शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

कितने जगह मनाओगे शहीदी दिवस को ?

चौको न बस सोचो ज़रा ये क्या हो गया

संचित सदा की एकता का साख खो गया

कैसी घड़ी , समय दुखद , मानव संघार का

थी स्वागताकांक्षी धरा दानव चिग्घाड़ का ॥ १॥

घटना न कभी ऐसी स्वतंत्र हिंद में हुई

रो पड़े जिसने भी उस हालत को सुनी

आँखे खुली थी जिनकी वो भी सूर हो गए

कितने लड़े, शहीद, हिंद-ऐ-नूर हो गए ॥ २॥

पर वो रहे डकारते खा खा के पूरियां

पहुंचे न क्षति , बनाए रखे ऐसी दूरियां

जब तक कि बात उठती गोलियां बरस गयी

अपने बिरन को लखने को अखियाँ तरस गयी ॥ ३

फ़िर वो लगे फुदकने कायरों ही की तरंह

अवशेष ढूँढने लगे , आतंक की वजह

कुछ हो तो मिले खैर राजनीती ही सही

कम्युनिस्टों ने कह ही दिया जो कोई ना कही ॥ ४॥

अब तक तो लड़े जान हथेली पे रखके यूँ

मानो न उनका कोई , देश ही है सब कछू

पर देश के गद्दारों नें ये क्या कर दिया

उनके शहीद होने पर , सवाल जड़ दिया ॥ ५॥

ऐसी बनाओ नीति ना कुनीति पर चलो

जिस देश में हो रहते उस देश की कहो

कितने जगंह मनाओगे शहीदी दिवस को

हरेक जगंह रही गर जिंदगी सिसक तो ॥ ६॥

चलेगा न काम धुप , अगर, माल से

आतंक का जवाब दो आतंकी ताल से

हम हैं भला कमजोर वो सहजोर ही कहाँ

भाग जाय सब छोड़ , एक हिलोर हो जहा ॥ ७॥

तबतो मजा है , आनंद इस जलसे जुलूस का

हम स्वाद भी चखा दे दर्दे जूनून का

इक बार गर "सरकार " तूं तैयार हो गया

समझो वतन स्वर्ग का 'घर द्वार ' हो गया

बुधवार, 25 नवंबर 2009

पर आंसू किसका गिरा, आह किसने की , आत्मा ने ही तो की?

आज मन अधीर है । चिंतित है । वह मन जो आज कई दिनों से स्वयं में उल्लासित था आज उसकी ये दशा है मैं स्वयं नहीं कह सकता की आख़िर ऐसा क्यों है । क्यों आज यह स्थिर है , जडवत है , वेग नहीं है , गति नहीं है , थका हारा दंडवत है ? क्या इसे किसी ने कुछ कहा या फ़िर अपमानित हुआ यह किसी ऐसे जगंह जहाँ मैं ले गया अथवा यह स्वयं गया ऐसा भी समझ नही आता कुछ। फ़िर क्या वजह है ? क्या यह कही चला जाना चाहता है किसी ऐसे जगह जहाँ न तो कही कोई देख सके और ना ही तो समझ सके । सके अगर कोई कुछ कर तो सिर्फ़ महसूस उसके अन्तर्दशा को , दुर्दशा और विवशता को । कुछ कहा नहीं जा सकता ।

फ़िर आत्मा तो एक सर्वसत्ता है । मन उसका एक अंश मात्र । तो क्या अंश की विकलता सम्पूर्णता से छिपी रह सकती है । शरीर का कोई एक अंग ही तो टूटता है पर दर्द का आभाष तो मानसिक प्रक्रियाओ से ही होता है न ? तो क्या हम ये नही कह सकते की आज हमारी आत्मा ही दुखी है ? मन में तो एक ठोकर ही लगा , सम्हला वह कुछ भले ही गिरते गिरते सम्हला । पर आंसू किसका गिरा ? आह किसने की ?आत्मा ही ने तो की । चोट खाने वाला तो बेहोश हो जाता है दर्द की कडवाहट झेलता तो वही है जो निगरानी करता है रखवाली करता है ।

मन भी दुखी है । आत्मा भी दुखी है । तो क्या यह भी कहना आवश्यक है कि हमारे शरीर के सरे अवयव ही दुखी हो गए है ? शिथिल हो गए हैं ? ना तो ये पहले की भाँती फुदुक सकते हैं और ना ही तो रह सकते हैं स्थिर । फ़िर ,जब इन्हे सर्दी , खांसी , ना मलेरिया हुआ ' तो ये नया रोग नई बीमारी कहाँ से आ टपकी । जिसके प्रस्तुत ध्वनि मात्र से हमारे शरीर के सरे अवयव पंगु हो गए ।

ऐसी दशा इस समय सिर्फ़ हमारी ही है या सम्पूर्ण मानव जाती की । एक सुंदर पथ पर गमन करते करते असुन्दरता का ये कड़वा मिश्रण बिना किसी निमंत्रण के बिना किसी प्रयोजन के आख़िर मेरे बीच कहाँ से उपस्थित हो गयी ? जो मुझे कीचड मन धकेले जा रही है , घसीटे जा रही है । लिए जा रही है । मैं नहीं जाना चाहता । वह कीचड , वह मैल , वह दलदल मुझे नहीं पसंद है । मै नही जाना चाहता । रोको , कोई रोको , पूछो , कि मैं जब नहीं जाना चाहता तो मुझे यह क्यों लिए जा रही है ? क्यों नहीं छोड़ देती मुझे उसी जगंह जहाँ पर मैं पहले था ? पर पूछे कौन ...................?

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

जब हिन्दी में सपथ लेने से अबू आजमी (सपा विधायक ) को भरी सदन में थप्पड़ मारा जा सकता है ....... तो हमारी क्या औकात?

क्या लिखूं क्या सोचू और विचारू क्या समझ में तो यही नहीं आता । कमजोरी योग्यता का नहीं है , भाव का नहीं है , विचार का नहीं है , है तो बस उस बात का की माध्यम तो हिन्दी ही है । वही हिन्दी जो कभी फारसी, उर्दू आदि से लड़ती हुई दिखाई दी । लुटी पिटी पर सम्हली किसी तरंह से । अंग्रेजी की रखैल बन गयी । सौतन का-सा सम्बन्ध रहा । यह (हिन्दी) पुरानी और वह (अंग्रेजी) नई फ़िर तो सम्मान नई को ही मिला । दे दिया गया एक कोना संविधान का । अदालती कार्यवाही का । यह ना सोचे लोग की निकल दिया है भारत ने इसे (हिन्दी को)अपने घर से ,राष्ट्रभाषा का कुनबा भी पहना दिया गया । पर हाय रे किस्मत! अनाथ तो अनाथ ही होता है । नीच कुत्सित, बेहया भी समझा जाता है। भले ही कितनों शालीन क्यों ना हो । भले ही कितनों सभ्य क्यों न हो । दरिद्र और निघर्घट ही कहा जाता है । दुरदुराया जाता है । फटकारा जाता है । भगाया और दुत्कारा जाता है क्योंकि जो सौंदर्य , जो रस , जो श्रृंगार नये में झलकता है पुराने में वह होता ही कहाँ है । भले ही उसका आधार पुराना ही हो जीवन पुराना ही हो , उसके बिना ना तो उसका स्थायित्व है और ना ही तो उसका स्तित्व । पर द्वार की शोभा, सेज की शोभा, हृदय और अंतरात्मा की शोभा बढाती तो नई ही है ,पुतानी तो नाली की गली की , मैल और गन्दगी की संवाहिका होती है , संरक्षिका होती है ।

फ़िर मैं कैसे लिखूं इस हिन्दी में अपने विचार को ? क्या वजूद है हमारा , हैशियत क्या है ? जब हिन्दी में शपथ लेने से अबू आजमी (सपा -विधायक)को भरी सदन में थप्पड़ मारा जा सकता है एक महिला विधायक के साथ दुराचार किया जा सकता है , जबकि वहां कानून है ,सुरक्षा है , स्थिति है किसी भी परिस्थिति से निपटने की फ़िर भी उनको मारा गया तो हम आम आदमीं की क्या औकात ? जबकि वो "गोधन, गजधन बाजधन और रतन धन खान " से परिपूर्ण हैं फ़िर भी पिटे हिन्दी बोलने मात्र से , तो क्या हम बचे रह सकते हैं ? हम तो उड़ाए जा सकते है दिन दहाड़े , भरी सभा में , अकारण ही बिना किसी कारण के , बिना किसी प्रयोजन के । कहीं भी किसी भी स्थिति में । हमें न तो इस देश का कानून तंत्र ही बचा सकता है और ना ही तो सुरक्षा तंत्र । फ़िर उस कानून से उस सुरक्षा तंत्र से आशा ही क्या किया जाय जिसकी भरी संसद में धज्जियाँ आए दिन उडाई जाती रही हैं । आतंकवादियों द्वारा अतिक्रमण दिन-प्रतिदिन ही किया जाता रहा है । यहाँ तक की धमकाया जाता रहा है जो किसी पड़ोसी देश के द्वारा प्रतिपल प्रतिक्षण , और यह कायरों की भांति , कोढियों की भांति , नापुन्षकों की भांति सुनता रहा है । न तो लज्जा आती है और ना ही तो शर्म । चारो तरफ़ से फटकार खाने के बाद डांट खाने के बाद जगा भी , उठा भी तो हिला दिया अपनी दुम कुत्तों की तरंह । साफ हो गयी आरी बगल की जगंह सिर्फ़ उसके बैठने भर की । आशाएं ही क्या रखे ऐसे अपंग , लाचार कानून और शाशन प्रणाली से ?

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

वह मजदूर - २

ऊपरी हिस्से से चली
नीचे के तरफ़ बढती
चूने लगी कुछ क्षण बाद
टिप टिप टिप टिप
नीचे की उर्वर भूमि तक
पहुँचती ,
तरलता प्रदान करती
शीतलता देती
शरीर के सम्पूर्ण हिस्से को
झकझोर देने के बाद
वेदनामय वातारण में
पोंछता एक एक हिस्से से
शरीर का पसीना
वह मजदूर
गहरी लम्बी साँस लेते
श्रम के उस लम्हे से
कर्म को दे प्राथमिकता
फ़िर भी
सुख सुविधाओं से दूर
वह मजदूर ... ॥

वासना

आ रही थी वह
एक अदृश्य स्वप्न - सा
यथार्थ का रूप लेते
धीरे धीरे धीरे
स्मृति पटल में
तेज ठण्ड में
सूर्य की प्रथम किरण - सा
हल्का धूप - देते
जरूरत नहीं थी धूप की
शीतलता की भी नहीं
आवश्यकता एक जलन की थी
तपन की थी
सिरहन और शिष्कन की थी
बन आहार वह
विशिष्ट त्यौहार का -सा
छा रही थी
धीरे धीरे धीरे
समस्त मानसिक क्रियाओं में
वेबस असहाय
उस शीतलता उस धूप को
निःशब्द मैं
था लाचार - लेते
वह विजित
हंसती रही
मुझे छांव धूप देते ॥

मंगलवार, 17 मार्च 2009

दोहे

अरस शमन है प्रगति का घमंड वीरवशान

क्रोध खंगारत रिश्ते को तजहूँ समय धरि ध्यान ॥

सुरभि चमके सुरभि में तारा ज्यों द्विज पास

मानव चमके शुद्धाचरण धरि संतन के आश ॥

अनंत शर्म निज कर्म पर चखि अरस कर स्वाद

सोवत विगत समुन्नत लखि रोवत होत बर्बाद ॥

अनिल गुरु सन जाय के सीखहूँ सगुन सहूर

दुर्गम पथ तजि सुगम पथ धरहूँ नाहिं अति दूर ॥

देखहु तो या जगत में नीचन की भरमार

जहाँ नीच होइहैं बहुत तहां संत दुई चार ॥

जीवन वितत ढूँढत सफर सफर सवारी गात

श्रवण शान्ति मन भ्रान्ति विकल कहत निशा परभात ॥

गुरुवार, 5 मार्च 2009

काश एक बार फ़िर तसलीमा नसरीन किसी नये '' लज्जा '' की रचना का करने में सक्रीय हो जाति .........

खुदा करे कि कयामत हो सब ठीक हो जाए "बडी ही चिंता की बात है , बड़ी ही परेशानी की वजह है , और है बडी ही व्यथित कर देने वाली समस्याएं कि एक तरफ़ जहाँ सम्पूर्ण विश्व आतंक के घेरे में सिमटता जा रहा है वहां आज भी विद् जनों के बीच यह आतंकवाद आलोचना और समालोचना का मुद्दा बना हुआ है , जबकि जरूरत एक त्वरित निर्णय का है । एक ऐसा निर्णय जिसमें सभी एक जुट होकर आतंक के खात्मे का संकल्प लेता दिखाई दे। क्या हिंदू , क्या मुस्लिम , क्या सिख , क्या ईसाई । क्या भारत , क्या अमेरिका , क्या पाकिस्तान , क्या कोरियाई। क्योंकि आज आतंक सिर्फ़ भारत का "झूठा आलाप " नहीं रह गया है जिसे कि संयुक्त राष्ट्र में बार बार उठाये जाने की जरूरत हो , यह तो एक वैश्वीकरण का रूप धारण कर लिया है जो हर जगह , हर मोड़ पर , फ़िर चाहे वह परम्परा या रीति-रिवाज से उपजा कोई त्यौहार हो या मेला अथवा फ़िर क्रिकेट , फिल्मी समारोह , हर स्थान और प्रत्येक प्रक्रियाओं पर अपना आशियाँ बना लिया है आतंकवाद ने ।

भले ही उदयभास्कर के लिये '' भारतीय उपमहाद्वीप के लिए आतंकवाद की व्याधि कोई नई बात नहीं '' है। पर श्रीलंका के लिए ? फ़िर इस्रायल , अमेरिका और स्वयम पाकिस्तान के लिए ?इस्रायल ने तो किया । निःसंकोच किया । उसने सिर्फ़ किया सुना नहीं किसी की क्योंकि whi त्वरित निर्णय था । पर क्या ऐसा भारत , पाकिस्तान और अमेरिका ने भी किया ? और सबसे बडी बात तो यह है कि ;''जब पाकिस्तान सरकार को अपना सारा ध्यान आतंकवादियों की कमर तोड़ने में लगाना चाहिए तब वह उनसे समझौता करने , उन्हें रियायतें देने , और उनमें अच्छा- बुरा का भेद करने में लगी हुई है । '' (दैनिक जागरण सम्पादकीय ) । फ़िर मुंबई हमले में तो पाकिस्तान सरकार और उनके हिमायती लोग भारत से पहेचन मांग रहे थे और इंकार कर रहे थे कि हमलावर उनके देश के निवासी नहीं , पर अब कौन सा साबूत चाहिए उन्हें जब यूनुस खान जैसे प्रभावशाली व्यक्ति सम्पूर्ण पाकिस्तान की तरफ़ से श्री खिलाड़ियों की तरफ़ से माफ़ी मांग रहे हैं ?

ज्यादा तो नहीं , क्यों कि जागरण से लेकर अमर उजाला तक , सभी प्रमुख समाचार पत्रिका ,ने वैसे ही कह दिया है , पर आशा करता हूँ कि काश एक बार फ़िर से तसलीमा नसरीन किसी नये '' लज्जा '' की रचना करने में सक्रिय हो जाती तो शायद उन्हें , कम से कम भारत के विरोध में यह ना कहना होता कि '' भारत कोई विच्छिन्न जम्बूद्वीप नहीं है । भारत में यदि विश-फोडे का जन्म होता है , तो उसका दर्द सिर्फ़ भारत को ही नहीं भोगना पड़ेगा , बल्कि वह दर्द समूची दुनिया में , कम से कम पड़ोसी देशों में तो सबसे पहले फ़ैल जाएगा । '' पर अगर दूसरे नजरिये से देखा जाए तो यह दर्द अभी तक तो सिर्फ़ भारत का था , जिस विष - फोडे का जन्म भारत के नहीं पाकिस्तान के भू-गर्भ से हुआ था । वह घुट रहा था ,वह कुढ़ रहा था ,वह चिल्ला रहा था , रो तो नहीं पर चीत्कार कर रहा था कि यह ( आतंकवाद ) एक महामारी है जिसको मैं ही नहीं तुम सब भोगोगे । पर 'सब ' तो मजे ले रहे थे , इस दर्द का , बेचैनी का और इस पीड़ा का , क्यों कि किसी के आचरण में '' लज्जा '' नहीं नहीं आयी जो इस दर्द का एहसास दूसरे पड़ोसी देशों को भी कराती ।

रही बात आतंकवाद के खात्में के संकल्प का तो मई मानता हूँ कि उदयभास्कर जी को '' आतंकवाद की व्यापक चुनौती के सन्दर्भ में आशा की सुनहरी किरण '' दिखाई दे रही है कि '' पूरा उपमहाद्वीप दहशत के सौदागरों से निपटने के लिए एक जुट हो रहा है '' पर अब भी कुछ तो है जो शायद कह रहा है '' धीरे धीरे बोल कोई धुन ना दे '' क्योंकि डर ही तो आतंक है । और मैं तो कहता हूँ '' खुदा करे कि कयामत हो सब ठीक हो जाए । ''

मंगलवार, 3 मार्च 2009

पर थोड़ा उन विद्यार्थियों को देखो , जो उत्तर प्रदेश के बोर्ड-परीक्षा से जुड़े हुए हैं

वैसे तो मार्च का महीना युवाओं के दिल में एक नया रंग लेकर आता है जिस रंग में उनका मन तो प्रफुल्लित हो ही जाता है , तन भी नवरंगी रंगों से सजकर स्वयं में एक नई धुन का संचार करता है । पर थोड़ा उन विद्यार्थियों को देखो , जो उत्तर प्रदेश के बोर्ड परीक्षा से जुड़े हुए हैं और १० वीं ,१२ वीं की परीक्षा में सामिल हो चुके हैं । पता नहीं क्यों , जो मन खुशी दिखना चाहिए , उत्साहित दिखना चाहिए , प्रसन्न दिखना चाहिए , और चाहिए दिखना एक आश्चर्यचकित कर देने वाली जिज्ञासु भावना से पुलकित , जो वास्तव में इस बात को साबित कर दे की " उछल रही जवानियाँ जवान मस्त जा रहे " या " हम युवा हैं देश के हैं हमारे कल सभी " , पर वे बुझे हुए हैं , टूटे हुए हैं , निरुत्साहित , हीन भावना से ग्रसित , खिन्न हैं , भिन्न हैं , स्वयं की प्रकृति से , चित्त से , माता - पिता के आशान्वित प्रवृत्ति से । इससे एक तरफ़ जहाँ वे लूज , लंगडे , और अपाहिज से लग रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ अब भी जब १७-१८ की उम्र में पहुँच चुके हैं , अबोध बालक की तरंह लग रहे हैं जो इस समय भी इस आशा में है कि कोई आए और हाँथ पकडके लिखाए तो हम लिखें । हम सोंच नहीं सकते , हम हम विचार नहीं कर सकते , और ना ही तो कर सकते हैं प्रयास पेपर में आए हुए प्रश्नों का उत्तर देने के लिए यानि कि " बचपन खेल में खोया " और युवापन कब आया इसका कोई एहसास अब भी नहीं है ।
और फ़िर यह समय तो परीक्षा के रंगों से रंगा दिख रहा है । जिसमें अध्यापक , छात्र , परीक्षा-केन्द्र , साशन-व्यवस्था और तो और अविभावक भी स्वयं में विभिन्न प्रकार के रंगों- से लग रहे हैं जो कहीं कहीं अपने रंगीन माहौल से शिक्षा-समाज में इन रंगों के माध्यम से अराजकता फैला रहे हैं तो कहीं कहीं ऐसा शालीनपूर्ण रंग खेल रहे हैं जहाँ समानता के स्तर पर स्वच्छा-फगुवा का निर्वहन करते दिखाई दे रहे हैं । रंग भी खेल रहे हैं ,लगा भी रहे हैं , लगवा भी रहे हैं । एक का एक दूसरे के प्रति कोई विरोध नहीं । अर्थात शाशन-प्रशाशन , छात्र-अध्यापक अविभावक-विद्यार्थी हित रक्षक ( नकल करवाने वाले दलाल ) सबका सबके प्रति पूर्ण समर्थन भाव । यहाँ ' सर फरोसी की तमन्ना ' भी देखी जा रही है तो 'वसुधैव कुटुम्बकम ' की भावना भी । गार्डों के प्रति ' त्वमेव माता च पिता त्वमेव ' की भावना भी विद्यार्थियों में है तो विद्यार्थियों के प्रति ' साडे नाल रहोगे तो ऐस करोगे ;' की सी यारी । कुलमिलाकर भू -मंडलीकरण और वैश्वीकरण की वास्तविक प्रवृत्ति यहाँ के परीक्षाओं में ही दिख रही है और ऐसी स्थितियां भी यहीं दिख रही हैं , इसी उत्तर प्रदेश बोर्ड परीक्षा में विद्यार्थियों को लेकर ' डिप्टी ना कलेक्टर न महाराज बनेगा नक़ल की औलाद है नक़लबाज बनेगा ;' ................. ।

रविवार, 1 मार्च 2009

कारण अकारण

दर्द उठा भीतर कोई

ढूंढ रहा मैं बावला हो

पता ना चला कारण कोई

क्या तार छिटका दिल का कहीं से

या अपने की कोई पुकार आयी

बरस पडी आँखें अचानक

क्या वेदना नें ले ली है अंगडाई

खिन्न मन , टूटी आत्मा, रूठा ह्रदय

अनेको विकल्प उस कारण के

फ़िर भी उलझा मन अकारण

शायद नहीं दिया कुछ भी सुनाई .......... ।

जरूरत एक कुशल न्याय-व्यवस्था की ......

मानव उत्पत्ति हुई विकास हुआ विकास होने से परस्पर ईर्ष्या द्वेष बढे । और परस्पर ईर्ष्या-द्वेष बढ़ने से विभिन्न प्रकार के अपराधों की उत्पत्ति हुई तथा इन अपराधों की वृद्धि से एक बार पुनः मानव समाज विकास की ओर अग्रसारित होने लगा । इन विनाश को रोकने के लिए एक न्याय प्रणाली दायित्व में आई जो काफी हद तक उन अपराधों को रोकने में सफल रही और मानव समाज पुनः विकास गति पर चल सकी ।

लेकिन तब मानव समाज खतरे की लकीर पर डगमगा रहा था और आज ख़ुद वह न्याय व्यवस्था । अतः अगर आज किसी की जरूरत है तो उस न्याय व्यवस्था के न्याय की जो न्याय व्यवस्था को उसके पूर्व स्वरुप पर ला सके । राजधानी दिल्ली की बहु चर्चित प्रियदर्शिनी-हत्याकांड हो या जेसिकालाल - हत्याकांड अथवा कोई अन्य जघन्य अपराध । इन सब मामलो पर आज की न्याय व्यवस्था की गिरती हुई स्थिति को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।

प्रियदर्शिनी , जिसको उसी के ही घर में संतोष सिंह [जो एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का लड़का ] द्वारा हवास का शिकार बनाया गया और हवस पूरी करने के बाद उसकी हत्या कर दी गयी । मामला कोर्ट में पहुँचा । जब बात उसको सजा देने की आयी तवो अदालत के द्वारा यही कहा गया की वह सजा देते हुए भी नहीं दे सकता । आख़िर उस अभियुक्त को सजा लायक समझा गया और अदालत के द्वारा भले ही अभी तक कोई सजा ना निश्चित की गयी हो पर यह तो स्पष्ट है की वह दोषी है और उसको सजा दी जायेगी पर यही कार्य जो अब हुआ उसी समय होता जब न्यायलय द्वारा यह कहा गया था की हम सजा देते हुए भी नहीं दे सकते तो न्याय व्यवस्था की गरिमा कुछ और ही होती । अब इस बात के खोखले धिधोरे पीते जा रहे है कि न्यायलय की जीत हुई ।

ये तो प्रिदार्शिनी - हत्याकांड का सौभाग्य था जो मीडिया की छाया मिली और मीडिया ने इस मामले को उछाल कर उन जगहों तक पहुँचाया जहाँ से उसे न्याय प्राप्त हो सकी। पर क्या ऐसी भी सोंच कभी विकसित की गयी है कि जहाँ पर ये मीडिया नहीं पहुँच पति उनका क्या होता होगा ? प्रियदर्शिनी और जेसिका जैसी लाखों मामले , बलात्कार , हत्या,फरेब , शोषण आदि के ऐसे होंगे जो न्याय के लिए अब भी न्यायलय के दरवाजे खटकता रहे हैं जबकि वे उतने ही पुराने हैं जितना कि प्रियदर्शिनी हत्याकांड । ये इसलिए हैं क्योंकि शायद इनको मीडिया की छाया नहीं मिली और न्याय व्यवस्था में या तो इनके समस्याओं को सुना ही नहीं जा रहा है और यदि सुना भी जा रहा है तो उसे एक कागजी कार्यवाही समझकर कोरम मात्र पूरा कर दिया जा रहा है । जो न्याय व्यवस्था जैसी पवित्र संस्था के लिए एक सर्मनाक बात है ।

अतः इसमें कोई दोराय नहीं है कि वर्तमान समय में न्याय व्यवस्था ख़ुद अपने साख के धरातल पर डगमगाता नजर आ रहा है जिसे पुनः विश्वास पथ पर लाने के लिए आज एक कुशल न्याय प्रणाली की आवश्यकता है । वो न्याय प्रणाली जो हरेक अपराध को एक अपराध समझते हुए बगैर किसी के हस्तक्षेप के शीघ्रताशीघ्र अपना निर्णय सुना सके जिनसे किसी को ये कहने का अवसर ना मिले कि हमारी न्याय प्रणाली लचीली है अथवा वह अपने कर्तव्य पथ से विमुख हो गयी है ( प्रियदर्शिनी हत्याकांड और जेसिकालाल हत्याकांड के फैसले के समय लिखा गया एक पुराना लेख ) ............. ।

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

पर क्या कभी उस माँ के भी व्यक्तिगत दर्द को समझने की कोशिश हमारा यह समाज और हमारी यह मीडिया करती है ......?

अभी चलेगा । और चलेगा यह तांडव । तब तक जब तक कि इस समाज का शिक्षित और धनिक वर्ग लोभ लिप्सा को चरम गति तक ना पहुँचा देंगे । तब तक कन्या भ्रूण हत्या होता रहेगा । आज पंजाब में , दिल्ली में, हरियाणा में तो कल दूसरे अन्य राज्यों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश ,बिहार, उडीषा और महाराष्ट्र में । दरअसल यह जहाँ अभी तक सिर्फ़ अपराध के रूप में समझा जाता रहा है वहां इसके लिए कानून बनाये जाते रहे हैं । और समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग , चाहे कानून के दंड व्यवस्था के डर से या फिर आबकारी अफसरों की सक्रियता की वजह से , इस अपराध से किनारा कर लिया अथवा व्यक्तिगत लिप्तता को कम कर लिया । पर ज्ञातव्य है कि अभी तक ऐसा कुछ कुछेक जगहों पर हुआ है जबकि अन्य जगह ऐसे अपराध को ना सिर्फ़ मान्यता दी जा रही है अपितु स्वेक्षा से निरापराध अपनाया जा रहा है। क्योंकि शायद यह उनके लिए अपराध नहीं प्रत्युत उनकी अपनी मजबूरी है ।
कन्या भ्रूण हत्या में लिप्त एक डाक्टर दिल्ली ,जो कि भारत की राजधानी है , में रेंज हाथों पकड़ा गया, ऐसा दैनिक समाचार में पढनें को मिला ,मनाता हूँ मैं कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था । वह शिक्षित था । वह धनाढ्य था । वह सबसे पहले सामजिक व्यक्ति था । धनालोभ में इस तरह मानवीयता की न्रिसंस हत्या नहीं करनी थी उसे । जब वह ही ऐसा करता है तो अशिक्षित और अनपढ़ लोग कैसा व्यवहार करेंगे ? पर क्या कभी उस मान के भी व्यक्तिगत दर्द को समझने की कोशिश हमारा यह समाज और हमारी यह मीडिया करती है ? क्या कभी ये पूछने की चेष्टा किसी ने की कि वह सिर्फ़ पुत्री को ही क्यों मरना चाहती है ? क्यों अपने भ्रूण में पल रहे उस भ्रूण को इसलिए गिरवा रही है कि वह लड़का नहीं लड़की है ? शायद नहीं ? क्योंकि ऐसा पूछने में बहुत गहरे में जिस जवाब की आशा उस माँ को होगी वैसा ना तो हमारे समाज के पास है और ना ही तो इन मीडिया वालों के पास अथवा विधि निर्माताओं के पास ।
जबकि जमीनी हकीकत यह है कि जो शिक्षित है, जो धनवान है वह प्रायः ऐसा अपराध नहीं करता क्योंकि चाहे वह लड़का हो या लड़की हो उसके लिए दोनों ही बराबर होते हैं । कमाता लड़का भी है लड़की भी है । जीवन उसका भी है , उसकी भी है । यह बात धनाढ्य और शिक्षित माता - पिता को अच्छी तरह मालुम होती है । क्योंकि उनके पास होता ही इतना सब कुछ है कि वह उनकी परिवरिश , शादी-व्याह आदि बड़े मजे से कर सकते हैं । पर क्या ऐसा उसको भी नसीब है जिनके पास ना तो खाने को रोटी है और ना ही तो तन ढकने का कपड़ा । और ऐसी स्थिति में यदि वो उस बेटी को जन्म भी देती है तो किस आधार पर पलेगी ? चलो किसी तरंह पाल भी लिया । नौकरी किया । बर्तन माजा । बेगारी की । पर जब १६-२० साल की वह पुत्री हो जाए तब ...... कहाँ से लाये वह इस महगाई में एक लाख रुपये दहेज़ देने के लिए और शादी करने के लिए ? फ़िर , फ़िर क्या यहीं से सुरु होती है भ्रूण हत्या की कहानी । जैसा कि प्रेम रोग , ऋषि कपूर द्वारा अभिनीत फ़िल्म में राधा की सहेली और उसकी बहन का व्याह एक बुजुर्ग और गंजे के साथ कर दिया जाता है कि वह गरीब घर की लड़की थी और उसे अधिकार नहीं है अधिकार है भी तो क्षमता नहीं है अपने मनपसंद के वर को चुनने के लिए ।
रही बात सरकारी महकमे की तो मुलायम सिंह , पूर्व मुख्या मंत्री, उ प्र, का +२ पास लड़कियों के लिए २०००० का पैकेज किसी से छुपा नहीं है , जिसको पानें के लिए कितने अविभावक बैंकों के चक्कर काटते रहे और कितने स्कूलों में सलामी देते रहे । रही बात कुमारी मायावती , मुख्या मंत्री , उ प्र , के "महामाया बालिका आशीर्वाद " योजना तो उसकी परिणत भी संतोष जनक स्थिति में होगी कहा नहीं जा सकता ।

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

यदि मनुष्य दीवाल है जिसे कोई हटा नहीं सकता तो भाषा एक नींव है जिसे हटाने के प्रयास में दीवाल को ही जाना है ......

कुछ बातें ऐसी होती हैं जो पास होते हुए भी अपनी उपस्थिति नहीं बतला पाती हैं । पर कुछ तो ऐसी होती हैं जो कहीं पर वर्णित या यों कहें की किसी व्यक्तित्व द्वारा कथित अथवा एक विचारणीय अवस्था में उत्पादित होकर भी हमें और हमारी आत्मीयता को अन्दर तक झकझोर डालती है। इतना ही नहीं ये ऐसी स्थित पर चले जानें के लिए मजबूर कर देती हैं जहाँ पर उस विवेच्य विषय से सम्बंधित चिंतन कराने और एक आवश्यक सोच विकसित करने के अलावा हमारे पास कुछ बचता ही नहीं है हालांकि हम ऐसा नहीं चाहते । ख़ुद को एक ऐसे विषय के प्रति समर्पित करना , जहाँ वह या तो अपने जीवन के अंत पर हो अथवा उसका स्तित्व हाशिये पर हो । पर ऐसे समय में जब वह अपने स्तित्व के लिए , स्वयम मैदान पर आ गया हो तब और खासकर उस समय में जब उसके विरोधी ख़ुद हो रहे हो , समर्पित करना एक सुखद आनंद ही हो सकता है ।

आनंद दुःख की उपस्थिति में ही प्राप्त किया जा सकता है और दुःख प्रायः सुख के अवसान पर । इन दोनों की उत्पत्ति शायद एक दूसरे की उपस्थिति में संभव हो पर द्वंद्व तो तभी होता है जब दोनों आमने सामने हों । एक दूसरे को ललकार रहा हो और दूसरा उसका सामना करनें के लिए उत्प्लावित हो । पर स्थिति तो वही है । भाषा और मानव । दो विरोधी । दोनों ही सामान अवस्था में , एक ही मैदान पर । एक दूसरे के आमने सामने , एक दूसरे पर दूसरा दूसरे पर निर्भर । सोचने का विषय यहाँ पर ये नहीं है , अंग्रेजी फिल्मों की तरंह की मनुष्य मशीनी मानव का निर्माण ख़ुद और स्वयं अपने हाथों से करता है अपने दुश्मनों क सफाया करने के लिए , पर बाद में वही मशीनी मानव सम्पूर्ण इंसानी जाती के लिए खतरा बन जाता है । और अंत में मानव ही उसके स्तित्व को ख़त्म कर स्वयं के स्तित्व को बचाता है ।

और क्योंकि ऐसा समझा जाय की भाषा का निर्माण मनुष्य नें किया , अपने बौद्धिक स्तर को विकसित करने के लिए तो ना ही तो ये वास्तविक है और ना ही तो तर्कसंगत । मनुष्य ने भाषा के ऊपर यदि कोई उपकार किया तो सिर्फ़ वही जो प्रकृति ने मनुष्य के प्रति । यदि कोई ये कही की प्रकृति नें मनुष्य को संवारा तो हम ये दावा के साथ कह सकते है की भाषा ने मनुष्य को एक ऐसा आधार प्रदान किया जिसके माध्यम से मानव और प्रकृति के बीच संवादात्मक व्यवस्था का जन्म हुआ । और ऐसी स्थिति में फ़िल्म HISTORICAL TRUTH को याद किया जाय की मशीनी मनुष्य को ख़त्म करके इंसानी मानव अपने स्तित्व को बचाया तो निश्चय ही अब वह समय दूर नहीं जब , और क्योंकि प्रकृति मानव के हाथों जा रही है और मानव स्तित्वा को भाषा ख़तम कर देगी । क्योंकि भाषा अमर और शाश्वत है । यदि ये कहा जाय की मनुष्य दीवाल है जिसे कोई हटा नहीं सकता तो यह भी सत्य है की भाषा एक नींव है जिसे हटाने के प्रयास में दीवाल को ही जाना है ।

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

गाँव की हशीन वादियों में बस जीता जा रहा हूँ ....

कहाँ क्या हो रहा घाट रहा क्या राज में

कौन कैसे जी रहा क्या होने वाला समाज में

नहीं पता मुझे कुछ भी सब भूलता जा रहा हूँ

गाँव की हशीन वादियों में बस जीता जा रहा हूँ

सुनता हूँ कुछ घटनाएं , अचरज सा कुछ होता है

जगाता हुआ हृदय फ़िर भी मौन होके सोता है

चिल्लाता है रो ज़माना सुनता जा रहा हूँ

गाँव की हशीन वादियों में बस जीता जा रहा हूँ

है सुख का समुन्दर दुःख कहीं यहाँ पर नहीं

वहीं खड़ी मुशीबत पर है कोई डर नहीं

परसानियां है कुछ परिवारी निपटाता जा रहा हूँ

गाँव की हशीन वादियों में बस जीता जा रहा हूँ

आंटा है, ख़तम चावल , झगडा भाभी नें किया

खाया नहीं भइया , डाटा, भाभी नहीं माता ने रो दिया

छोटी हैं ये समस्यायें पर विश्व से जोड़ता जा रहा हूँ

गाँव की हशीन वादियों में बस जीता जा रहा हूँ ॥

कहता हूँ कुछ कहनें ही दो ...........

रोता हूँ रोने ही दो
खोता हूँ खोने ही दो
ना दे सको ऐ दुनिया वालो
कहता हूँ कुछ कहने ही दो

रोटी की कमी रहती है मुझे
पानी की किल्लत यहाँ नहीं
है मुशीबतें इफराद मेरी दुनिया में
चाहिए मुझे क्या और भला
इस दुनिया में ही रहनें दो

आंखों में आंसू आशाओं के
चाहती हैं आज ही बह जाना
चाहिए नहीं तुम्हारी वह सुख की दुनिया
कृपा करो और ,
निराशाओं में ही मुझको पालनें दो

पलने दो भूखे प्यासे
गम नहीं आंधी तूफ़ान से
रेह धूल दूब माटी है
काँटों की झुरमुट और मकरी की जाली
दीवाल ईंट की नहीं तो क्या
झुरमुट में ही जीनें दो ॥

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

गया चला वह शाल पुराना इन नये दिनों की शान बनो

सत्ता पर काबिज पूज्य जनों

फूलो फलो और महान बनो

गया चला वह साल पुराना

इन नये दिनों की शान बनो

क्या हुआ मुम्बई काँप गयी तो

सब सैन्य व्यवस्था हांफ गयी तो

शाशन की गीला गपाली में

दुनिया कमजोरी भांप गयी तो

लथपथ खून से यह धरती

वरण पाप मार्ग को करती

पढ़ते पढ़ते नैतिकता की नियमावली

मानवीयता सारी चिग्घाड़ उठी तो

यह मान चलो तुम बहरे हो

अब हम अनधन की जान बनो ।।

ऐसा भी तुम पहले हमलो में

कुछ और नया क्या करते थे

मरते थे सिपाही गोली खाकर

ख़ुद होटल में बैठ डकारते थे

हाँ , पहुंचते दूसरे देशों में

उबले हुए बेजान आवेशों में

वाद-विवाद कर आतंकवाद पर

झूठी सांत्वना दंगा फसाद पर

अच्छा तुम्हारे एजेंडे में नहीं तो

बुरे कर्तव्यों की पहचान बनो । ।

वर्षांत पर हम करते हैं प्रण

देश की खातिर तन-मन -धन अर्पण

करेगा दुह्साहस गर कभी आतंकी मन

तो जाग उठेगा सारा विश्व संगठन

जगंह जगंह से चीत्कार उठेगा

हिंदुस्तान हुंकार भरेगा

जल उठेगा सारा पाकिस्तान

करते हैं हम फ़िर से आह्वान

पहले आह्वान से देश बटा था

अब विश्व बँटवारे का संधान बनो ।।

बनो बनो कुछ और बनो

इतने से क्या काम चलेगा

उगता सूरज डूबेगा नहीं तो

कैसे नया चाँद निकलेगा

तब तो हिंदू-मुस्लिम जड़ थी

उस पर सबकी गहरी पकड थी

जिधर भी देखो नारे लगे थे

जगंह जगंह हत्यारे खड़े थे

गांधी - शास्त्री तो बन न सकोगे

जिन्नाह - जवाहरलाल बनो

गया चला वह साल पुराना

इन नये दिनों की शान बनो ।।