मंगलवार, 5 मार्च 2013

मजबूरियाँ ये कहाँ से आती हैं

मजबूरियाँ ही है 
एक को 
एक से मिलाती हैं 
मजबूरियाँ ही है , एक को 
एक दूसरे से दूर ले जाती हैं 
समझ नहीं आता 
मजबूरियाँ ये कहाँ से आती हैं 
हर किसी को स्वयं में  उलझाए 
इतनी ऊर्जा वह और कहाँ से पाती है 

संतो के गलियारों से 
बधिक के हथियारों से 
गुजरती हुई टकराती है ये मजबूरिया 
लोहार के औजारो से 
कूटता है वह आग  से तपाकर 
ठोक ठोक  कर 
झुका झुका कर एक नया रूप देता है लोहे को 
वह पसीना अपना बहाकर 
ख़त्म नहीं होती मजबूरियां 
समझता है वह  किस्मत  की दूरिया

कोशिश करता है किसान 
होगी ख़तम मजबूरिया 
होगा नया विहान 
कुदाल, फावड़ा, खुरपी , पलरी  लेकर 
दिन भर बिताता है खेत में वह 
खटते खटते हो जाती है शाम 
न कही कोई राहत न कही कोई आराम 
बिताता रात  वह कथरी-गुदरी पर लेटकर 
स्वप्न में सोचता है 
माथा अपना टेककर 

न हुई वर्षा अगर 
जल जायेंगे सारे  फसल
दरअसल 
बीज भी नही है 
साथ उसके डाई , यूरिया या 
खाद भी नही है 
बीमार  है औरत दवा भी लाना है
खाने के लिए घर में 
नही मौजूद एक भी दाना है 

समझ ही नही आता 
क्या लाना क्या पाना है 
शास्वत है धरा 
शाश्वत है गगन 
शाश्वत है समस्याएं 
शिवाय इसके और न अभी तक जाना है .  

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

प्यार

प्यार

जो पलता रहा ह्रदय में

दिये सा जलता रहा

लौ आशा की

सजाती रही स्वप्न भूमि

और

यथार्थ बराबर खलता रहा

समय

दिन दोपहर  घंटे

बदलता रहा बदलता रहा

बढ़ता रहा विश्वास

बांधती रही आश

और

ह्रदय मचलता रहा

तुम जो तुम रहे

मै  जो मै  रहा

भेद न सका दीवार यह

धीरे धीरे दूर तुम दूर मै

एक दूसरे से होते रहे

मिलकर भी बिछड़ते रहे

तुम मुझे हम तुम्हे खोते रहे

न जाने किन खयालो में

तब से लेकर जब तुम मिले थे

आज तक हम विचरते रहे