के लिए दूसरों के संबंधों का आधारस्तंभ क्या ऐसा ही होना चाहिए . वह अपना सब कुछ दे दिया . रुपये- पैसे , सर-सामान ,जहां तक हो सकता था  दे दिया . . जीवन की आस जीवन की डोर, जो एक मात्र अंधे की लाठी थी सौंप दिया उसको .पर क्या वे जो यहाँ पर आये हैं . खा रहे हैं . खाए हैं . क्या उन्हें रंच मात्र भी अफ़सोस है . दुःख है . उस माँ के लिए , उस भी के लिए . जो रो रहे हैं , विलख रहे हैं , सिसक रहे हैं?   ..............   सोंच रहा है वह उस रोती हुई आवाज को सुनकर ..
            *****        *****         *****           *****             ******        *****
                    लावारिस सा असहाय सा लड़की का भाई , दीन हीन , सामाजिक परम्पराओं के दंश से शोषित और व्यवहार से अफ्सोषित , दुखी चेहरा लेकर रो रहा था . सिसक रहा था . मानो इस बात को भुलाने की कोशिश कर रहा था " उसके भी कोई बहन थी . राखी बंधी थी. एक दूसरे के सुख- दुःख में , विपदा आपदा में , स्थितियों और परिस्थितियों में , एक साथ रहेने की कसमें खाई थी . ली थी . यह कहके " भैया मेरे राखी का लाज निभाना " और आज आज वह जा रही है . किसी दूसरे के घर , किसी दूसरे की दुनिया में . सजाने सवारने . आबाद करने  उसे . बर्बाद करके भाई के घर को , भाई के अरमानों को . इच्छाओं और अभिलाषाओं को "
                  यह भी उसने देखा था . रो रहा था वह सिसक सिसक कर . भोकर छोडकर , गलाफाड़ कर नहीं , हुचक हुचक कर  .क्योंकि चिल्लाने से वेदना दब जाति है . गम का उफान हल्का हो जाता है . और हिचकने से वह अन्दर ही अन्दर उबाल फेंकती है . झंकार करती है . इस सामाजिक व्यवस्था से , इस सामाजिक परम्परा से , लड़ने के लिए , प्रतिवाद करने के लिए , द्रोह और विद्रोह करने के लिए .
                 तभी बारात  मालिक बजा वालो को साथ लेकर पहुंचा था . विदाई नहीं पाए थे वे . सब पा गये थे . और फिर खीझा था इस सामाजिक व्यवस्था से " एक तरफ वह रो रहा  है . उसका सब कुछ चला जा रहा है दुखी है , प्रताड़ित है समय की मार से और दूसरी तरफ इन्हें विदाई की पड़ी है . किसी का घर जले और कोई घूर बताए . भला ये भी को मानवीयता है . कोई इंसानियत है . लोलुप दम्भी , लालची क्या इसके बहन बेटी नहीं हैं . क्या यह समाज से बहार है या वह जिन स्थितियों परिस्थितियों से गुजर रहा रहा है नही बीतेगी इस पर , नहीं गुजरेगी इस पर ."
                 और भूल गया था वह रोना . हिचकियाँ बंद हो गयी थी . आंसू रुक गये थे . क्योंकि सारे दुःख , सारे गम , और विपदा से भी बदा स्तित्वा होता है जिम्मेदारी का . खासकर तब जब पिता न हो और घर का सारा कारोबार उसी को सम्हालना हो . " महसूस किया था वह और उठकर चल दिया था उस मंडप से , उस द्वार से , यह सोचकर " गलती उसकी नहीं है और ना ही तो उसकी  'दस्तूर दुनिया की हम सबको निभाना है ."

मन का लहर

मन का लहर
सुन्दर होता है कितना
आसमान में चमचमाते
टिमटिमाते तारों जैसा
चमकाना भी क्या
होता है सुन्दर इतना
या स्तित्व मात्र
नदी के किनारे
लहर के झोकों से
थक , हर , बैठे सुस्ताये
रेतीले खंडहरों जितना
होता है बस इतना
मन का लहर सुन्दर
बुझे बुझे रेतीले खँडहर जितना .........

मध्यवर्गीय परिवार

सब कुछ होता देख
चुप हो देखते रहना
होगा बदा में देगा भगवान
भाग्य को अपने  कोसते रहना
मर्जी है उसकी
सह लेना
सबकुछ
लुटने के बाद भी
'कुछ' तो है कहते रहना
आ जाना सड़क पर
आह्वान के लिए नहीं
दान के लिए
क्या यही है
मध्यवर्गीय परिवार
सब कुछ गंवाकर
बस सोचते रहना ...............
मध्यवर्गीय परिवार

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस और राष्ट्रीय शिक्षक दिवस पर

आज मैं कुछ सोच रहा हूँ . समझ रहा हूँ. विचार कर रहा हूँ .  यह जानते हुए भी कि इसका कोई प्रतिफल मुझे प्राप्त होने वाला नही है , पर क्योंकि एक नागरिक हूँ देश का , सदस्य हूँ समाज का , अंश हूँ समुदाय का , प्रतिभागी हूँ भविष्य में बन्ने वाले किसी संगठन विशेष का इसलिए उस मंच पर जहां बहुत सी मूर्तियाँ दिखती हैं अपनी अपनी भूमिका में , कोई किसी रूप में तो किसी रूप में . अवसर सभी को मिलता है , परिस्थितियाँ सभी को मिलती हैं पर समयाभाव के कारन स्थितियां परिवर्तित कर दी जाती है .
unhin स्थितियों पर कर रहा विचार पूर्ण व्यवहार हूँ .
                  
                          दो महत्वपूर्ण दिवस 'राष्ट्रीय शिक्षक दिवस '' और ''अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस '' हमारे सामने से जा रहे हैं हर साल की तरह इस साल भी . एक की गूँज पूरे हिन्दुस्तान में है तो दूसरा सम्पूर्ण विश्व में गुंजायमान हो रहा है . दोनों का ही उद्देश्य मानव को मानवीयता प्रदान करना है . आंकड़े दोनों पर बैठे जा रहे हैं . ग्राफ दोनों का ऊंचा है लोगों को दिखाए जा रहे है . बताये जा रहे हैं न्यूज पेपरों और टीवी चनलो पर कि इस वर्ष अगले वर्ष की अपेक्षा इतने लोगो को साक्षर बनाया . इतने बेरोजगार अध्यापकों को अध्यापकी दी गयी और वरिष्ठ अध्यापकों को सम्मानित किया गया . मतलब सरकारी आंकड़े feelgood के आवरण में चमचमा रहे हैं जबकि वास्तविक स्थितिया यथार्थता के धरातल पर दम तोड़ रही हैं . सिसक रही हैं .
                    
                                           बात अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस की 

                  निरक्षर कौन था ? कौन है ? कौन साक्षर हुआ ? क्या इसका जवाब लिखित रूप में  किसी सरकारी महकमें में पाया जा सकता है .? जो निरक्षर हैं , स्कूल नही पहुच पा रहे हैं  , स्कूल का द्वार उन्हें दिखाया गया तो कैसे ? उन अनपढ़ , अशिक्षित , और नासमझ अविभावकों को साक्षरता के विषय में समुझाया गया तो कैसे ? क्या यह बताया जा सकता है ? ''सर्वशिक्षा अभियान '' '' सभी पढो , आगे बढ़ो '' का जो नारा सभ्य समाज द्वारा दिया गया है उसका कितना असर अनपढ़ और गंवारों पर पड़ा क्या कहीं दर्शाया जा सकता है ? जो पढ़े लिखे है , जो स्कूल जा रहे हैं , जिनके अविभावक समझदार हैं उन्हीं की एक लम्बी चौड़ी फ़ौज इकठ्ठा करके किसी जुलुस में दिखा देना क्या यही सर्वा शिक्षा अभियान है ?


                    सर्वशिक्षा अभियान'' के तहत '' मिड-डे-मिल ''योजना को आकर्षण का केंद्र बताया जा सकता है . बच्चे दिन प्रतिदिन के खानें के लालच में पढ़ने आयेंगे . गरीब अविभावको को सुविधा होगी , वे बच्चों को पढ़ने भेजेंगे . पर जरा बताइए कितने अध्यापको की तैनाती है ऐसे विद्यालयों में ? भोजन जो दिए जाते हैं , क्या यह सत्य नहीं है है कि उसमें कीड़े मकोड़े स्वतंत्र रूप से विचरण कर रहे होते हैं . फिर जो माता-पिता दिन - रात मजदूरी करके दो वक्त की रोटी का जुवाड करते हैं क्या वे अपने बच्चों को नहीं खिला सकेंगे ? इस जगंह मिड- डे - मिल की क्या जरूरत थी ? क्या इसके बजे कोई दूसरी योजना नहीं बनाई जा सकती थी ? बनाई जा सकती थी . पर उन ग्राम प्रधानों और अध्यापको का क्या होता जो मिड डे मिल के दाने से ही अपना पेट भर रहे हैं . इनके इस दलाली पण और धोखाधड़ी के चलते ही निचले तबके के लोग भी स्कूल नहीं भेजते अपने बच्चों को ...  क्या कभी सोंचा गया .....?

                                                बात राष्ट्रीय शिक्षक दिवस की 

निरक्षरों को साक्षर बनाये कौन , माता-पिता या अध्यापक ?माता - पिता तो अपनी भूमिका अदा कर देते हैं . नहला दुला कर भेज देते हैं . खाने की चिंता भी नहीं रही पर जिस स्कूल में वे आते हैं , जिनके आश्रय में उनको रखा जाता है , वह अध्यापक ही तो है ? आखिर उसकी कमी कौन पूरा करे ? कई स्कूल तो ऐसे हैं जहाँ पर एक भी अध्यापक नहीं है . विद्यार्थी ही शिक्षक है विद्यार्थी ही शिक्षार्थी . कितने विद्यालय इस तरीके के भी हैं जहाँ अभी तक आवास की उपलब्धता नहीं हो सकी है और एक अध्यापक के सर पर ३००-४०० बच्चों को ठोका जा रहा है . क्या यह बात समझा जा सकता है कि अध्यापक भी आम लोगों की तरह एक आम इन्सान ही है ना कि कोई जादूगर या भगवान जो इतनी बड़ी संख्या को पढ़ा सके . 


                        स्पष्ट है कि ना तो वह पढ़ा सकता है और ना ही  तो उन्हें अपने कंट्रोल में ही रख सकता है . जमाना भी वह नहीं है कि मार  पीट दे किसी बच्चे को और उसके डर से सहमें रहे सभी , क्योंकि कानून के दायरे में अब एक बात और आनें वाली है ''न तो अध्यापक बच्चे को चाटा मार सकता है और ना ही तो उन्हें मुर्गा ही बना सकता है (दैनिक जागरण) मतलब अब वह एक ही कार्य कर सकता है कि एक डंडी लेकर भेड़ चरवाहों की तरह बैठा रहे और इशारे से सिर्फ उसे निर्देशित करता रहे . कहीं वह भेड़ बहंक जाए . किसी का कुछ नुकसान कर दे मार वह चरवाह ही खाए . उसकी दशा पर रोने वाला कोई नही . वेतन के रूप में तनख्वाह जो पा रहा है . सांसदों की तनख्वाह बढ़ाई जा रही है . विधायकों की तनख्वाह बधाई जा रही है . कहीं कोई कुछ भोलने वाला नहीं . फिर अध्यापकों के वेतन पर इतनीं बड़ी आपत्ति क्यों ? वह जो आठ घंटे बड़ी मशक्क्कत करता है , ३००-४०० बच्चों के बीच माथा-पच्ची करता है . स्वयं के स्तित्त्व को भुलाकर बच्चों के व्यवहार को वरण करता है , क्या कभी उसकी परेसनियों मजबूरियों और दिक्कतों को समझा गया ? अगर समझा भी गया तो क्या अध्यापको की नियुक्तियों को बढाया नहीं जा सकता ? क्या हिंदुस्तान में स्नातकों की कमी है ? ? बी एड धारको की कमी है या फिर वे मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं ? स्नातक हैं  . बी एड धारक हैं . सक्षम हैं मानसिक रूप से वे पर अध्यापकी करने के लिए पुलिसों की लाठी खाने के लिए . जेल जाने के लिए . दौड़ा दौड़ा कर पीते जाने के लिए .   
                  
                         आखिर यह विडंबना ही तो है , दुर्भाग्य ही तो है देश का कि एक तरफ अध्यापकों की व्यापक कमी है और दूसरी तरफ प्रशिक्षित डिग्री धारक , प्राइवेट अध्यापक दौड़ा दौड़ा कर पीटे जा रहे हैं सडकों पर . फिर शिक्षक दिवस किस बात का ? क्या गिने चुने व्यक्तियों को राष्ट्रीय पुरस्कार दे देना ही शिक्षक दिवस है ? यदि ऐसा है तो क्या इसे राजनीतिक दांव नहीं कहा जा सकता ? सबको अँधेरे में रखकर एक को उजाला देना या सभी को भूखे रखकर एक को खीर खिलाना राजनीती नही तो आखिर क्या है ? इस राजनीतिक सोंच को बदलना होगा . परिवर्तित करना होगा उनको अपने इरादों को . ''सभी पढो , सभी बढ़ो '' के सपने को साकार भी तभी किया जा सकता है . क्यों कि कोई अध्यापक अपने स्तित्त्व को बेंच नहीं सकता . हर एक राजनीतिज्ञों की तरंह वे 'बिन पेन के लोटा ' नहीं होते हैं . उनका अपना एक सम्माननीय स्तर होता है . एक स्तित्त्व होता है. और ऐसी जगंह पर भारतीय राष्ट्रपति जी को उन अध्यापको से रोज स्कूल आने और शिक्षण कार्य जरी रखने की शिक्षा देने से ज्यादा बेहतर होगा कि अपने ही राजनीतिज्ञों के नेक नशीहत दें ताकि उनकी नज़रों में भी ''अध्यापकी '' की सार्थकता हो , और कम से कम अध्यापकों और शिक्षको के पक्ष में जो निर्णय लें उसका कोई निहितार्थ निकले . .......

                             

शनिवार, 25 सितंबर 2010

कुछ दोहे

याद   न  कर  मन  और  अब  ,  याद  रहे  ना  कोय
जे  मन  उलझा  याद  में  ,  याद  गये  ना  कोय ....

आंसू  पानी  एक  सम  ,  एक  प्राण  दो  रूप
एक  रहे  जीवन  सरल  ,  एक  रहे  नर -  रूप  ......

मन  क्यों  मन  से  दूर  है ,  मनन  का  है  फेर 
मन  मांगे  मन  ना  मिलै , मन  का   है  अंधेर .. ..

ध्यान  रहा  निज  रूप  का ,  मन  का  सुनी  गुहार
रूप  घटा  यौवन  ज़रा  , फीका  मन  का  द्वार  .....

हार  न  माँ  बढ़त  चल ,  सब  जग  निज  घर  द्वार
सब  संग  प्रेम  बढाय के , हो  जा  गले  का  हार .....

गिरत  बूँद  मन  होत खुश  ,  बूँद  गिरे  दुख  धोय
बूंदन  की  महिमा  बहुत  ,  सागर  पूरित  होय  ......

प्यासी  धरती  धधक  कर  ,  नभ  से  मांगी  तोय
जे  नभ  बरसा  गरजकर ,  होत  ख़ुशी  सब  कोय .....

शायद मैं , आंसुओं का समुन्दर हूँ एक

शायद मैं
आंसुओं का समुन्दर हूँ एक
छाती है घटा जिधर से भी
देता हूँ दो बूँद फेंक

हर मौके की अपनी
सिनाखत होती है एक
वहीँ छोटी सी इस जिंदगी में
आफत होती है अनेक
कोई समझे न मुझे
रहता हूँ बेखबर इस दुनिया से
पल दो पल बाद
देता हूँ दो बूँद फेंक

फिर भी कुछ लोग समझे
धुंए के तेज से निकली
आँखों का पानी है ये
समय बेसमय इसीलिए
देता हूँ दो बूँद फेंक

न हंसी हो हमारी
न बदनामी उन आसुओं का
कि समझे लोग
खेल है ये किन्हीं मासूमों का
खाकर गम ही सही 
देता हूँ दो बूँद फेंक
शायद , शायद मैं
आंसुओं का समुन्दर हूँ एक .............. .

अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनिओन के प्रांगन से

लाल लाल लाल धरा का लाल आ गया है
प्रगति का उन्नति का नव  भूचाल आ गया है
सुधरों   ऐ पूजीपतियों  सम्हालो  स्वयं को
न  समझो  ये भ्रष्टाचार का   कोई दलाल आ गया है
और ना ही तो कूराकर्कत   का कोई  जंजाल  आ गया है
निचोड़कर खाए  हो  जिसके चामों  को  अभी  तक
भूख  से  चरमराता  वही  कंकाल  आ  गया  है
समझो तुम्हारे ऐय्यासी  पर  मंडराता  तुम्हारा काल आ गया है
क्योंकि प्रगति का उन्नति   का  नव  भूचाल  आ  गया है ....... .
*        *          *** *       *      *        *        *      *      *    
चल  रहा  था  बेचैन  हवा  इस  कदर
बह  रहा  था कहीं  मै इधर  कुछ  उधर
उठा  एक  झोंका  कि  बस  सबर  खा गये
थोड़ी  देर के  लिए  ही सही , कहीं गुजर पा गये
बंद हुआ  जब  चलना  हवा, तो  सोंचा ,हम कहाँ आ गये
और  पहुंचा  जब  यहाँ  तो  लगा घर  आ  गये
*        * *       ***       ****        ***      ****  *       ****
कितने लोग हमारे  लिए  इतने  आत्मीय  होते हैं
बड़े होकर भी ,  हम  उनके  लिए  छोटे  हैं
पता नहीं  वे   हमको  याद  करते  हैं कि  नहीं
हम  तो  उनके  ख्यालों में  अब  भी  रो  लेते हैं ................ .

बालक वह चलता

बालक वह चलता
दिन भर टहलता
काम सारे अपने हिस्से का
खुश होकर करता
मलाल नहीं उसे इस बात की
संरक्षण  में वह दूसरों के पलता

कोई भी सामान घर का
कोई भी स्थान घर का
जिससे न बनती हो उसकी
नहीं कोई भी इन्सान घर का
सभी चाहते सभी मानते
हावी नहीं उसपर परवशता

सुनता है सब की
करता है अपनी
सब कुछ खाता है
सब कुछ सहता है
सुख -दुःख क्या है
नहीं भेद कर पाता है
यहाँ का सामान वहाँ
वहाँ का सामान यहाँ
घर की सजावट वह
अपने मनमाफिक करता है

खुश रखता है सबको , वह
खिलखिला के हँसता
शायद सोंचता है वह
किसी पर न पड़े भारी
उसकी अपनी लघुता
बालक वह चलता .......... .

बुधवार, 22 सितंबर 2010

जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी

उन मृदुल संबंधों की कैसे कहूं मैं कोई कहानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी

मन कैसे विचलित हो उठा था ,थी अधीर मेरी जवानी
पाकर क्षण -सुख , दुःख वियोग का ,भर आया आखों पानी
थी हंसी , देख निज आकर्षण में ,पागल मेरे लिए इतना
होगा ना लहर सागर से भी मिलने को आतुर जितना
अव्यक्त ,अथाह , माया से लिपटी हुई सुरु अतृप्त कहानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..

प्रत्यक्ष  ही  नहीं  तुम  यहाँ  परोक्ष  रूप भी  आती  हो
अपने  कोमल - गात - स्नेह  से मदमस्त  हमें  कर जाती  हो
रोकता  मन , दूर  रहे  छवि  तेरी , बादल  सा  छा  जाती   हो
जागूं या  सोऊ  , ऊपर  मैं , तर  तुम  आती  जाती  हो
फिर  तो  इस  सौंदर्य  गुलाम  से करती  रहती  ऐसी मनमानी
जिसको  व्यक्त  न  कर   सकी  अभी  तक  मृदु  बानी ..

उन काले बालों की साया छाया अंचल पटु का उसके
रोक रही थी ,अवरुद्ध मार्ग था ,निर्मल ह्रदय,कटुता झुकते
तन पर वह थी ,उसपर मन था , आरी-बगल कोमल से सपने
प्रिये प्रिये उस प्रेम यग्य मे लगा ह्रदय माला से जपने
और खेल रही थी लिपटकर दोनों की नवल नादानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..

बढ़ने  दो  अभी  कुछ  और , यूं  रोको  न ,  दो कोई  ठौर
आनंद  की  असीमता  में  न  आयेगा  दूसरा ं  दौर
अभी इसी  वक्त  मुझे  सब  कुछ  पकड़  कर  लेने  दे
है  आतुर  ह्रदय  मेरा  कुछ  और  अधिक  दे - लेने दे
हुई   व्याकुल  थी  अंगुलियाँ  ले -  दे  रही थी कोई निशानी
जिसको व्यक्त  न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..

मेरा  मन  विह्वल  होता  तन  ऐसे  सहलता  जाता  था
अपने  कठोर  हाथों  से  , उसके  तन  को  मसल  जब  पाता  था
जाती  थी  वह  सिहर  तब मजा  और  मुझे  आता  था
उसकी  ना  ना  एक  रट  थी  , मुझे  और   कुछ  भाता  था
पकरके   स्निग्ध   प्रेम  को  मचली  ऐसे  वह   दीवानी
जिसको  व्यक्त न कर  सकी  अभी तक  मेरी  मृदु बानी ..

स्तब्ध  निशा  थी  , शांत  प्रभा  थी , तेज  वासना  का इतना
आतुरता  थी  हृदय  मिलन  की  मेघ  बरसने  का  जितना
''प्यासे  तन  को  प्यासे  मन  से बरसकर  हमको  सिचना ह''ै
''रुको , आह ! न  बढ़ो  इतना   कुछ  अभी  मुझे  समझना  है ''
 बोली   वह   कुछ   ऐसे   जैसे    कविवर    कोई    ग्यानी
जिसको   व्यक्त न कर सकी  अभी  तक  मेरी   मृदु  बानी 

हुई    शांत    सांसे    जैसे    थमी   लहर   किनारे  से
निराश   हो   उठा   मन  ज्यों  भिखमंगा  धनी  द्वारे से
भभक   उठी   आग   तन  की   ज्वाला  जैसे   फौव्वारे से
लगी   तड़पने    वासना   जैसे   चीरी  गयी   हो   आरे  से
व्रिद्धावास्था  सी   दयनीय  ,  लाचार  , हुई  अशांत  जवानी
जिसको  व्यक्त  न  कर  सकी  अभी  तक   मेरी  मृदु  बानी ..

लगी   कहने   वह   निश्छल    ''   ठहरो   अभी   समझना   है
पागल    होकर   सब   की   तरंह   नहीं   यहाँ  हमें   उलझना  है
यह   काम  - कामना  ही   नहीं   सब  कुछ , मुई  मोह  मई  छलना  है
वासनांचल    से    लिपटकर    ही   जीवन   भर   नहीं   भटकना   है
सोए    हुए    हो  ,   जागो  ,   देखो  ,   करो   न    ऐसी    नादानी
जिसको  व्यक्त  ना  कर  सकी  अभी  तक  मेरी  मृदु  बानी  ...

जिसके    लिए   पागल   हो   जगता   था   अभी   तक   रातों   को
सुन्दर    सोने  -   से    सपने   ,   रखता     गर्वित   जज्बातों    को
सहेज   रखा   था    जिनके    लिए     हसीन    चाँदनी      रातों     को
टाल   गयी   पल    भर    में     वह     उन    गर्वीली      बातों      को
उस   अव्यक्त   अगाध   प्रेम   को   कह   गयी   मेरी   नादानी 
जिसको  व्यक्त  न   कर  सकी  अभी  तक  मेरी   मृदु    बानी ..

मोह    मई     छलना   ही    था    क्यों    किया    निमंत्रित    मुझको
वशीभूत   हो   वासना   के    क्यों    किया     नियंत्रित    खुद    को
अरे  !   इतना    ही    था   सयम     सम्हाला    नहीं   क्यों   खुद   को
जीवन     का     मर्म    समझ    प्यारी     कैसे     समझाऊँ     तुझको
आ   गले   मिल   मिल  ,  कर   तृप्त    ह्रदय  ,  चलने   दे  पवन   सुहानी
जिसको   व्यक्त   न   कर   सकी   अभी   तक  मेरी   मृदु   बानी  ...


मिल    कर   गले    से   ,   हृदय    के     ताप     सभी    मिट     जाने     दे 
जो    जरूरी      वस्तु     है    प्यारी      मुझे     और    बस     पाने       दे
जाने    दे     उन      अंत    क्षणों    तक  ,   न     बना     कोई      बहाने
''क्यों   पागल  -  तम  -  निशा  मे ं   बिजली   -   सा    आए    रिझाने
ऐसा  कह    वह   लगी    बरसने    जैसे   बिन   बादल   पानी
जिसको   व्यक्त   ना  कर  सकी  अभी  तक  मेरी  मृदु  बानी

जरूरी   वस्तु   क्या   तुम्हारा    क्षण    भर   का   वह  आनंद  मोह
जिसमें    उलझ   ,  बर्बाद   युवा  ,    लगा   सका   ना  कोई   टोह
 करते    रहे    हो   दीन       हीन  माँ   बाप   जिंदगी   भर  बिछोह
खाने   को    दो   अन्न    नहीं   कराह   रहे  हों  हो  दयनीय,  ओह !
आती    नहीं    समझ   तुम्हारी    कैसी   मद   भरी    जवानी
जिसको   व्यक्त   न   कर   सकी   अभी   तक  मेरी  मृदु  बानी




वासना   आकांक्षित  ,   उद्यान  अंकुरित  मृत  वासनामाय  उपवन में
''जीवन  का  मर्म   ''   क्या  यही  बीते  समय  बस   स्वप्न  शयन में
सत्य  यही   यदि   क्यों   न   फिर   हो   जन्म  श्वान  योनी  में
क्यों   कलंकित   करे   आर्य    को   हो   उत्पन्न   मानस   योनी  में
इससे    तो  अच्छा  यही   ,  हो   प्रवृत्ति   हमारी   शैतानी 
जिसको   व्यक्त  न   कर  सकी  अभी  तक  मेरी  मृदु  बानी ..

माना  दलदल  यह  ऐसा  जहाँ  नहीं  सका  बच  कोई
काम-वासना   विधि-विधान श्रृष्टि का  नहीं  प्रवंचना कोई
फिर  भी  वासनामय असुर  से तुम्हें  अभी   लड़ना   होगा
जो  नहीं   सका   कर   कोई   उम्र  भर , तुम्हे  सभी  करना होगा
ताकि  उज्जवल  रहे   चरित्र    जैसे   निर्मल  पानी
जिसको व्यक्त   न   कर  सकी  अभी तक  मेरी मृदु बानी

कमल-सेज  से  ,  करो  विगत मन , पुष्पित  तन  के  मोह से
दग्ध   हृदय  ताकि  न   हो  प्रिय   के  मिलन  - विछोह  से
कर्म - कार्य   में  आत्मीयता  काम - वासना  से  हो  वंचित
करो   तुम  आलिंगन  मेरा  , अपने  ह्रदय  को  भी  अभिशिंचित
जिससे  नवीन    मानचित्र    पर   हो ,  पुनः  परिभाषित  जवानी
जिसको व्यक्त  ना  कर  सकी अभी  तक  मेरी  मृदु  बानी ....

मन ! ना भटक यार ना भटका मुझको .

मन !
ना भटक यार
ना भटका मुझको
किसी ऐसे जगंह
जहां न तो तुझे आजादी मिले
और ना हमें
ना अटक खुद और
ना अटका मुझको
तू , जानता है सब
समझता है सब
कौन कैसा है कैसा नहीं
परखता है सब
तूं ही किया सब कार्य
अपने मन माफिक
ना सका कोइ भी समझा तुझको
फिर क्यों?
क्यों पागल है इतना ?
कस्तूरी की खोज में भटकता मृग जितना
सब कुछ तुझमें
तूं न किसी में
स्थायित्व दे स्वयं को
त्याग कर अहम् को 
छोड़ सब बहम को
ना पागल बन
ना पागल बना मुझको
मन ! ना भटक यार
ना भटका मुझको . .. .......

रविवार, 4 जुलाई 2010

हुआ क्यों नहीं ऐसा सोचा निराला नागार्जुन ने जैसा

हरे भरे दूब, घास
हरियाली लिए तरुण वृक्ष
नीले आकाश के तले
पले बढे ये पेड़ मनचले
कैसे हो गए सुन्दर इतने

पड़ी नहीं थी
माघ, पूस की कडकडाती  ठंडी ,शायद
बरसा नहीं था बादल उमड़ घुमड़
नहीं लगी जून की कडकडाती धुप क्या इनको
कि झुलस गये होते पत्ते इनके
फट गयी होती दंठालियाँ सारी
रो रही होती इनकी क्यारी
सूख कर जर्जर हो गयी होती भूमी यह
विलासिता के संरक्षण में आ रही जो निखार
कंगाली पण में जाती ढह

कम से कम आते न वह
जो खा खा कर मोटे हुए हैं
सम्पन्नता का खाका लटकाए
आदत से निहायत ही छोटे हुए हैं
न काम के न धाम के
तरुण, तरुनियाँ, बूढ़े ,जवान
ये आज के
जो यहाँ पर टहल रहे हैं
निथल्लुओं सा कर पहल रहे हैं

न आते यहाँ पर , जाते वहाँ पर
धान, गेहूं , जौ की खेती
ऊंघ रहे हैं जहा पर
न बारिस , न हवा , न पानी
न छांव, न धूप
ऐसा विपन्न , ऐसा अव्यवस्थित
गाँव, पट  गये जहां के सारे कूप

पहुँचते , टहलते , दौड़ते
पेलते डंड
दिन भर , रात भर , चलते चलते , खटते हुए
किसानों का होता राज अखंड

हुआ क्यों नहीं ऐसा
सोचा निराला नागार्जुन ने जैसा
क्या हवा पानी प्रकृति
ये सब के सब दिख रहे निठल्ले
फिर कैसे हुए इनके बल्ले बल्ले ?   

शनिवार, 3 जुलाई 2010

सभी को एक ही परिदृश्य पर खड़ा करके सुधार का पाठ पढ़ाते हैं कबीर ....

वियोगी होगा पहला कवी ,'' जब पन्त ने यह बात कही थी तो शायद उनका ध्यान सीधे कबीर की तरफ गया था क्यों की यही एक ऐसा सख्स है जो सामाजिकता के परिप्रेक्ष्य में 'पहला ' और जीवन के धरातल पर 'वियोगी' होने का उत्कृष्ट प्रमाण पेश करता है । क्योंकि कबीर के काव्य के पहले सामाजिक वातावरण का व्यापक परिदृश्य कहीं भी नजर नहीं आता है , अगर है भी कहीं तो श्रृंगार है , दरबारी व्यवहार है , सत्ता और नारी के बीच पिस रहे राजाओं की स्वतंत्र तकरार है । और जहाँ सत्ता और नारी है वहाँ सामाजिकता का बोध ही किसे होता है । सारी फिजा ''खावै और सोवै ''के परिवेश पर फ़िदा होता है ''जागे अरु रोवै '' की श्रेणी में तो वही न आ सकता है , जो घुट रहा हो ,लुट रहा हो ,पिस रहा हो ,घिस रहा हो , उंच नीच , भेद-भाव , जाती-पांति के अँधेरे में ,अपमान तिरस्कार और दुत्कार को न सिर्फ मह्शूश कर रहा हो अपितु झेल रहा हो इन अमानवीय प्रताड़नाओं को और इसके बावजूद भी ''बाजार'' में खड़ा होकर सबके लिए ''खैर'' मांग रहा हो । ना काहूँ से दोश्ती न काहूँ से बैर'' के सिद्धांत पर ।
जो सभ्य हैं वो भी और जो असभ्य है वे भी , सभी की एक ही समस्या है । सभी माया से ग्रसित है । सभी जाती-पांति के पहरेदार हैं । स्वार्थ लोलुपता ,दरिद्रता,कंगालिपन और पारिवारिक भावुकता से सभी ग्रसित हैं । फिर कबीर किससे दोस्ती करे और किससे करे 'बैर' । सभी में सुधार की आवश्यकता है इसीलिए वह'' मांगे सबकी खैर '' । फिर 'का हिन्दू का मुसलमाना '' का बाभन का सूद '' सभी को एक ही परिदृश्य पर खड़ा करके सुधार का पाठ पढ़ाते हैं कबीर '' बलिहारी गुरु आपने '' जे माध्यम से ।
यही नहीं'' कबीरा खड़ा बाजार में '' जाती के आधार पर समाज पर रौब गांठने वाले ब्राह्मणों से खुले रूप में पूंछ बैठता है''तुम काहें को बाभन पांडे हम काहें के सूद '' अथवा ''काहें को कीजै पांडे छोटी विचारा छूतिः ते उपजा संसारा'' ''जे तूं बाम्हन बहमनी जाया और द्वार ह्वै क्यों ना आया ।'' इसी तरंह हिन्दू और मुश्लिम के बीच फैले तमाम प्रकार के रूढ़ियों और अंधविश्वासों को कबीर ने न सिर्फ दूर करने का प्रयास किया अपितु अपने स्वतंत्र और फक्कड़ मिजाज के बल पर दोनों को ही सामाजिकता के रंग में रंगने के लिए मजबूर कर दिया । और यह उनका स्वतंत्र व्यक्तित्वा ही था जो तत्कालीन समय के मुश्लिम समुदाय से भी , जिनके हाथ में हिंदुस्तान का शासन था ' पूंछ बैठता है ''कंकर पत्थर जोरि के मस्जिद लई बनाय ता चढ़ी मुल्ला बाग़ दे का बहरा हुआ खुदाय । '' जे तुरुक तुरुक्नी जाया भीतर खतना क्यों न कराया । '' और तो और उनकी आस्था पर भी क्या गजब का सवाल करते हुए दिखाई देते हैं कबीर ,''दिन भर रोजा रखत हैं रात हनत हैं गाय , यह हत्या वह वन्दगी कैसे ख़ुशी खुदाई । ''
इस प्रकार की स्वतंत्रता ,स्वच्छंदता , इस प्रकार की सामाजिकता और समाज से जुड़े हुए प्रत्येक वर्ग के प्रति व्यावहारिकता , रूढ़ियों और समाज विरोधी परम्पराओं को खुली चुनौती देने की प्रतिबद्धता क्या कबीर से पहले के किसी कवी में पाई जा सकती ? इसीलिए तो महान आलोचक और भारतीय साहित्य के शलाका पुरुष आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने स्पष्टतः उदघोष किया किया की '' हिंदी साहित्य के हजार वर्षों में कबीर जैसा व्यक्तित्वा लेकर ना तो कोई उत्पन्न हुआ और ना ही तो होगा । ''

सरस्वती वंदना - ऐसा वर दो

छोड़ मातु पिता गुरु साथ चले तव खोजन में माँ सरस्वती
एक आश बड़ा विश्वाश भरा मम पूरा करो माँ सरस्वती
हे वीणापाणिं वीणा वादिनी हम आज तुम्हारे शरणों में
दर दर भटका कुछ मिला नहीं अब ध्यान तुम्हारे चरणों में ॥

इतना सा बस किरपा कर दो हो सर ऊंचा ऐसा वर दो
अज्ञान हरण हो ज्ञान महा दुर्बुद्धि में ऐसा सुध भर दो
औरों की चाह नहीं मुझको बस नाम तुम्हारा अधरों में
पर -कार्यन में मन रमा रहे रहे निरत सदा शुभ कर्मो में ॥

धन की कुछ चाह नही मुझको नहीं शौक किसी सुख साधन की
नहीं अभिलाषा मणि -महलों में रहूँ पर क्षमता दो दुःख भाजन की
वीणा की जो नव सुर हो ''अनिल'' वह सुर फैले हर नगरों में
हो शीतल तेज प्रकाशित मन विचलित नहीं भौतिक लहरों में ॥

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

शायद भारतीय और भारतीयता को गाली देना ही कुछ लोगों का विशेष ''इरादा'' हो गया है ... .

ये इश्क बड़ा बेदर्दी है '' जो सिर्फ उसे ही नहीं ''रात दिन जगाये '' जो इसके गिरफ्त में आये बल्कि अब यह उन लोगों के लिए भी गले की फास होती जा रही है जो ''इश्क के इन दीवानों '' के बीच में आते हैं और 'सामाजिक प्रतिष्ठा'या पारिवारिक मर्यादा ' अथवा सभ्य समाज का हवाला देकर उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं । जबकि वे करते तो एक प्रकार से ठीक ही हैं क्योंकि प्रेमी जोड़ों का इस प्रकार से स्तित्व में आना न सिर्फ अनैतिकता को निमंत्रण देना है अपितु आधुनिकता के वातावरण में आदिमान्वी प्रवृत्ति को पोषना भी है । पर इनके इस उद्दघोष के आगे की '' जब जब प्यार का पहरा हुआ है प्यार और भी गहरा हुआ है ''या '' प्यार में जियेंगे या मर जायेंगे '' अथवा ''प्यार करने वाले किसी से डरते नहीं '', उनकी सभी उक्तियाँ बेजान सी दिखाई देनें लगी हैं ।

तब ऐसी अवस्थामें खाप पंचायतें वोट बैंक हैं ,ग्रामीण परिवेश मूर्ख है ,पारंपरिक भारतीय समाज गधों का समाज है जो सिर्फ और सिर्फ भेडचाल करना जानती है । जो ना तो किसी के स्तित्व को समझती है और ना ही तो सभ्यता के आगे सम्बंधित 'संवेदना' को मान्यता देती है ।

तो क्या उन प्रेमी जोड़ों के स्तित्व को स्वीकार कर लिया जय । १०-१५ वर्ष तक के लडके लडकियों को प्रेम करने की खुली छूट दे दी जय ? खुली छूट जिसमें लडके लडकियाँ खुले तौर पर कहीं भी , किसी भी जगंह , बाहों में बाँहें डाले , होठ से होठ सताए , निर्वस्त्र, नंगे , कुत्तों और जानवरों की तरंह सडको पर , गलियों में , अथवा अन्य किसी भी सार्वजनिक स्थल पर ,जिस्मानी सम्बंध बनाए और लोग देखते रहे ? और फिर क्या इस बात की कल्पना की जा सकती है की लोग सिर्फ देखेंगे ही ? क्या वे भी इसी रंग में नहीं रंग जायेंगे ? तब ऐसी स्थिति में क्या दशा होगी भारतीयता की अथवा उस भारतीय समाज की जो आदर्श्ता, नैतिकता और संयम जैसे नीव पर आधारित है ?

फिर तो भाई-बहन , माता -भाभी आदि रिश्तों का कोई सवाल ही नहीं रह जाता , स्तित्व ही नहीं रह जाता यहाँ पर । जहां पर इश्क ही सब कुछ समझ लिया जाय, प्रेम ही सब कुछ मान लिया जाय ,अथवा जान लिया जाय मुहोब्बत को ही सब कुछ वहाँ पर तब रिश्ते नाम की क्या कोई चीज रह जायेगी ?आखिर एन जी ओ ,' चाहती तो यही है की 'प्रेमी जोड़ों को कानूनी सुरक्षा दी जाय', 'प्रत्येक जिले में कानूनी कार्यालय बनाई जाय।' ' उनके लिए दंड का प्रावधान किया जाय जो इनके विरोध में खड़े होते है अड़े होते हैं उनको सामाजिकता का बोध कराने के लिए ''।

क्यों ? आखिर ऐसा क्यों ? समझ नहीं आता की ये किसी विशेष अधिकार की मांग है या एक विशेष प्रकार का पागलपन जो कभी प्रेम की स्वतंत्रता के प्रति उमड़ता है तो कभी वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने के प्रति । फिर एक सभ्य समाज पर इन कानूनों का क्या असर पड़ेगा क्या इसके भी विषयों पर कभी सोंचा गया ? जहां तक मेरा ख्याल है तो भारतीय और भारतीयता को गाली देना ही कुछ लोगों का विशेष इरादा हो गया है .... ।

यही सचेतनता यदि ना आयी होती 'धाम धन ' छोड़ने की तो शायद ही ........ .

आदर्शता और नैतिकता क्या कभी विकास का पर्याय हो सकते हैं ? समझ में यही नहीं आता । विकास वह विकास जिसमें भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार का उद्देश्य लक्षित हो और वह आदर्शता और नैतिकता के आवरण में फलता फूलता दिखाई दे । पर ये सिर्फ और सिर्फ संभावनाएं हैं और अटकल हैं । जिसमें सिर्फ आशाये की जा सकती है । अटकलबाजी की जा सकती है । वास्तविकता दूर दूर तक कहीं भी नजर नहीं आ सकती । फिर आखिर किस प्रकार विकास पथ को सुदृढ़ किया जय ?

चारित्रिक दृष्टि से तो आदर्शता और नैतिकता की बात कुछ हद तक तो समझ में आती है पर ये एक ऐसी कड़ी है जो कभी भी चाहे वह आध्यात्मिक मार्ग हो या फिर भौतिक मार्ग ठीक ठाक तरीके से सिर्फ जीवन यापन करने का तरीका दे सकती हैं ना तो आध्यात्मिकता का संबल प्रदान कर सकती हैं और ना ही तो भौतिकता का आनंद । क्योंकी इतिहाश गवाह है , जो कोई भी, कभी भी अपना विकास किया है , भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही अस्तर पर , उन्हें इस आदर्शता और नैतिकता को ठुकराना पड़ा है । छोड़ना पड़ा है और पड़ा है त्यागना । फिर चाहे वह महात्मा गांधी हों , [सत्य के प्रयोग], या फिर गौतम बुद्ध । भीमराव आंबेडकर हों या फिर क्रन्तिकारी सरदार भगत सिंह । 'सत्य के प्रयोग' में महात्मा गाँधी जब वकालत के लिए विदेश का रुख करते हैं उन्हें मिलता क्या है -जाती निकला का तमगा जिनके चलते इन्हें उन नैतिक नियमों को तिलांजलि देना पड़ा । दलित वर्ग को ठीक ठाक स्थिति में लाने के लिए हिन्दू धर्म को त्यागने का निर्णय आंबेडकर को भी करना पड़ा था। हालांकि रोक लिया गया ये बात दूसरी थी , पर रास्ता तो वही था ''विद्रोह'' आदर्शता और नैतिकता से ।

विद्वनों, कवियों और दार्शनिको की भी मने तो यही बात सामने आती है और कुछ तो इसे माया की संज्ञा देकर ''माया महा ठगनी हम जानी '',कहा तो कुछ ने पारिवारिक वातावरण से दूर होकर ''छोड़ धाम धन जाकर मैं भी रहूँ उसी वन में '' की धरना अपनाई । जबकि बहुतो ने '' अब हम तो चले प्रदेश की मेरा यहाँ कोई नहीं '' या ''ये गलियाँ ये चौबारा यहाँ आना नहीं दुबारा '' की प्रवृत्ति का अनुसरण किया ।और यही '' मेरा यहाँ कोई नहीं '' की प्रवृत्ति ने ही उन्हें विकास का फलक प्रदान किया । और इस भाई- भतीजावाद की भवचक्कर में कुल्चक्कर में उलझकर बर्बाद हों से सचेत किया क्योंकि यही सचेतनता यदि ना आयी होती 'धाम धन' छोडनें की तो शायद ही यहाँ पर गाँधी और विवेकानंद जैसे प्रेरणाश्रोत के दर्शन होते ।

वो बस एक कल्पना भर थी .....

हुए जो दूर तो
नजदीकियों की एक चाहत ने
आवाज दिया धीरे से
खामोश हो सुनता रहा
मजबूरी की दबिस में
मन ही मन घुटता रहा
मह्शूश किया तपिश
आत्मा की
और एक कदम बढाया
आशाओं की एक आहट ने
स्वागत किया धीरे से
पास आये , थे जो दूर
किया मैं उनको इस कदर मजबूर
क्या हुआ की
वो बस एक
कल्पना भर थी ...... ।

मंगलवार, 29 जून 2010

परिवर्तन का चक्र

परिवर्तन का चक्र चलता रहता है । जो ऊपर है वो नीचे और जो नीचे है ओ ऊपर होता रहता है ."(जवाहरलाल नेहरु ) । और यही वो परिवर्तन है जो पहले तो अस्थाई रूप से हमें अपनी आहट भर देता है लेकिन बाद में स्थाई रूप धारण करके हमारे ही जीवन का एक अंश हो जाता है और स्वीकार करना पड़ता है हमें उसको और उसके स्तित्वा को । पर क्यों ? क्यों होता है इतना परिवर्तन ?इतने विस्तृत रूप में इतने व्यापक रूप में । वो हमारे सामने आता है और सब कुछ देखते ही देखते रिक्त क्र चला जाता है। और हम ना तो उसका आना समझ पाते है और ना ही तो उसका जाना । आखिर क्या चक्कर है उसको आने का ?
क्या मानव जीवन की अनिश्चितता का बोध कराने आता है यह या फिर अनागत भविष्य के प्रति चिंतित होने का संकेत लाता है । पर यदि चिंतित होने का संकेत ही लाता होता तो जो पूर्ण रूप से नाश के द्वार पर खड़े होते हैं , विलासिता के कगार पर अड़े होते है , और पड़े होते हैं कंगाली के रस्ते पर क्या वे सुधर ना जाते ? स्वयं को फिर उसी मार्ग पर न लाकर खड़ा क्र देते जहां से वे सिक्स को अपने जीवन में न्य आयाम दिए थे ? फिर आखिर वे अपने स्वर्णिम इतिहाश के दिनों को कीचड से दबे हुए वर्तमान की भयावह स्थिति को क्यों सौंपते ? फिर एक राजा राजा ही न रहता । वह सड़कों पर क्यों आता ? भीख मांगनें के लिए पेट भरनें के लिए या सब कुछ गंवाकर मर मिटने के लिए?
नहीं परिवर्तन सचेत करनें के लिए नहीं आता और ना ही तो किसी को अचेत करने के लिए आता है । अगर वह आता है तो सिर्फ और सिर्फ प्रेरणा रूप में । ये बात और है की जो अनुसरनक है वे इससे किस रूप में प्रेरित होते है । नहस रूप में या विकास रूप में ? पाकिस्तान की आतंकवादी गतिविधियाँ , , अफगानिस्तान और तालिबान की मानवीयता के खिलाफ न्रिशंश नीतियाँ , और भारत में नक्सलियों की विद्रोही उक्तियाँ इसी परिवर्तन का ही एक रूप है । एक अंश है । जो एक दूसरे को सचेत क्र रहा है । अब कोई इनसे बचने की तरतीब सोंच रहा है तो कोई इनसे लड़ने की । कोई इन्हें मारने की तरतीब लिए बैठा है तो कोई स्वयं मर मिटने की । जिस प्रकार से विभिन्न देश है उसी प्रकार से विभिन्न विचार । यहाँ कौन किस रूप में प्रेरित होता है वह तो वही ' परिवर्तन का चक्र; ही निर्धारित करता है । जो आता है और देखते ही देखते एक व्यापक परिदृश्य सामने रखकर चला जाता है । परिवर्तन का चक्र ... ।

माँ तू आज मुझे याद आई

माँ तू आज
मुझे याद आई
चारों तरफ की हरियाली
हो गयी ख़ाली खाली
नव पल्लव से सजते
दिखी मुझे सूखी डाली
भर गयी उस्डौरी सारी
डूब लाई हरियाली
तब माँ तेरी वह 'भूमिका'
मेरे मन मष्तिष्क में आई
माँ तू आज मुझे याद आई

खाने को रोटी नहीं
कपडा गन्दा साफ़ नहीं
धूल उड़ जब धरा से
धीरे धीरे तेज वेग से
मेरे मुख मंडल पर आयी
याद उस आँचल के
तनिक छुवन की कर
जब मेरी आखें भर आई
तब माँ !
तू आज मुझे याद आई ...... ।

उदास मेरा मन

न जाने क्यों मन मेरा
रहता है उदास हर तरह
चाहता हूँ वह खुश रहे
समझे न समझे पर
छोड़े न कुछ अनकहे
आता नहीं समझ
आखिर क्या है वजह
रहता है उदास हर तरंह
तोड़ता रहा
नैतिक वर्जनाओं को
बंधता रहा नैतिक बंदिशों में
अनैतिकता के डर से
शंकाओं के भय से
भागता रहा मन
परम्पराओं के कहर से
फिर भी रीतियों से उलझा मन मेरा
रहता है उदास हर तरंह ........... ।

उजड़े चमन हमारा न ऐसी परंपरा जगाओ

ऐसी भी क्या कमी थी कमजोरिय क्या ज्यादा
मजबूरीयां ही बनती गयी रह गया अधूरा वादा
आता नही समझ कुछ ऐसा भी क्या हो रहा
सब कुछ उजड़ते देखते भी 'सिस्टम' अभी तक सो रहा

है खो रहा वजह बस स्वार्थ सिद्ध ही सही
पर क्या उन्हें पता 'इज्जत' भी मिलती है कहीं
पहले भी इसीलिए नीलाम इज्जत यूं होता रहा
डूबा कोई विलासिता में कोई स्वतंत्र हो सोता रहा

हुए गुलाम तबतो क़ानून दूसरों का था
मारता था मरते थे हम 'जूनून' दूसरों का था
अब तो है सब तुम्हारा फिर भी क्यूं लूटता रहा
तुम्हारे ही देख रेख में जन जन यूं टूटता रहा

सो रहे हो , सो लो,पर थोडा तो सर्माओ
विस्वास ना हिन्दजन की हिन्द-विधि से उठाओ
अच्छा है जन समूह यहाँ का अभी भी सोता रहा
सुप्तावस्था के आवरण से घोटाला घपला यूं होता रहा

फिर भी न समझो पागल ना मूर्ख यूं बनाओ
कायर हो , गर सही , न वीर झुण्ड में तुम आओ
आया यहाँ जो इस कदर फटकार ओ खाता रहा
सत्कार की जगह बस दुत्कार ही पाता रहा

आस्था है गर हमारी तो तुम भी निष्ठां रखो
हमारे कोप स्वाद, न प्रलय के द्रष्टा चखो
अब भी न बिगड़ा है अधिक ,फिर भी सुधर जाओ
उजड़े चमन हमारा न ऐसी परम्परा जगाओ.......... ।