गुरुवार, 27 मार्च 2008

असर उसके साथ का

जब से वो मेरे दुनिया में आयी
सूर्य चन्दा से लगनें लगा है
उजड़ी थी जो कभी मेरी महेफिल
आज तारों सा सजानें लगा है

रोते थे हम कभी यूँ अकेले
अपनें दुखादों का दमन पकडके
आज रहती है साथ वो मेरे
दोस्ती की कसम एक ले के

दी कसम हमको भी दोस्ती की
आज उसको दिल ढोनें लगा है ।

मिलती वो मुझको सपनों में हंसकर
यूँ हकीकत में फूलों से खिलकर
करता हूँ याद उसको मैं हरपल
लाख मुशिबतों से भी घिरकर

मेरी भी याद रखती वो होगी
तह- ऐ - दिल से ये लगनें लगा है ................. ।

कहानी सुहानी

मैनें तो सोंचा था शायेद

कुछ सुनोंगे मेरी भी बातें

होता कैसे दिन गलियों मी मेरे

वितती हैं कैसे ये रातें

किस तरंह से जीते हैं वासी यहाँ के

खाते हैं क्या वो पीते

कब कैसे बीत जाते हैं पल

किस किस के ताने बाने सुनते

मिलती कौन उन्हें सावन बूँद - सम

सताती समेटे गमांचल में अपनें

खिलती फूलों में कैसे कलियाँ काटों की

दिखने लगते हैं जब बेगानों से अपनें

है कहानी सुहानी दिलचस्प जुबानी यहाँ की

मिलो कभी फुरसत में तो बैठ सुनाएँ

बातें करेंगे अनिल (हवा) से गोधूली बेला में

तब दिखा करेंगे रंग जागरण में दहकते ................. ।

उड़ते मन के ख्यालों से

हे मन आश तूं केके लिए है

प्यार वफ़ा रिश्ते सब नाते बस थोड़े दिन के हैं

आज खुसी कल खिल खिल हँसना परसों गाना हाल

नरसों सुन कुछ गुस्सा होना अगले दिन दुःख के हैं

भूल जा चेहरा फ़िर से उनके जानें से ले सन्यास

तीखे वचन "अनिल" शरीर शालत अच्छे के मालिक के हैं .................. ।

मैं तो मातु चरण रज प्यासा

कब आएगी अमृत -रज उसकी कब देगा मन दिलासा

सोंचा था प्रतिपल साथ वो मेरे होगी शाश्यामल जीवन गाथा

उसकी ममता हर वो सुख देगी मन लहरेगा ध्वजा सा

अब तो मम ख्वाबें भी रूठे दामन पकडी निराशा

जीवन मैं सब सुख साधन हैं पर नहीं उसकी आशा ................ ।

बुधवार, 26 मार्च 2008

प्रियतम संदेश

ये हवा जाके उनसे कह देना

हम याद बराबर करते हैं

वो चाहे जितना दूर रहे

पर मेरे दिल में रहते हैं



याद हमारी उनको भी

दिन रात सताया करती है

सब जान के वो अनजान बने

दिल दर्द शिकायत सहते हैं



हम आज भी पहले जैसे हैं

जिस हाल में थे कुछ वैसे हैं

पर वो हंस कर कह देते है

हम कुछ कहनें से डरते हैं



कुछ ऐसा संदेसा भी कहेना

कुछ उनकी भी तुम सुन लेना

पर चुप रहेना बुत बनकर तूं

हम जैसे गुमसुम रहते हैं



अरविंद सो आनन दिखता है

फूलों की गली में घर उनका

कुछ और पता हम भूल गए

पर गुल की गुलशन में रहते हैं



ये हवा जाके उनसे कह देना

हम याद बराबर करते हैं

वो चाहे जितना दूर रहें

पर मेरे दिल में रहते हैं ............... ।

अब मुझको पवन बन जन होगा

अब मुझको पवन बन जाना होगा
कितना दूर कितना पास
कौन कहाँ कब रखता है आश
पास पहुँच सबके अब मुझको
समाचार कुछ लाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा

कितनी खुशियाँ किसके घर हैं
कौन सचेत कौन बेखबर है
किसको कौन आता है रास
सोंच समझ मुझको ही अब
एक आंकडा नया बिठाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा

कहाँ रही बह नीर-नयन
सहत रहत जन भूख-शयन
रहा तड़प कौन प्यास से
कुछ पानी दाना पहुँचाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा

सो रहे जो प्रेस वाले हैं
राजगद्दी पर बैठे मतवाले हैं
उनके मन को पकड़ एक दिन
इन सुनें नगर को दिखलाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा ................. ।

मंगलवार, 18 मार्च 2008

ऐसी आए मेरी रानी

हे इश्वर भगवन प्रभु

हे मावा महरानी

करो ऐसा जुवाड

जेसे आवे हमारो रानी

गोरी हो या वो काली

पर लगे सदा भौकाली

लहंगा पहने गोरखपुरिया

नथुनी राजस्थानी

पैर जुडा हो दोनों तन से

एक हो छोटा एक बड़ा

निकुरा हथिनी सूंड के जैसी

हो एक आँख की कानी

नाक निकुरे से छूती रहे

घूमें जूठ लगाए मुख में

चले जिधर भी करें घृणा सब

पर समझे वो ख़ुद को रानी

जब भी निकले घर से वो

कीचड तन में लगा रखे

तन भी फूली हो मुर्रा भैंसों सी

बैठत होवे परसानी

गर ऐसा प्रभु हो गया तो

होगी सटी सावित्री ही वो

बची रहेगी बुरी नजरों से सबके

मैं बना रखूंगा उसे अपनें महलों की रानीं

हे इश्वर भगवन प्रभु ..................... ।

ऐसी आएगी मेरी घरवाली

स्वच्छ सुसज्जित सुनायनों वाली

आएगी मेरी घरवाली

मुख पर तनिक भी बात ना होगी

चमकेगी होठों पर लाली

थोडी सी वो गोरी होगी

हल्की ही सी सावली

पतली सी सारी पहनकर

कर देगी सबको बावली

उसकी भोली सी सूरत पर

हो जाऊंगा मैं कुर्बान

चाहे चर लात रोज ही मारे

जोहूँगा मैं उसकी मुस्कान

नाकों में नथुनी होगी

और कानों में लतकेगी बाली

सासु जी को हर समय तोदेगी

और श्वसुर को देगी गाली

कहते कविराज वो मायावी होगी

होगी चर घूँसा खानें वाली

अवगुण तो उसके पैरों तल होगी

ऐसी आयेगी मेरी घरवाली

ऐसी आएगी मेरी घरवाली .......... ।

सोमवार, 17 मार्च 2008

अगर कहीं कुछ हो जाता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

गजब की चिंता होती है मन में
हलचल सी उठ पड़ती है

एक मार्ग से हटते हटते

आँखें भी रो पड़ती हैं

पर धैर्य खो देता है तन

मन शांत नहीं रह पता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

लाखों करोरों भावनाएं

लेकर आसमा में चक्कर लगाते हैं

एक बार अंतरिक्ष पहुंचकर

धरती वापस आते हैं

मुख्य बिन्दु पर चलते चलते

बुद्धि ही खो जाता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है


रहता एक कहीं अगर तो

चार उसे मैं बनता हूँ

अपनी झूठी खबरें देकर

सबको खुश कर जाता हूँ

पर मजबूरी हो चली यहाँ पर

असत नहीं छिप पता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है


किसी हादसे में कहीं से

आलसी अगर आ जाता है

ch च करते करते वहाँ

ख़ुद घायल हो जाता है

अन्ताहल में आकर सबको उस पर रोना पड़ता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

कुछ अच्छे कुछ बुरे जुटते

रहते उस शोकापन में अपनी बीती बातों को
कह जाते एक घतानापन में
वो विचरते देते सुख हम पर

दुःख ही उनको मिलता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

कुछ सहकारी कुछ ग्रामीनी

आ जाते दो जन के गम में

कुछ घूसखोरी कुछ खिश्निपोरी

कर जाते उनके अंधेपन में

चिंता मुझको इस पर होता है

जल्द मानव घबडाटा है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

अपनें विगत गत जीवन को वो

खुश्खोरों को बताते हैं

स्थ घूसखोरी के कारन

एक को चार बनाते हैं

सब बातों को छोड़ जवान दिल

इनकी बातों में उलझता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है ................ ।




सोमवार, 3 मार्च 2008

और दे जायेंगे काम यही १०-५ रुपये

अब नहीं सहा जाता और ना ही तोदेखा जाता है आर्थिक तंगी की दशा । जैसे जैसे दिन बढ़ रहे हैं , उम्र बढ़ रही है ऐसा आभाष होता है की ये आर्थिक समस्याएं पूरी तरंह से हमें अपनी गिरफ्त में लेती जा रही हैं। जबकि ऐसा नहीं है कि इससे मैं ही दुखित हूँ या ये कि मैं ही झेल रहा हूँ । भोग रहा हूँ। इस दशा को इसके पहले भी हमारे ही दादा, बाबा, यहाँ तक कि बड़े भाई तक इस तंगी से मुखातिब हो चुके हैं । और जैसा कि अब भी झेल रहे हैं , हालांकि वैसी मुसीबत मेरे ऊपर नहीं आयी पर आज ये भी नहीं कह सकता कि मैं एक एक पैसे के लिए नहीं सहका । आज मैं विद्यार्थी जीवन का निर्वहन कर रहा हूँ ,कहा जाता है कि विद्यार्थी जीवन सबसे सुखमय जीवन होता है। ना कूँ चिंता और ना ही तो कोई फिक्र । खासकर आजके इस फैश्नबुल जमानें में तो और भी सही है । पर ऐसी स्थिति में पैसे के मत्वा को तो नजरंदाज नहीं किया जा सकता । जब तक जेब में १०-५ रुपये नहीं होते न तो किताब नजर आती है और ना ही तो कुछ पढ़नें का दिल करता है। वैसे भी १०-५ रुपये आज के इस महंगाई के दौर में कोई मायनें नहीं रखता पर कहीं भी बैठ जाओ एक दोस्त के साथ तो २०-२५ के करीब वैसे ही पड़ जाते हैं । पर क्योंकि कोई साधन नहीं है, कोई विशेष आश्रय नहीं है और ना ही तो पिता की कमाई । माँ है जिसका ख़ुद का खर्चा अपाध है ,बड़े भाई तो हैं पर क्योंकि १८ की उम्र पार कर चुका हूँ अब वह बचपना भी नहीं रही कि जिद करके या रो के ले लूँ, मांग लूँ। बडा हो गया हूँ और स्वाभिमान का अभिमान । १०-५ ही मेरे लिए बहुत है और कोशिश करता हूँ कि ये बचे रहें खर्च न हों । पर फ़िर भी कमबख्त यूँ ही आँख के सामनें से ख़ुद के ही हाँथ से स्वयं के जेब से निकलकर चले जाते हैं दूसरों के पास ।

पहले (बडे भाई के पास रहते हुए)समोसे अच्छे लगते थे ,न्यूदाल्स और मंचूरियन प्यारे लगते थे । वर्धमान मंदी में जाकर गोल गप्पे खाना तो एक परिवेश ही बन गया था मेरा। पर वही जब अब कहीं दिखते हैं तो तुरंत मन मचल जाता है। पहुँचनें की एक कोशिश तो करता हूँ उनके पास पर असफल क्योंकि वही १०-५ अगर बच जाते हैं तो दूसरे दिन मिर्चा आ जाएगा , या फ़िर एक्शातेंशन लाइब्रेरी में २ रुपये साइकिल स्टैंड के लगते हैं और दी जायेंगे कम यही १०-५ रुपये । ऐसी स्थितियां प्रायः लोगों के पास कम ही आती होंगी पर हमारी तो दिनचर्या ही इसी से सुरु होती है। अर्थात सुबह से ही १०-५ रुपये को बचानें का उपक्रम करता रहता हूँ और शाम होते होते २०-२५ रुपये खर्च होकर अंततः एक दिशाहीन मोड़ पर आकार सोंचानें के लिए मजबूर हो जन पड़ता है।

आज नंददुलारे वाजपेयी द्वारा लिखित पुस्तक कवि निराला पढ़ रहा था और क्योंकि निराला की दिनचर्या भी लगभग इसी लहजे में हुआ करती थी प्रारम्भ और यह जानने पर कि निराला का दानी स्वभाव बहुत हद तक उनकी अर्थ समस्या थी " रिक्शे वाले या पं वालों को पैसा देकर वापस न लेना उनका स्वभाव नहीं अपितु कट जाता था उसमें जिसे प्रायः वे उधार(कर्ज) लिए रहते थे । खीझ उत्पन्न हुयी सम्पूर्ण मानवीयता पर पर यह जानकर कि आर्थिक दुर्दशा अन्य दुर्दाषाओं से प्रायः थिक हुआ कराती है अपनें आप को समझाते हुए यह एक लेख लिखना ही उचित समझा। ......................

हमपे क्या गुजरेगी जब हम उस गुरु को छोड़कर नव जीवन के नव आँगन में प्रवेश करेंगें ?

कादम्बनी के "आयाम" स्तम्भ में प्रकाशित विश्वनाथ त्रिपाठी की प्रायः गद्य विधा के संस्मरण विधा में रची रचना या आत्मीय लेख ,"उन छात्रों की याद आती है" पढ़कर सहज ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गुरु गुरु ही होते हैं उनका स्थान तो कोई और ले ही नहीं सकता । एक स्थान पर वे जब कहते हैं,"गुरु माँ-बाप नहीं होता"तो मुझे ऐसा लगा जैसे कोई बहुत बडा रहस्य आज की पीढ़ी से, खासकर हम नवयुवकों से छुपाकर रखा जा रहा है । पर जब उसी अंदाज में आगे वे लिखते हैं,"वह कुछ ऐसा भी होता है, जो माँ-बाप नहीं होते" तो मुझे अपना छात्र जीवन याद आ जाता है । जो अब भी मैं अपनें उसी गुरु के संरक्षण में छात्रीय जीवन को न सिर्फ़ जी रहा हूँ अपितु उसका आनंद उठा रहा हूँ। श्रीमान त्रिपाठी जी जिस तरंह आपका श्री प्रकाश अपने घर के समस्याओं से आहत था ठीक वही दशा आज हमारी है। फर्क तो सिर्फ़ इतना है कि उसके पास आप गुरु विश्वनाथ त्रिपाठी थे और मेरे पास गुरु सुनील अग्रवाल जी जो कमला लोह्तिया सनातन धर्म कालेज( लुधियाना) के राजनीती शास्त्र के प्रमुख अध्यापक हैं। वह समस्याएं आपको सुनाता था मैं सुनील सर को ।
पर निहायत ही आज के इस समय में बहुत से विद्यार्थी ऐसे होते हैं जो न तो अप जैसे गुरु का दर्शन ही कर पते हैं और ना ही तो अपने आपको ऐसे छात्र के रूप में प्रस्तुत ही कर पाते हैं जिससे कि गुरु और शिष्य के उस सम्बंध को एक उए "आयाम"तक पहुँचाया जा सके । बात तो यह भी सही है कि "सभी छात्र इतनें प्रिय और आत्मीय नहीं होते" क्योंकि आज वे शिक्षा को शिक्षा की तरंह नहीं अपितु व्यावाशय के रूप में ले रहे हैं । और ऐसी स्थिति में तो जो गुरु शिष्य परम्परा का केन्द्र होता है संवाद पूर्ण रूप से टूट गया है।जहाँ एक अध्यापक को अपने सिर्फ़ ४५ मिनट के लेक्चर से मतलब होता है वहीं विद्यार्थी का उस प्रणाली के डेली अतैन्देंस से यथास्थिति तो आज ये कहती है की अध्यापक जन अपना अध्यापकत्वा ही खोते जा रहे हैं । अब तो आप जैसे लोग जो यह कहते हैं ," विश्वविद्यालय में क्लास लेनें के बाद तीसरे पहर , मैं अक्सर छात्रों के साथ बैठकर गप मरता था ।" न होकर ऐसी श्रेणी के अध्यापक प्रायः हो रहे हैं जो उतने समय गप मरनें के भी शुल्क (फीश) ले लिया करते हैं अन्यथा इस रूप में उनके पास नहीं बैठते की उनके लिए उनके परिवार से ही फुरसत नहीं है।
पर हकीकत यही तो नहीं है । संवाद का जरिया यहीं से टू खत्म नहीं हो जाता। एक अनजानें अंचल पर रह रहा छात्र जिसका प्रायः ना तो उसका वहाँ घेर होता है और ना ही तो उसका अपना जन्मभूमि । होते हैं तो आप ही "जो कुछ ऐसा भी होता है जो माँ -बाप नहीं होते ।" ऐसी स्थिति में वह विद्यार्थी स्वार्थी तो नहीं कह सकता पर अभागा जरूर हो सकता है जो अपनें गुरु नहीं गुरु के रूप में पाया हुआ माता-पिता को अपना हाल नहीं देता और ना ही तो उसका लेता है ।वे शायद यही भूल जाते हैं की "माँ-बाप का दुःख असहनीय होता है, वे रोते धोते भी हैं"
वास्तव में जब आप कहते हैं,"मेरे अनेक विद्यार्थी ऐसे भी थे, जो हमें बीच में ही छोड़कर चले गए । निहायत आत्मीय, प्रतिभाशाली छात्र । उनकी याद से हूक सी उठती है । हमारी स्मृत चेतना विवश चीख करती है और चुप हो जाया कराती है ।" मैं प्रतिभाशाली होनें की तो आशा नहीं कर सकता और ना ही तो यह कह ही सकता हूँ की आपके श्री प्रकाश और अन्य विद्यार्थियों की तरंह गुरु की पवित्र आत्मा में जगंह ही बना पाया हूँ पर एक बात जो मुझे सालती है वह यह की आप तो गुरु हैं, अर्थात माता-पिता, जिन्हें गमों और दुखों को सहेना लगभग एक आदत सी बन गयी होती है , किसी तरंह उनके बिछुदन को सह भी लेते हैं , पर मैं या मेरे जैसे अन्य छात्र जब आप और सुनील सर जैसे माता के आँचल और पिता के प्यार को सिर से उठाते देखते होंगे या आभाष करते होंगे तो उनका क्या होता होगा ? आपकी इस रचना को पढ़कर वास्तव में ह्रदय द्रवित हो गया है। आँखें नम हो आयी हैं । इसलिए तो हई है की आप के दिल पर व आप पर क्या गुजरती होगी जब हर साल ऐसे शिष्य को विदा करते होंगे , इसलिए भी की हमपे क्या गुजरेगी जब हम उस गुरु को छोड़कर नव जीवन के नव आँगन में प्रवेश करेंगे ? क्या उस समय भी आप जैसे गुरु या सुनील सर जैसे गुरु हमें मिल पायेंगें ? जो "छात्रों के साथ क्लास लेनें के बाद तीसरे पहर में अक्सर बैठकर गप मारा करें."