शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

अभी अभी छूटा था माँ का आँचल
दोस्तों का साथ तो मानो भूला भी ना था
चलता था मेड़ पर तो पैर डगमगाते थे
सच , चड्ढी का नाड़ा बांधना भी तो नहीं सीखा था
उठा हाथ पिता का तो मानों मैं बड़ा हो गया ॥
दिन दिन महीने महीने रेघता एक कपड़े के लिए
जूते तो स्वप्न ही हो गए थे
थे चप्पल हवाई, चमड़े के नशीब होते कभी
स्यूटर एक , सना रेह और धूल से
जरूरत पड़ी कोट की तो मानों मै बड़ा हो गया ।।
दो टाफी , बिस्कुट , चीनी साथ गुड भी मिलते
घंटों मांगते , मिलते , बुझे चेहरे खिलते
पर पड़ते जब थप्पड़ आंसू रोके ना रुकते
दो चार रुपये , बडे आते , मिलते कभी कभी
माँगा जब सौ तो मानो मैं बड़ा हो गया ॥
बड़ा हो गया अब तो छोटों का नमो निशा ना रहा
क्या क्या सुनाऊं सब कुछ तो गुनाह हो गया
सहा हर वह कुछ जो बडो नें किया , फ़िर भी
गलत रहा हो या सही , एक नीतिवादी बनकर
जरूरत पड़ी बोलने की तो मानों मैं बड़ा हो गया ॥
छीन गया अधिकार सब , टूटी थाली छूटी कलम
भटकने लगा दर दर मिला हर जगह वही गम
ना कोई किनारा , ना कोई सहारा , भटकता गलियों में बिचारा
हर चाहने वालों नें पुकारा अब अपने पैरों खड़ा हो गया
फिसला जब ,माँगा सहारा तो मानों मैं बड़ा हो गया ॥
भटक रहा हूँ भटकने दो , दो ना सहारा
पर कृपा करके कहो ना मैं बड़ा हो गया
टूटी थाली छूटा कलम तो क्या हुआ , हौसले हैं अभी
अभी तो कली हूँ , कौन सा तबसे बुरा हो गया
छोटा रहना ही करूंगा पसंद ना कहो की मैं बड़ा हो गया ॥

अच्छा तो हमें नशीब नहीं बुरा ही बस बनते चलो ...


दोस्त तुम घटे चलो यार तुम मिटे चलो


अयोग्यता का प्रचार हो विद्वता का संघार हो


ना आएगी कुसमय कभी ये न होगी दुर्दशा कभी ये


निर्माण से विनाश पथ पर ऐ यार तुम डटे चलो ॥




संसार है पलट रहा हर द्वार है उलट रहा


पहले जहा तरु-पत्तियां , अब धूल ही उचट रहा


क्या पेड़ तुम लगाओगे , व्यर्थ समय यूँ गवाओगे


जो तालाब हैं कुवा खुदे , उन्हें भी बस पटे चलो ॥




कटे चलो परिवार से आचार से व्यवहार से


ना पित्रि से ना मात से सम्बन्ध हो बस स्वार्थ से


बनाए जो पूर्वज , सभी मिटाओ तुम अभी अभी


है सभ्यता तो पश्चिमी ना भारतीयता लखो ॥




उठो उठो उठो सभी हुंकार लो अंधकार हो


किसी तरंह कलयुग का अभी अभी उद्धार हो


जहाँ को है भूनना उठा लो तुम हथियार को


मनुजता को ना सोचो बस पशुता पर अड़े चलो ॥




बढ़े चलो बढ़े चलो विनाश दूर अब नहीं


शीलता और दीनता तो जिन्दा ही नहीं कहीं


कहीं कहीं जो थोड़ी सी इमान है बची अभी


उसे भी क्रूर अशिष्टता से दमित तुम करते चलो ॥




चलो चलो चलो चलो , जागो , सभी चलते चलो


कतराए जो चलनें से यूँ , उसे भी कुचलते चलो


क्या पता कब तक रहो , मृत्यु आज ना कि कल ही हो


अच्छा तो हमें नशीब नहीं बुरा ही बस बनते चलो ...........................,, ॥

हम जूझ रहे हैं ...........


घूम रहे हैं आज हम


बेसुर, बेताल और बिना किसी कारण के


हम घूम रहे हैं


कहीं जनता की खीझ है


एक , एक दूसरे के ऊपर टूट रहा


पछाड़ने के चक्कर में ,


तेज रफ्तार से


गिरते लड़खड़ाते कूद रहा


तो कहीं गाड़ियों की कर्कश आवाज


यहीं कहीं


रिक्शेवान की चलती सांसे हैं


चपटे गाल और चिपके पेट


कई अनबूझ सवालों को बूझ रहे हैं


और हम जूझ रहे हैं


अपने ही मन की उदासी से


हैरत में है ये लोगो को देखकर


जनता की भेड़चाल पर


गाड़ियों की बड़ी बड़ी कतार पर


रिक्शे वाले के अनूठे व्यवहार पर


खुशी हैं वे अपनें अपनें आचार पर


फ़िर भी नाहक ही


अनेक तरीके जीनें के


आज हमको सूझ रहे हैं


लगातार उन तरीकों से


ऐसा लग रहा है


हम जूझ रहे हैं ....................... ।

रविवार, 31 अगस्त 2008

यदि पत्ते ना होते तो ऐसा कुछ भी ना होता......ये जड़ भी काट दिए गए होते .....(पत्र )

पूज्यनीय ,

माता जी सादर चरण छू प्रणाम । कैसी हो ? मैं तो खुश हूँ इसी से आपके लिए भी आशा करता हूँ की खुश ही होंगी । पर क्या आपको पता है कि दुःख और विपदा ये दोनों ही उस खुशी के एक अभिन्न अंग हैं । जिस खुशी में हम जी रहे हैं । आप जी रही हैं । और और लोग जी रहे हैं । संसार जी रहा है । कोई ऊंचे पद पर है तो जी रहा है कोई सड़कों पर टहल रहा है तो भी जी रहा है । सिर्फ़ जी रहा है । उठा रहा है आनंद । मानव जीवन का नहीं बल्कि इस बात का कि जीवन एक संघर्ष है । संघर्ष ही जीवन है । इसमें से किसी एक की भी भागीदारी ना मात्र होनें से मानव जीवन जीवन नहीं रह जाता वह पशुतर हो जाता है ।

माता जी ! वहाँ पर ना तो शायद इतनी जोर हवा चल रही होगी और ना ही तो इतनी ठंडी होगी , पर यहाँ पर आर हवा तेज चल रही है । बहुत तेज । वह रह रह कर कुछ कह रही है । शायद वह मुझे भी ले जाना चाहती है अपनें साथ ; पर कहाँ ? ये नही पता । आपके पास । आपके चरणों में । या इन सब से बहुत दूर । आज मन बहुत घबडा रहा है इन हवा के झोकाओं से । जिस तरंह से ये पत्ते आपस में लड़ कर एक दूसरे के विरुद्ध द्वंद्व का संदेश दे रहे हैं , एक दूसरे के विरोध में फडफड़ा रहे हैं , उसी तरंह से मेरे मन की अंतर्क्रिया भी फडफडा रही है । फ़िर इन पत्तों को देखो ! कितने मजबूर हैं बेचारे । फडफड़ा रहे हैं । कलह झेल रहे हैं । पर ना तो कहीं जा रहे हैं और ना ही तो कुछ कर पा रहे हैं । सामर्थ्य है । शक्ति है । क्षमता है । पर शायद ये इसलिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं कि क्योंकि ये अबभी उस पेड़ के आसरे है जो खड़ा होकर इनको एक आधार दिया है फड़फड़ाने के लिए । एक सहारा दिया है झूमनें के लिए । पर एक सहारा ही तो दिया है ? मैं मानता हूँ कि इसके सहारा देनें से वह हर है आज मुस्कुरा रहा है । खा खाकर झूम रहा है । उधर से इधर इधर से उधर एक दूसरे का संदेसा पहुँचा रहा है । पर यदि आज ये पत्ता ना होता तो क्या इस जड़ का अपना कोई स्तित्व था ? क्या इस जड़ को लोग ऐसे ही खड़ा रहने देते ? या फ़िर ये कि इसके आरी बगल लोग आकर बैठते , जिस तरंह से गर्मियों के मौसम में लोग आया करते हैं ? बैठा करते हैं । बातें करते हैं ? यदि पत्ते ना होते तो ऐसा कुछ न होता , बल्कि अब तक ये जड़ भी काट दिए गए होते । या तो इनका उपयोग चूल्हे और भट्ठियों में हो जाता या तो फ़िर कोई कीवाड़ या खिड़की वगैरह के रूप में परिवर्तित हो गया होता ।

आख़िर जीवन क्या है ? दो दिलों की अभिव्यक्ति ही तो है ना ? क्या बगैर दो के कोई किसी का जीवन संभव है क्या ? यदि ऐसा होता ही तो क्यों फ़िर होते ये रिश्ते नाते और क्यों होता ये समाज । फ़िर तो ये धरती ये मृत्यु लोक , जहाँ पर आनें के लिए देवता लोग भी तरसा करते हैं , जिसकी समरसता और संबंधता को चरों युगों में सर्वश्रेष्ठ और महान समझ गया यों ही नष्ट हो कर रह जाती ना तो किसी के कर्तव्य होते ना ही तो किसी के अधिकार । ......

जीता आया जीवन क्या जीनें के लिए ही ............

पूछता हूँ कभी कभी आत्मीयता से उठकर

ज्यों छोटा बच्चा पूछता है बड़ों से हुडुककर

क्या जीवन बना है बस जीने के लिए ही

जीता आया जीवन क्या जीनें के लिए ही

रख उम्मीदे फ़िर दिल में सोचता हूँ मैं

अभी तो दिन बहुत से हैं सवरने के लिए

छोटा था , चलना , पढ़ना ,सीखा समझना किसी को

बीत जायेगी उम्र यूँ , क्या सीखनें के लिए ही ........ ।

शनिवार, 30 अगस्त 2008

यदि आदि तुझसे है तो अंत भी तुझी से है .......


इस समय मुझे ये नहीं पता की तूं खाना खा रही है या सोनें की तयारी कर रही है अथवा गाय के साथ लुका छिपी खेल रही है क्योंकि रात्रि के ९ बज गए है और रेडियो के "माइ ऍफ़ एम् " पर चांदनी रातें" कार्यक्रम सुरु हो गया है। इस चैनल पर प्रायः पुरानें गीत ही अधिक आया करते है इसलिए पुरानी बातों का स्मरण होना आवश्यक हो जाता है ,और पता है यही बस कि अब मैं खाना खा चुका हूँ , समय पढनें का पर अतीत के सुंदर वातावरण में पहुँच कर , पुरानीं यातनाओं की बेसुरी श्रृंखलाओं को जोडनें मे लग गया हूँ । इस समय एक एक बातें अकारण ही चेतन स्मृति में आकर परेशान सी कर दे रही हैं । जिसमें तेरे साथ बिताये गए कुछ समय तो याद आ ही रहे हैं तुझसे दूर होनें के कुछ असार्थक पहलू भी सामनें आकर खड़े हो गए हैं । कहना न होगा माते कि ऐसी स्थिति में मैं आज क्या हूँ , कैसे हूँ पर जैसे भी हूँ एक असहाय , मजबूर और अपाहिज उस रोगी की तरंह जिसके पास हर वो सुविधाएं हों जो प्रायः एक व्यक्ति के पास होनी चाहिए पर क्योंकि वह रोगी है और चिंता उसे बस रोगी होनें की ही सता रही हो , जिसे ना तो वो किसी को बता सकता हो ना दिखा सकता हो और ना कर सकता हो व्यक्त अपनीं व्यथाओं को, उनके पास भी जो प्रायः उसके उस दुःख को समझ सकते हों । क्योंकि उस रोगी को शायद यह बात बहोत गहरे में साल रही हो कि अगर वह कहेगा किसी से तो अगला यही समझेगा कि कहीं यह मुझसे कोई सहायता ना मांग ले । और क्योंकि वे समझते भी यही हैं कि वह तो रोगी ही है वर्तमान तो उसका ठीक है ही नहीं , भविष्य भी कैसा होगा और ऐसी स्थिति में व्यथा और वेदना को छोड़कर वह दे ही क्या सकता है । जबकि बात यह भी बहोत हद तक सहीं हो सकती है कि वह रोगी न तो उन्हीं मानसिक रूप से परेशान करनें की सोंचा हो और ना ही तो शारीरिक और आर्थिक सहायता की कोई आशा लिए हो, पर की हों अपेक्षाएं इस बात की कि भले हैं लोग , अच्छे हैं लोग , और हैं मिलनसार अगर इनसे प्रेम की दो बातें की जायें , इनके दुःख को सुना और अपनी खुशियों को इनसे बताया जाय तो एकांतिक नीरवता सामूहिक प्रेम के वातावरण में परिवर्तित हो सकती है । पर उसकी इन अपेक्षाओं को होना पड़ता है दमित वैसे लोगों की उपेक्षाओं से , जो प्रायः स्वस्थ हैं । पर बहरहाल , ये हमारी स्थिति है और क्योंकि परिस्थितियाँ हैं मेहरबान तो हो क्या सकता है इसका अंदाजा तो सहज ही सहजता के साथ लाया जा सकता है । पर मुझे पता है कि अब तेरी ये स्थिति नहीं होगी । तूं सो रही होगी तो लोग आते होंगे बुलानें के लिए कि चलो अम्मा खाना खा लो तैयार हो गया है ! तूं सोनें के लिए जाती होगी तो पीछे पीछे "महासुगंधित" का तेल लिए भाभी जी पहुंचती होंगी और जमके घंटों तक सेवा करती होंगी । रोज ही तुझे अब आधा एक किलो दूध मिलता होगा और 'दावा के लिए कोई परेसनिं प्रायः नहीं होती होगी । इतना ही नहीं माते , तूं तो अब कपडे भी नहीं धोती होगी ? कौन कहे बर्तन माजनें और धोनें की तू तो चूल्हे के सामनें भी जाती नहीं होगी अच्छा है माते तूं सुखी है । कुशी हूँ मैं कि तुझे सुख देनें वालों की संख्या दुःख देनें वालों से ज्यादा है । पर माते दुःख तो यही है रे!कि कहीं तूं - कहीं तूं उस सुख के वातावरण में रहकर इस दुखिया के कुतिया का परित्याग ना कर दे । क्योंकि जितना दुःख तुझको मेरी दुनिया में मिला उतना तो शायद तूं कभी पाई होगी । दुःख इस बात का भी होता है कि यहाँ मैं तुझे दुःख और आंसू के सिवा कुछ भी दे नहीं सका जबकि लायक था मैं सब कुछ करनें के । सुबह-सुबह ४-५ बजे उठकर ठंडी में बर्तन माजना और आठ बजे तक खाना तैयार कर देना जहाँ मुझे गुस्सा दिलाता था वहीं तेरे न्हानें के समय एक बाल्टी पानी ना भर पाना और तेरे कपडों को साफ करनें बजाय अपनें कपडे तुझसे साफ करवाना अथवा खानें के लिए ठीक तरंह से भोजन , चाय के लिए दूध, दवा के लिए दूध ,और सोनें के लिए एक तक्थे और खात की व्यवस्था ना कर पाना मुझे रोने के लिए मजबूर कर देता था । फ़िर भी खुशी होता था टैब जब तुझे और तेरे हंसते हुए चहरे को थोड़े समय तक देखता था । मेरे लिए भले ही कुछ न हो पर तेरे लिए जब कुछ लाता था तो खुशियों का ठिकाना नहीं रहता था और गर्व होता था मुझे कि जो काम पैसा कमाते हुए हमसे बडे भी न कर पाए ,उसे मैं कर रहा हूँ । पर मन यहीं शंकित हो जाता है , हल्का हो जाता है ,कमजोर हो जाता है, और हो जाता है विवास कि क्या तूं फ़िर कभी अब ऐसा दुःख सहनें के लिए मेरे पास आएगी । नहीं आएगी ना ?सही है नहीं आएगी । क्योंकि मुझ रोगी के पास , मुझ कमबख्त के पास है ही आख़िर क्या ? वही गम,दुःख,वेदना जो दो आंसू के सिवा अगर कुछ दे भी सकता है तो सांत्वना बस इस बात की कि "माता जी तुम मेरे पास ही रहना । कमाऊँगा , खिलाऊंगा । पर बहोत हद तक दुःख के पलों को गुजारकर तूं फ़िर चली जायेगी । अभी तो भला फोन पर बातें करना ही कम की है । हल चल पूंछना ही कम की है पर शायद इस बार जायेगी तो एकदम से भूल ही जायेगी । पर नहीं करना माते तूं ऐसा मत करना तूं वहीं उसी सुख के सागर में रह , मुझे कोई परेशानी नहीं है । तेरे हंसते हुए दो बोल या हमारे दसा के सम्बंध में बहाए गए तेरे दो आंसू , मुस्कुराते हुए चहरे पर हंसते हुए सफ़ेद बल के समूह की कल्पनात्मक सुख से ही हम जी लिया करेंगे । पर यह जानकर कि तूं यद् करना छोड़ चुकी है , भूल चुकी है मुझे , निकाल चुकी है अपनी ममता से , वास्तव में माता जी सबसे दुखद दिन होगा मेरे लिए । लोगों के पास अपनें सुख दुःख सुनानें के पर्याप्त पर्याय है पर मेरे लिए तो उन पर्याय के प्रस्तुति में भी तेरी उपस्थिति आवश्यक है क्योंकि तूं तो ऐसी निधि है जिसका पर्याय तो अभी तक जन्म ही नहीं । और विश्वास है मुझे अपने आप पर कि ना ही तो कभी जन्मेंगा । क्योंकि माते यदि आदि तुझसे है तो अंत भी तुझी से है ।अंत में अगर कहा जाय तो सच में तूं ही वह महँ विभूति है जो हर रोगी के दुःख और सुख को समझती है या अनुभव कर सकती है । एक तूं ही है जो एक रोगी को लेकर रात भर अस्पताल में आंसू बहा सकती है या ५०० किलोमीटर की यात्रा कर सकती है ............ ।

शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

रोजी रोटी और नैतिकता के आगे भी एक समस्या होती है ....

आज कई दिनों से मैं परेशान हूँ । घर की आतंरिक माहौल या पढ़ाई की समस्या अथवा दो रोटी मिलनें की चिंता या फ़िर ये कहें कि आर्थिक तंगी , सामान्यतः लोग इन्हीं को समस्या का प्रथम कारक सिद्ध करते हैं पर इसके आगे भी एक समस्या होती है जो कहनें को तो तब मानव-मष्तिष्क में प्रवेश करती है जब व्यक्ति अपनें युवावस्था में प्रवेश करता है , लेकिन यदि वाश्तविकता समझनें की कोशिश की जाय तो यह बालकपनसे ही जब हम ४-५वीं में पढ़ रहे होते हैं , हमारे अंदर प्रवेश करनें लगती है । और वह है सेक्स, काम-वासना । आज तो इसने मुझे दुखित ही कर दिया । दिक्कत की बात तो ये है कि मैं जहाँ भी गया संभवतः इस काम-वासना से बचने की कोशिश करता रहा पर वासना है कि माना ही नहीं । अख़बार उठाया , मल्लिका शेरावत और बिपासा बसु नें रिझाया। पत्रिका उठाया एक बेहूदा किस्म का पोस्टर ना सिर्फ़ कल्पना करनें के लिए मजबूर कर दिया अपितु रस्ते में जाते हुए " परदे में रहनें दो " फ़िल्म के साथ ख़ुद को अनावरण होनें के लिए बेबस कर दिया । घर में टीबी चनल खोला , एक साधारण सा धारावाहिक आ रहा था , मन उस समय तक शांत हो गया था पर अचानक ही एक २२ वर्षीय किशोर का २० वर्षीय नवयुवती को उठाकर चुम्बन लेना और उसका उसके बाँहों में कसमसाना फ़िर से मुझे उसी वातावरण में ला धकेला । अब तक मैं अपनें आप को असंतुलित पा रहा था , परीक्षा का समय कोई इधर उधर की हरकत भी नहीं कर सकता था क्योंकि सबसे बड़ी दिक्कत तो स्मृति-दशा को एक संतुलित अवस्था प्रदान करना था ।
ऐसे में अगर मेरे पास कोई चारा बचा था ख़ुद को वासना से बचानें के लिए तो एक मात्र , साहित्य-संसार। वस्तुतः यह एक ऐसी दुनिया है जिसमें वासना नहीं है , कुंठा नहीं है , शारीरिक प्यास नहीं है और नहीं है दो जोशीले जिस्म के टकरानें की चाह ,ऐसी धारणा प्रायः हमारी थी क्योंकि ये भ्रम कई दिनों पहिले ही हमारे मष्तिष्क में विद्यमान थी कि , साहित्य में तो हमारे उन कर्मठ पुरुषों की वाणी रहती होगी जो भारतीय संस्कृति के संवाहक हैं , पर जैसे ही हमनें एक पुस्तक उठाई , मुंह खुला का खुला रह गया , हाँथ थर्थरानें लगा , शरीर तो ऐसा बेकाबू हो गया जैसे मानों कोई अंदर प्रवेश करनें लगा हो और क्यों कि समाहित ना हो पा रहा हो तड़प उठा और बौखला उठा । मैं " सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक "(सुरेन्द्र वर्मा का नाटक ), डॉ मिथिलेश गुप्ता की समीक्षा "विवाह के पाँच वर्ष तक कुंवारी रहनें के बाद संतान प्राप्ति के लिए जिस पर -पुरूष के पास भेजा जाता है तो सारे शील छोड़कर उसके भीतर की नारी भड़क उठती है और पति है नारीत्व की सार्थकता मातृत्व में नहीं, महामात्म्य है केवल पुरूष के सम्भोग के सुख में । " पढ़कर उठनें लगा मन में तरह तरह के सवाल । स्त्री का विवाह के बाद कुंवारी रहना , दूसरे पुरूष के पास भेजा जाना और उसके पास पहुंचकर , उसके नारीत्व का जागना आख़िर ये सब क्या है ? क्यों वह पुरूष के सम्भोग सुख से ही नारीत्व को प्राप्त हुई ? यह सम्भोग क्या होता है ?कैसे होता है , क्या जब स्त्री - पुरूष अकेले में मिलते है , एक दूसरे के बाँहों में झूमते हुए कसमसाते है या कल जो मैं दैनिक भास्कर पढा था , जिसमें एक व्यक्ति ६ वर्ष की लड़की का बलात्कार करता है अथवा परसों की " कृष्णा " फ़िल्म सनी दयोल की प्रेमिका को निर्वश्त्र करके खलनायक उसके जिस्म के साथ खेलता है , कि आजकल हर उस जगंह जहाँ व्यक्ति पहुँच रहे होते है , कंडोम को प्रयोग कर , निरोध को प्रयोग कर सहवास करनें की प्रेरणा दी जाती है ,क्या यही है सम्भोग क्या इन्हीं सब तत्वों के माध्यम से होता है सम्भोग सुख की प्राप्ति आज यह सवाल सिर्फ़ हमारा नहीं है जो १८-२० साल के उम्र को क्रास कर रहे हैं अपितु उन सभी बच्चों और किशोरों का है जो प्रायः अख़बार पढ़ रहे हैं , फ़िल्म देख रहे हैं , गानें सुन रहे हैं और कर रहे हैं अपनें आरी पडोस के लड़कियों या लड़कों से बातचीत । जब समाज के हर घर पर , हर गली , घर रस्ते , दरवाजे चाहे वह फ़िल्म हो या साहित्य , विज्ञान हो या कला , अख़बार हो या रेडियो , हर एक जगंह और प्रत्येक क्षेत्र में सेक्स एक प्रमुख आईना बनकर खड़ा है , एक मुख्य जरूरत के रूप में मुखरित हो रहा है , आख़िर ऐसी अवस्था में भी सेक्स एडुकेशन को क्यों नहीं स्कूलों में अनिवार्यता दी जा रही है ? समाज का एक बडा वर्ग इसके विरोध में तो अपनीं प्रतिक्रिया देता है पर अगर किसी भी दरवाजे पर जाकर किसी भी एक लडके या लड़की से सेक्स के विषय में अगर कुछपूंछा जाय तो शायद ही , वही जो पागल होगा , कोई न बता पाए बाकि तो ऐसा सब कुछ बता सकते हैं जिसको सुननें के बाद ना सिर्फ़ हम सोंचनें के लिए मजबूर हो जायेंगे अपितु हो उठेंगे संकित कि जरूर इन्हें कोई बिगड़ रहा है । जबकि उनको कोई बिगड़ता नहीं है । कम्पूटर , साहित्य , फ़िल्म , अख़बार तो इस प्रकार के मनोवृत्तियों को उभार ही रहे हैं ऐसे में कभी कभी हमारे घर का परिवेश ही उन्हें ऐसा कुछ सोंचनें और करनें के लिए मजबूर कर देता है ।

वो भी तो जरा तड़पे जो मुझको रुलाती है ...

कोशिश जो किया मैनें अब याद ना वो आए

पर याद को क्या कहेना वो आ ही जाती है

चाहूं जो भुलाना मैं उनको हरदम हरपल

तब याद बराबर क्यूं उनकी ही आती है

हर एक फिजाओं में उनकी ही वफाएं हैं

फरियाद करें क्या हम हमको ही सताती है

एहसान जरा मुझ पर ये याद करो इतना

वो भी तो जरा तड़पे जो मुझको रुलाती है

मौसम की तरंह मैं भी क्या खूब बना सरगम

पर वक्त को क्या कहेना वो दूर ही जाती है ...................

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

कलयुग महिमा ......

है युग कलयुग नाम अपारा । सुमिरत भागत सुख संसारा ॥

जौ केहु चाह सदा लड़खड़ाना । कलयुग नाम जपहूँ प्रभु जाना ॥

बिन कलयुग के झगड़ा ना होई । मूरख गदहा दलिद्र कह सोयी ।.

अन्दर सास पतोहू के रहता । करत रहत सबके मुंह भरता ॥

बेटवा बोलै जौ गुस्साई । मेहर खीझि के चिमटा चलाई ।।

आवै बीच जे झगड़ा छुड़ावै । आखें चार के अपजस पावै ॥

कलयुग नाम सुखम् सुख हारी । तां जनता सब रहै दुखारी ॥

गली नगर बाजार दुवारी । जंह देखा तंह कलयुग भारी ॥

डालहुं नजर तनी लड़किन पर । कलयुग झलकत हर आत्मन तर ॥

पहिन ब्रीफ और केश झुलाई । देत अहैं सेफ्टी कै दुहाई ॥

पाछे कुत्ता लाखन दौडें । रहि रहि यौवन देखि के घिउरें ॥

जस अपजस लागत नहीं देरी । सैंडल रक्षा करै घनेरी ॥

जैसे सैंडल लडकी उडावई । सब लडिकन तब भाग्य अजमावई ॥

यह सब कलयुग की मनुसाई । लडकी लड़का दिखै इक छाईं ॥

बाल रखाई औ मूछ मुडाई । लगै सदा हिजड़ा सम भाई ॥

वहीँ पर पौडर वा होठलाली । देखि समाज देइ सब गाली ॥

पर गारी के शोक ना होई । कलयुग कहै डरो नहीं कोई ॥

एक दिन दुइ चर झापड़ पड़ता । सब किहें तब करता धरता ॥

अगलेन दिन बस जेल दुवारी । जल्दिन होइबा बेस्ट भिखारी ॥

हमरे रहे कुछ चिंता नाहीं । रहबे देत बबूल के छाहीं ॥

बुधवार, 20 अगस्त 2008

मैं सागर के पास जब लहर करे क्यों घात ...........

दिवस बीति रहि आश में आश ना आशा कोय
वहि आशा नहीं आश है जिह मैं आशा ना होय ॥ १ ॥

यह जीवन तो फूल है फ़िर क्यों बनता धूल
तूं सुख की सागर निधि करता क्योंकर भूल ॥ २॥

राम नाम तूं राम कह कह ना दूजो नाम
राम सुबह का नाम है बाकी से है शाम ॥ ३॥

यह जन्म सुख का पुंज है दुःख तो कुछ का नाम
कुछ खोजो कुछ जानके घूमों ना निष्काम ॥ ४॥

खोजन मैं प्रेमी चला हुआ झूठ बदनाम
पाय खडाऊं आन बसा किया जगत कोहराम ॥ ५॥

गुरु तो ज्ञान का नाम है मातु बसत है प्राण
पिता सुख समृद्धि है बाकी धूल सामान ॥ ६ ॥

मातु विपत करुणामयी पित्रि विपत मनोदास
गुरु विओग जीवन दुखी नहीं लोचन कबहूँ सुखाश ॥ ७॥

मैं मैं मैं का दास हूँ फ़िर क्योंकर कोई बात
मैं सागर के पास जब लहर करे क्यों घात ॥ ८ ॥

अगुन सगुण निर्गुण जगत सब में है तत्वेक
ग्यानान्धाकार तुझमें बसा तिस कारन है अनेक ॥ ९॥

श्रृंगार के झरोखे से

रूप कली गुलाब कीं वाणी मधु की बूँद
लोचन तीखी तीर सम कातेत तन जस सूत ॥१॥

क्यों बैठी तड़पाइ रही आहु पास इठलाई
चम्पक चमकि चवरि धरि भेटहुं तुम बलखाई ॥२॥

कोशों दूर खड़ी अडी साधि रही अकवार
देखत चितवत चमक तर आँख -भँवर ललकार ॥३॥

देखहूँ प्रभु की दीनता दिया क्या सौन्दर्य हार
लचकन भर में उनके आवत बसंत बहार ॥४॥

यौवन - कसा झीनी - लता नवयौवना मदमस्त
देखि रूप - लावर्न्यता कविगण होत सिद्धस्त ॥५॥

देखन में जो आनंद रस मिलत कबहूँ नहीं भोग
है आंकन में जो दिखत बनत कबहूँ नहीं जोग ॥६॥

क्या बात हो अगर तुम इंसानियत पर होते.......?

देखो जरा सम्हल के दुनिया कहाँ डुबी है

है राज रंग किनारा पर होश में नहीं है

कैसे बताऊँ क्या मैं क्या आज हो रहा है

मानवता के शिखर पर मानव ही रो रहा है

पड़े हैं कुछ गरीबी उनका भी ख्याल रख लो

घूमते हुए नजर से उनको भी थोड़ा लख लो

मझधार में फंसे हैं है ना कोई किनारा

हो पास में तुम्हीं गर तो आश है तुम्हारा

भूखे हैं वो है प्यासे बस दम निकल रहा है

लेकिन समय वफा की वफ़ा ही सो रहा है

ऐ आधुनिक जमानें फैशन से बाज आओ

भूले हुए जो पथ हो वापस उसी पर जाओ

क्या बात हो अगर तुम इंसानियत पर होते

आतंक दर्द गरीबी नामों निशा न होते

जाने कहाँ क्या कैसे इस युग में हो रहा है

कुछ होश में था जो भी उसको यूँ खो रहा है

बुधवार, 6 अगस्त 2008

i am doing !

i am doing
what doing
without knowing anything
i am doing something
there is a way
which have divided into four part
first, second and third
are mine , but fourth
i do not know about that
but i am trying
Becouse
something doing
yes, i am doing........

शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

भ्रूण - हत्या मीडिया से लेकर जाति, धर्म तक को होना होगा जागरूक

इतनें बडे प्रचार और प्रसार के बाद भी आज स्थिति जस की तस अर्थात मीडिया से लेकर समाज सेवी तक के वे सरे प्रयास विफल होते जा रहे हैं , जो अब तक भ्रूण हत्या और गर्भपात के सम्बन्ध में किए जाते रहे हैं । पर विडंबना की बात तो यह है की जिन पढे लिखे लोगों पर ये जिम्मेदारियों सौंपी जाती हैं वे ही ऐसे आपराधिक मामलों में ऐक्षिक रूप से सक्रिय हैं । और मानवीयता से ऊपर उठकर ऐसे अमानवीय कुकृत्य को अंजाम दे रहे हैं । बताइए, जब शिक्षा देनें वाले ही इस तरंह अपनें कर्तव्यों को अपराधों के साये में पलते देखे जायेंगे तो उनका अनुसरण करनें वाले भला अपने आप को कैसे दूर रख सकते हैं ?

अभी हाल ही के दिनों में नवांशहर में एक नर्स को रंगे हांथों तब पकड़ा गया जब वह एक औरत का गर्भपात करनें में संलग्न थी । ये कहना कोई गलत ना होगा की ऐसे मामलों में जहाँ परिवार के सदस्यों की भूमिका होती है वहीँ पर ऐसे नर्सों और डाक्टरों द्वारा भी बडे ही शौक से इस भूमिका को अदा किया जाता है । जबकि देश और प्रदेश के अनपढ़ और कम समझदार जनता को समझानें के लिए इन्हीं को वहां पर भेंजा जाता है। और भला इनकी बातों को मानेगा भी कौन ? दूसरों को नसीहत ख़ुद मियाँ फजीहत । परिणामतः दिनों दिन स्थिति और भी बदतर होती जा रही है और यदि इन पर मीडिया और सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों द्वारा कुछ हट क्र कुछ ना किया गया तो शायद भविष्य में परिस्थिति और भी जटिल और स्थिति और भी दयनीय हो सकती है ।

लेकिन हमें सिर्फ़ सत्ताधारी पार्टियों और मीडिया पर ही नहीं निर्भर रहना चाहिए क्योंकि किसी बुराई को ख़त्म करनें के लिए एक ही दरवाजे की कीवाड़ मजबूत करना ठीक नहीं होगा । हमें तो हर उस दीवार को मजबूत करना होगा जो समाज की महल के विनाश और विकास में मत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं । अर्थात इन सबके साथ साथ हमें अपनें धार्मिक , राजनीतिक , सांस्कृतिक और पारंपरिक स्थितियों को भी सुदृढ़ करना होगा । यहाँ पर ये बात कुछ अटपटी जरूर लग सकती है की भला इन सबके साथ क्या सम्बन्ध है भ्रूण - हत्या और गर्भपात का जिससे ये नियंत्रण में लिए जा सकेंगे । इतिहाश गवाह है की अभी तक चाहे सती प्रथा हो या बाल विवाह इन सबको भी तो परम्पराओं और धर्मों से जोडकर ख़तम किया गया । जिसके चलते नयी परम्पराएँ स्तित्व में आयीं और उनका भी पालन किया जा रहा है ।

वास्तव में आज यह एक जटिल समस्या हो गयी है जिससे निपटानें के लिए जन बच्चा से लेकर बूढों जवान और औरतों तक को निःसंकोच आगे आना होगा । इसमें धर्म के चलते वैसे आदमियों या स्त्रियों को मंदिरों या मस्जिदों में जानें से रोका जा सकता है । समाज से बाहर किया जा सकता है । आख़िर जब गलत कार्यों के लिए धर्मों और जातियों को साधा जा सकता है तो भला ऐसे कार्य के लिए इनकी सहायता क्यों नहीं ली जा सकती ।

दुःख की दूतिनी

रे दुःख की दूतिनी


फ़िर तूं लौट कर आई यहाँ


अभी अभी


बस थोड़े समय पहले


छोड़ आया था तुझको


अपनी बगल वाली गली में


पर ये क्या


फ़िर घूम कर चली आयी


ओह ! तूं कितनी निर्दयी है


कितनी बेसरम है


लेस मात्र भी दया और सरम नहीं


उनके पास क्यों नहीं जाती


जिनके घर है मेवा मलाई


शायेद इसीलिए न


वे नहीं करते तेरी मेहमानी



हम गरीब हैं


अतिथि को देवो समान मानते हैं


चाहे वो विपदा हो या दुःख


अथवा खुशी


सबको एक समान समझते हैं


इसीलिए तो झेल रहे हैं


ऐसी दलिद्रताई .......... ।

गुरुवार, 17 जुलाई 2008

रोटी के लिए

धूप की सनसनाहट

तूफ़ान की आहट , गरमी का कहर

और दोपहर की तपिस

ये सब फीके पड़ जाते हैं

उस समय की मार से

बौखलाए व्यक्ति के आगे

जिसको कहा करते हैं हम

रिक्शा चालक

महज चंद रूपए की खातिर

दो रोटी के लिए

दिन भर , हर समय , हर रोज

चलता रहता है

वह रिक्शा चालक

बिना पनही के

आधुनिक फैशन से बहुत दूर

फटी धोती और एक झीनी कुर्ती पहनें

मारता रहता है वह

रिक्शा का पैडल

फ़िर भी नहीं भरता है

उसका वह पेट

नहीं संतुष्ट हो पाती है उसकी अंतरात्मा

काश हे ईश्वर !

इनकी भी होती एक कुटिया

जिसमें वह रहता आराम से

तब कहीं जाकर झलकती

मानव के अन्दर की मानवता

तब देखनें में आता भारतीय संविधान की

समानता का व्यवहार

पर ये सब हैं कोरी कल्पनाएँ

और इन कल्पनाओं से बहुत दूर है

वह रिक्शा चालक । ।

भाजपा का चुनावी प्रार्थना :

भगवान निवेदन तुमसे है कुछ वोट मुझे भी दे देना

बदले में मुझसे लड्डू फल जो दिल भाए ले लेना

वादा मेरा अटल रहेगा फूल कमल का रोज चढ़ेगा

कृपा पात्र हमसब हैं तेरे कृपा दृष्टि तुम भी रखना ।।

मैं साथ आपका हरदम दूँगा मरते दमतक नाम जपूंगा

हर भाषण में मैं याद करूंगा नाम आपका अमर करूंगा

मंदिल के पास जो मस्जिद है बस एक पल मे तुडवा दूँगा

काम आपके मैं आऊंगा कृपा दृष्टि तुम भी रखना ।।

यदि बहुमत आपका मिल जाए तो मैं कृतार्थ हो जाऊँगा

महिमा राम आपकी सबको भली भाँती समझाऊंगा

अस्त व्यस्त आवास आपका मैं ख़ुद जाकर बनवाऊंगा

सब रुका कार्य मैं पूर्ण करूंगा पर ख्याल मेरी तुम भी रखना ।।

चिकनी चुपडी बातें सुनकर प्रभु का दिल भी दहल गया

कभी प्रचारक थे जिसके दिल उसके दल से बदल गया

राम नाम की अनुमति देकर प्रभु ने उनको सफल किया

खुश होकर भक्त ये कहने लगा प्रभु साथ सदा मेरे रहना ।।

मिला राजपद जब इनको सब वादों को ये भूल गये

नर तो क्या नारायण को भी बकवादी नर भूल गये

तारीख पड़ी न्यायालय में जब प्रभु के दिल में भी शूल किए

होकरके दुखी प्रभु कहनें लगे अब साथ नहीं तेरे रहना ।।

जो भूल गये नारायण को अब क्या उम्मीदें उनसे है

हर सुख सुविधाएं अपनी तो बस यार खुदा के घर से है

पर एक दिन समय वो आएगा हर काम जो उनका हमसे है

हम कह देंगे प्यारे अब मतदान नहीं तुमको देना

बदले में दुवायें गिरने की चाहे तुम हमसे ले लेना ।।

सोमवार, 2 जून 2008

' सिद्धविनायक ' में अमिताभ बच्चन

तुम आये आए तुम भगवान
धन्य हुए हम , हुए जो मेहरबान
ना तो गीता श्लोक को पढ़ना
ना ही तो रटना पड़ा कुरान
तुम आए आए तुम भगवान

तुम चले जलसा से सिद्धविनायक
हे युग निर्माता हे जननायक
तुमसे बड़ा कौन , है कौन तुमसे महान
तुम आए आए तुम भगवान्

लगाए कतार , गणेश नहीं तुम्हारा जयकार
उनके दर्शन में होती देरी - अदृश्य वे
दिखे तुम प्रत्यक्ष , स्पष्ट , साकार
नहीं शिकायत , गिला कुछ भी
बसता तुम्हारे दर्शन में प्राण
तुम आए आए तुम भगवान ....... ।

मेरी दुनिया में ' तुम ' तुम ना रहे

मेरी दुनिया में " तुम " तुम ना रहे

कोई और आया था तुमसे पहले

आप बनकर

सहज सुंदर स्वाभाविक रूप सा

एकदम सरल एकदम सीधा

मिलता भी हर जगंह

' यहा ' या ' वहाँ ' या कहीं और

जरूरी नहीं की मैं ही

उसके पास जाऊं रोज सुबह सुबह

जरूरत हर की हर से होती है

हमारे उसके रिश्ते के

सबसे ठोस प्रत्यक्ष वजह

एक एक के लिए , एक दूसरे जैसा

बिन ' दूसरे ' एक कैसा

क्योंकि हमारी दुनिया है निराली

निराली दुनिया में पहले के ' तुम '

आज के ' आप ' हो गए

' आप ' साथी , दोस्त बने

दुश्मन ना रहे

मेरी दुनिया में ' तुम ' तुम ना रहे

कोई और आया था तुमसे पहले

आप बनकर ....... ।

तब तुम याद आते हो .......

कभी कभी

जब हर जगंह से

टहल टहल कर थक जाता हूँ मैं

तब तुम याद आते हो

याद आते हो की यदि पास होते

तो तुम्हारा आंचल होता

होता मैं दुखी जब , हाँथ के साथ उठता

वह आंचल तेरा, मेरे सिर तक पहुँचता

धीरे धीरे नींद आती होती

आ जाती , तब तुम जगाते

जगाते और कहते

खाने से पहले मत सोया करो

सोया करो पर जल्दी नहीं

पढ़ लिख कर

आते हो याद तब भी

जब कोई डांट जाता है

की यदि होते तुम तो कहते लोग 'प्यारे भइया '

'उठ उठ ' ना कह कर कहते लोग

' उठो बेटा ! सुबह हो गयी .......... ।

अपने हित की बात

मेरी कल्पनाएँ

यादें मेरी

उकसाती हैं मुझे

युद्ध करूं मैं उनसे

सोंचता हूँ मैं

पड़ोसी मेरे ये

सुखी रहें

समृद्ध रहें

क्या लड़ाई

क्या तकरार

पड़ोसी हैं ये बने रहें ऊंचे

नाम होगा मेरा ही ....... ।

ये आशाएं

ये आशाएं
होती हैं कितनी अच्छी ये
जब चलता हूँ मैं
हो लेती हैं साथ मेरे
रहती हैं साथ समय हर
और देती है साथ मेरा हर समय
ताकि हम सोंचते रहें
ताकि हम मूक न हों
विचरते रहें
दुनिया , देश , समाज के हित
कुछ करने के लिए
हम सोंचते रहें
सोंचते रहें हम
की कैसे हमें उठना है
कैसे चलना है
बच बच कर रहना है
और होना है कैसे सफल
निराशाओं के पथ पर
ये सब बताती हैं
ये आशाएं ....... ।

रविवार, 1 जून 2008

जीता रहता हूँ मैं

लोग कितने आलसी हो गए हैं

एक घर के निर्माण में

एक महीने के दिन भी

हो जाते हैं कम

कितनी कर्मठता है मुझमें

की एक घर मैं रोज ही

बनता हूँ , रहता हूँ , और

बिगाड़ता हूँ

छोड़ देता हूँ उसको

ख़ुद के लिए नहीं

आने वाली नस्लों के लिए

खंडहर के रूप में

रहता है वह खंडहर

कम, अधिक , घटते - बढ़ते क्रम से

वह निरंतर रहती है

जीता रहता हूँ मैं

उसके लिए नहीं

आने वाली नस्लों के लिए

एक पूर्वज के रूप में ........ ।

यादें

यादें! तेरे कितने रूप , कितने लक्षण, रे तूं है कितनी अनूप । कभी कभी ज्येष्ठ की दुपहरिया लगती और कभी कभी हो जाती है पूस की धूप। सच में बोल तूं कितनी सुंदर है और हैं तेरे कितने प्रतिरूप ? हर जगंह तू मिलती है। दुःख हो कि गम , चिंता हो या प्रसन्नता , दुर्लभता हो या सहजता , हर जगह हर वातावरण में , समूहों में एकान्तिकता में कोलाहल हो या नीरवता में प्रतिपल प्रतिक्षण रहती है तूं मौजूद । बता ना तेरे कितने प्रतिरूप ?
कभी कभी बीते हुए पलों में जाकर , वो तू ही है न जो कर देती है रोने को मजबूर ना चाहते हुए भी तूं ला देती है दूसरों के साथ विताये गए पलों को , गुजारे गए लम्हों को , किए गए वादों को । क्या इसलिए कि हमारा समय पास हो या फ़िर इसलिए कि हों टूटे हुए रिश्ते प्रगाढ़ ? प्रगाढ़ता आयेगी कैसे बोल ? क्या टूटे हुए दिल के तार कभी सांत्वनापूर्ण जुडते हैं , यदि ऐसा होता तो क्यों कहलवाती तूं रहीम से "रहिमन धागा प्रेम का तोड़ो न चटकाय" पगली तूं क्या है रे , क्या अब तेरा मिलन आत्मा से नहीं होता ? तभी तो हो जाती है बैठे बैठे बोर और आ जाती है समय बिताने के लिए हमारे स्मृति पटल में । पर तब , जब तूं समय बिताने आती है , क्यों नहीं लगती मेरे अनुरूप ? तूं है क्या यादें ही या कोई और , पहले स्पष्ट कर तेरे कितने प्रतिरूप ?

शनिवार, 24 मई 2008

एक उत्तम अपूर्ण सोंच

मैनें भी तो कुछ था ही सोंचा
कुछ करनें को
कुछ चाहने को
कुछ पानें को
इसके बाद स्वतः चलकर
एक अजीबों गरीब पग से
एक सबसे कमजोर पथ पर
कुछ खोनें को

सोंच सोंच ही बनीं रही
और मैनें सोंचा
कुछ जरा सा सोंच कर

सोंचकर सोंचा उस विषय में
तो पाया एक सरल सा जवाब
जो था अर्थ से तरल
जो बहुत ही नुकीली और
चुकीली थी

सोंच का जन्म सोंच में ही होता है
और वहीं संभवतः
बहुत गहरे में
हो जाता है उसका अंत

आख़िर लता भी तो सोंचा होगा
नाज किया होगा
अपनी सुन्दरता पर
की मैं भी कभी
सबके पसंद का मालिक बनूँगा
पहनाया जाऊंगा सबों के गले में
चढ़ाया जाऊंगा मंदिरों में

भगवान के गले में
नेताओं के गले में
घरों में
किसी मुख्य त्योहारों में
और
विशेष रीति-रिवाजों में
अर्थियों पर गम के साथ

लेकिन उसकी भी सोंच
सोंच ही रह गई
आज वह शोभा है
शोभायमान हो रहा है
केवल गडाहों, और तालाबों में
कोई नहीं पूंछता उसका फूल
समझते हैं लोग उसको
केवल धूल
पग अथवा पथ का नहीं
हवावों और आँधियों का धूल .......... ।

न देंगे अपना आदर्श किसी को

नवदीप खिले थे
मन में
अंतर्मन में
अंतरतम ह्रदय में
मेरे अपनें सुन्दरतम तन में
फ़िर क्यों वो बुझ गए ?

क्या बोलने से
डोलने से , या फ़िर
कुछ अच्छा सोंचनें से
बतानें से
या फ़िर
कुछ आदर्श सिखानें से

मैं इतना निरादर्ष भी तो नहीं हूँ कि
कुल गलत बोल जाऊं
या बोलने से पहले
किसी के बातों को तोड़ जाऊं
किसी के भावनाओं को
कुभावनाएं बनाकर ठेस पहुँचाऊँ

मन है
स्थाई अस्थाई
बोल ही दिया करता है
कुछ गलत
कभी कभी कभी
फ़िर उस पर गुस्सा क्यूं
आख़िर छोटा ही तो हूँ

चलो अब नहीं भी
सिखाऊँगा आदर्श
किसी को कहीं भी
कभी भी
ऐसा भी हो सकता है कि
कुछ बोलने से पहले
तौल लिया करूंगा उसको
कहावतों को सिद्धस्त करते
अपना स्वयम का पहचान समझ के
अभिशाप समझ के
या किसी की आशीर्वाद
अथवा दुवायें समझ के ............. ।

शुक्रवार, 23 मई 2008

रोजी रोटी और नैतिकता के आगे भी एक समस्या होती है .......

आज कई दिनों से मैं परेशान हूँ । घर की आतंरिक माहौल या पढ़ाई की समस्या अथवा दो रोटी मिलनें की चिंता या फ़िर ये कहें कि आर्थिक तंगी , सामान्यतः लोग इन्हीं को समस्या का प्रथम कारक सिद्ध करते हैं पर इसके आगे भी एक समस्या होती है जो कहनें को तो तब मानव-मष्तिष्क में प्रवेश करती है जब व्यक्ति अपनें युवावस्था में प्रवेश करता है , लेकिन यदि वाश्तविकता समझनें की कोशिश की जाय तो यह बालकपनसे ही जब हम ४-५वीं में पढ़ रहे होते हैं , हमारे अंदर प्रवेश करनें लगती है । और वह है सेक्स, काम-वासना । आज तो इसने मुझे दुखित ही कर दिया । दिक्कत की बात तो ये है कि मैं जहाँ भी गया संभवतः इस काम-वासना से बचने की कोशिश करता रहा पर वासना है कि माना ही नहीं । अख़बार उठाया , मल्लिका शेरावत और बिपासा बसु नें रिझाया। पत्रिका उठाया एक बेहूदा किस्म का पोस्टर ना सिर्फ़ कल्पना करनें के लिए मजबूर कर दिया अपितु रस्ते में जाते हुए " परदे में रहनें दो " फ़िल्म के साथ ख़ुद को अनावरण होनें के लिए बेबस कर दिया । घर में टीबी चनल खोला , एक साधारण सा धारावाहिक आ रहा था , मन उस समय तक शांत हो गया था पर अचानक ही एक २२ वर्षीय किशोर का २० वर्षीय नवयुवती को उठाकर चुम्बन लेना और उसका उसके बाँहों में कसमसाना फ़िर से मुझे उसी वातावरण में ला धकेला । अब तक मैं अपनें आप को असंतुलित पा रहा था , परीक्षा का समय कोई इधर उधर की हरकत भी नहीं कर सकता था क्योंकि सबसे बड़ी दिक्कत तो स्मृति-दशा को एक संतुलित अवस्था प्रदान करना था ।



ऐसे में अगर मेरे पास कोई चारा बचा था ख़ुद को वासना से बचानें के लिए तो एक मात्र , साहित्य-संसार। वस्तुतः यह एक ऐसी दुनिया है जिसमें वासना नहीं है , कुंठा नहीं है , शारीरिक प्यास नहीं है और नहीं है दो जोशीले जिस्म के टकरानें की चाह ,ऐसी धारणा प्रायः हमारी थी क्योंकि ये भ्रम कई दिनों पहिले ही हमारे मष्तिष्क में विद्यमान थी कि , साहित्य में तो हमारे उन कर्मठ पुरुषों की वाणी रहती होगी जो भारतीय संस्कृति के संवाहक हैं , पर जैसे ही हमनें एक पुस्तक उठाई , मुंह खुला का खुला रह गया , हाँथ थर्थरानें लगा , शरीर तो ऐसा बेकाबू हो गया जैसे मानों कोई अंदर प्रवेश करनें लगा हो और क्यों कि समाहित ना हो पा रहा हो तड़प उठा और बौखला उठा । मैं " सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक "(सुरेन्द्र वर्मा का नाटक ), डॉ मिथिलेश गुप्ता की समीक्षा "विवाह के पाँच वर्ष तक कुंवारी रहनें के बाद संतान प्राप्ति के लिए जिस पर -पुरूष के पास भेजा जाता है तो सारे शील छोड़कर उसके भीतर की नारी भड़क उठती है और पति है नारीत्व की सार्थकता मातृत्व में नहीं, महामात्म्य है केवल पुरूष के सम्भोग के सुख में । " पढ़कर उठनें लगा मन में तरह तरह के सवाल । स्त्री का विवाह के बाद कुंवारी रहना , दूसरे पुरूष के पास भेजा जाना और उसके पास पहुंचकर , उसके नारीत्व का जागना आख़िर ये सब क्या है ? क्यों वह पुरूष के सम्भोग सुख से ही नारीत्व को प्राप्त हुई ? यह सम्भोग क्या होता है ?कैसे होता है , क्या जब स्त्री - पुरूष अकेले में मिलते है , एक दूसरे के बाँहों में झूमते हुए कसमसाते है या कल जो मैं दैनिक भास्कर पढा था , जिसमें एक व्यक्ति ६ वर्ष की लड़की का बलात्कार करता है अथवा परसों की " कृष्णा " फ़िल्म सनी दयोल की प्रेमिका को निर्वश्त्र करके खलनायक उसके जिस्म के साथ खेलता है , कि आजकल हर उस जगंह जहाँ व्यक्ति पहुँच रहे होते है , कंडोम को प्रयोग कर , निरोध को प्रयोग कर सहवास करनें की प्रेरणा दी जाती है ,क्या यही है सम्भोग क्या इन्हीं सब तत्वों के माध्यम से होता है सम्भोग सुख की प्राप्ति आज यह सवाल सिर्फ़ हमारा नहीं है जो १८-२० साल के उम्र को क्रास कर रहे हैं अपितु उन सभी बच्चों और किशोरों का है जो प्रायः अख़बार पढ़ रहे हैं , फ़िल्म देख रहे हैं , गानें सुन रहे हैं और कर रहे हैं अपनें आरी पडोस के लड़कियों या लड़कों से बातचीत । जब समाज के हर घर पर , हर गली , घर रस्ते , दरवाजे चाहे वह फ़िल्म हो या साहित्य , विज्ञान हो या कला , अख़बार हो या रेडियो , हर एक जगंह और प्रत्येक क्षेत्र में सेक्स एक प्रमुख आईना बनकर खड़ा है , एक मुख्य जरूरत के रूप में मुखरित हो रहा है , आख़िर ऐसी अवस्था में भी सेक्स एडुकेशन को क्यों नहीं स्कूलों में अनिवार्यता दी जा रही है ? समाज का एक बडा वर्ग इसके विरोध में तो अपनीं प्रतिक्रिया देता है पर अगर किसी भी दरवाजे पर जाकर किसी भी एक लडके या लड़की से सेक्स के विषय में अगर कुछपूंछा जाय तो शायद ही , वही जो पागल होगा , कोई न बता पाए बाकि तो ऐसा सब कुछ बता सकते हैं जिसको सुननें के बाद ना सिर्फ़ हम सोंचनें के लिए मजबूर हो जायेंगे अपितु हो उठेंगे संकित कि जरूर इन्हें कोई बिगड़ रहा है । जबकि उनको कोई बिगड़ता नहीं है । कम्पूटर , साहित्य , फ़िल्म , अख़बार तो इस प्रकार के मनोवृत्तियों को उभार ही रहे हैं ऐसे में कभी कभी हमारे घर का परिवेश ही उन्हें ऐसा कुछ सोंचनें और करनें के लिए मजबूर कर देता है ।

बाल श्रम पर प्रतिबन्ध : कैसे जिएगा गरीब परिवार

भारत में आए दिन राजनेताओं की राज्नीतियाँ प्रकाश में आती रहती हैं जो काफी हद तक अंधेरे से परिपूर्ण होती हैं। उस अन्धेरमय नीति पर चलना न सिर्फ़ कठिन अपितु असंभव भी होता है , खासकर उनके लिए जिनके ऊपर ये नीतियाँ थोपी जाती हैं । हाल ही में ली गयी एक और नीति "बाल श्रम पर प्रतिबन्ध" हालांकि सुननें और सैद्धांतिक रूप में तो एक अच्छा कार्य , एक अच्छा कदम कहा जा सकता है समाज के लिए पर व्यवहार में यह उतना गलत है । एक नाइंसाफी है गरीब परिवार और असहाय बच्चों के लिए ।
पंजाब प्रदेश समेत देश के अन्य प्रदेशों में इस वैधानिक नियम को शक्ति से लागु करनें का निर्णय लिया गया है । जिसके उलंघन की दशा में ना सिर्फ़ आर्थिक दंड अपितु एक वर्ष के कारावास का भी कठोर प्रावधान किया गया है । जिससे ये होगा की जो असहाय बच्चे अपनें गरीब माता पिता की दशा को सुधारनें तथा अपनीं जीविका को चलाने के लिए किसी होटलों , कारखानों व नगर के अमीरों तथा रहीशों के यहाँ नौकरी कर लेते थे अब उनको इनसे भी वंचित होना पड़ेगा । क्योंकि इस दुनिया में मूर्ख कौन है की एक बालक को नौकरी देकर अपनीं जान संकट में डालेगा । परिणामतः उन लाचार बच्चों को तथा उनके परिवार वालों को मजबूर होकर जस्ता का कटोरा लेकर सड़कों पर उतरना होगा । आख़िर पेट भरने के लिए कुछ ना कुछ तो करना ही पड़ेगा ।
दिलचस्प बात तो ये है कि भारतीय सरकार द्वारा उन बाल मजदूरों को सौ रूपये (१००) महीनें वजीफे के रूप में देनें का निर्णय लिया गया है जो गरीबी की दशा पर एक करारा व्यंग्य है , प्रहार है । इससे तो अच्छा ये होगा कि यदि कोई बालक फटा-पुराना कपड़ा या निर्वस्त्र होकर गलियों या सड़कों पर घूमता हुआ दिखाई दे तो सीधा उसे खतम कर दिया जे या किसी गाड़ी के नीचे कुचल दिया जाय । अब भला इससे अच्छा तरीका बाल श्रम पर रोक लगानें का और क्या हो सकता है ।
देश की ३०-४० प्रतिशत जनसंख्या ऐसी है जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है जिनको रहनें के लिए छान-छप्पर , झुग्गी , खानें के लिए नमक रोटी और तन ढकनें के लिए मात्र ३ इंच कपड़े नसीब हो जाय तो बडी बात है । क्या कभी इनकी इस दशा पर उनको ख्याल आई ? क्या कभी उनके द्वारा कोई ऐसा कानून पास किया गया कि यदि नगर में कोई बालक या कोई परिवार बिना खाए पिए सोया तो बगल वाले को कठोर दंड दिया जाएगा ?नहीं किया गया क्योंकि यदि कोई ऐसा कानून लागु किया गया होता तो नुका क्या हाल होता जो ऊपर के २०% अमीर वर्ग इन पर राज कर रहे हैं ।
अतः ये बात तो स्पष्ट है कि 'बाल श्रम ' पर पूर्णतः प्रतिबन्ध लगाना सिद्धांत में जितना ही सरल है व्यवहार में उतना ही कठिन है जिस पर वर्तमान सरकार को एक बार फ़िर गहनता से विचार करनें की आवश्यकता है । यदि तो इन प्रावविधानों को सख्ती से लागू करना है तो उन गरीबों को , उनकी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करनें का जिम्मा इनके द्वारा लिया जाना चाहिए , नहीं तो इसको वैसे ही सिर्फ़ कागजी कार्रवाई बनाकर छोड़ देना चाहिए जैसे ३०-४० सालों से किया जाता रहा है .............. ।

शुक्रवार, 16 मई 2008

गांधी वादिता की असफल कोशिश ( रिएलिटी सो )

वर्षों बीत गए । यादें नम होनें लगीं । वो ईश्वर बनने लगे । धीरे धीरे कुछ विस्म्रितियाँ याद ही आ रही थी की नया रूप सामनें आया । वह रूप एक रूप ही नहीं एक तेज जैसा , जो हजारों लोकोक्तियों और कहावतों को वाश्तविकता का परिप्रेक्ष्य देनें में वाश्तविकतः वास्तविक । यह कोई और नहीं हाल ही की गांधी की दूसरी प्रतिमूर्ति , जो आते ही एक बार फ़िर इतिहाश के आइनें में इस कहावत को चरितार्थ कर गयी ' सबै सहायक सबल के निर्बल के नहीं कोय
अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी का ब्रिटिश दौरा "चैनल ४ " के अंतर्गत इस बार कुछ ऐसा ही पेश कर रही हैं। जो कुछ हकीकत लग रही है तो कुछ स्वप्न । कुछ को उभार रही है तो कुछ को सत्य के धरातल पर लाने के लिए एक असफल कोशिश मात्र । जबकि घटनाएँ १०० साल पहले की हैं । नस्लवाद । गोरा , काला । और क्या क्या कुछ कम कुछ बहुत । पर क्या यह सही है ? क्या इसके पहले इस प्रकार के शब्दों को उभारा नहीं जाता था । या फ़िर यों कहा जाय की अन्य भारतीयों व एशियायियों के लिए ये शब्द उनके अपनें रिश्ते बन गए थे , जो उनका उच्चारण सुनते ही स्वागत करनें के लिए तैयार रहते । हर समय । हर जगंह । हर हालत और हालात में । चाहे वह सार्वजनिक स्थल हो या सार्वजनिक मार्ग अथवा कोई अन्य स्थल , मेले , बाजार आदि इन सब जगंहों पर आख़िर यही शब्द तो हैं जो एशियायियों के आचार और शिष्टाचार को बयां करते थे । जिसमें घृणा , फटकार और भेदभाव तो रोज रोज की आनीं जानी थी । होते थे तब भी इस शब्द के प्रयोग होते थे । तब भी इस शब्द के आदी थे ये अंग्रेज लोग । बजाय इसके की आज भी ऐसे शब्दों का प्रयोग वहाँ पर एक सभ्यता बनीं हुई है । ये बात और है की वे आम हैं । कमजोर हैं । गरीब हैं । लचर हैं ! और जिस पर ये लाचार रुपी बिच्छू के डंक लग जाते हैं , उस पर मीडिया रुपी जड़ी - बूटी भी अपना राग नहीं चला पाती है । फ़िर अचानक इन सबको हो क्या गया की ब्रिटिश मीडिया , मंत्रिमंडल और संसद से लेकर भारतीय मीडिया और सदन तक नस्लवाद , नस्लवाद , भेदभाव के सुर अलापनें लगे ।
फ़िर शिल्पा के सम्बंध में घटित इस छोटे से विवाद पर हम भला कैसे कह सकते हैं कि हाँ हम अपनें भारतीयत्व की रक्षा कर रहे हैं । और यह एक पल के लिए ठीक भी हो सकता था कि वह प्रतियोगी के उस उद्दंडता को जिसमें अभद्र व्यवहार किया गया , खेल एक अंश मानकर ही भूल गयी होती । और फ़िर खेल में तो हर कोई प्रतियोगी चाहता है कि किसी तरंह उसके मनोबल को गिराया जाय । आख़िर शिल्पा में और उन प्रतियोगियों में अन्तर ही क्या रह गया । क्या इसमें भारतीयत्व को दिखानें की जरूरत नहीं थी ? अच्छा तो शायद यह था जब वह इन आलोचनाओं को सहते हुए विजित होकर नये तेवरों में जवाब देती कि वास्तविकता क्या होती है । पर ऐसा कुछ नहीं हुआ ।
हुआ फ़िर भी कुछ हुआ । कम से कम मीडिया को एक नया मसाला तो मिला कि उस सुपर स्टार को काला कहा गया जो सौंदर्य की एक देन है । औलत की एक खान है । देश के करोड़ों लोग उस पर फ़िदा हैं । कुछ या ना हो पब्लिसिटी तो मिलेगी । अब तो ऐसा लगता है कि सम्पूर्ण भारतीयत्व सौंदर्य और दौलत के झरोखे से बहते दो आंसू में सिमट कर रह गयी है । जबकि ऐसे पता नहीं कितने आंसू विदेश की तो बात ही छोडो देश में गिर रहे है । बह रहे हैं । नदियों की तरंह नालों की तरंह , जहाँ पर वास्तव में ये भारतीयत्व तार तार हो रही है । उसका किसी को ख्याल नहीं । किसी को परवा नहीं । क्योंकि उनके पास ना तो शायद सौंदर्य है और ना ही तो धन है दौलत है । है तो बस एक शरीर का ढांचा है । जो कर्ज रुपी बोझ के तले दबा हुआ है । वास्तविकता तो ये है कि इन स्थानों की जो भारतीयत्व है वह भले ही सौंदर्य विहीन है पर एक अचल सम्पदा है । जो लुट रही है बर्बाद हो रही है । क्या इन्हें बचानें का अपेक्षित प्रयास किया जा रहा है ? यह कह पाना तो पूर्णतः मुश्किल है । पर वाकई शिल्पा ब्रिटिश में इस भेदभाव पूर्ण रवैये को खतम करने का गांधी के बाद दूसरा स्थान लेनें का एक सफल चाल चली थी यह बात और है कि वह उस रूप में नहीं प्रतिष्ठित हो पायी । क्योंकि यह एक खेल मात्र था । जबकि वह एक संघर्ष था । इसमें आंसू छलके , लेकिन उसमें आंसू नहीं वेदना और करुना के धार बहे । वेदना के स्वर में आत्मा की अभिव्यक्ति होती है जो करोड़ों भारतीय प्रवासियों के लिए आवश्यक है । जरूरी । अपरिहार्य है.......... ।

शरीर है अनेंकों पर आत्मा एक ही मिलेगा

कहीं भी किसी दिन मिलो तुम किसी से

हर एक दिन नया गम खिलता मिलेगा

दिखेगा तुम्हें वो तुम्हारा हितैसी

तुम्हीं से तुमपे वो हंसता मिलेगा

दिखेगा नया तेज व्यक्तित्व पर उसके

सुंदर बदन , मुख , चेहरा लगेगा

चाहोगे तो जानना हकीकत भी उसकी

मगर जब सुनोगे रूप तेरा ही मिलेगा

कहेगा मुसाफिर यहीं का हूँ एक मैं

नहीं घर चावल आज , आटा खतम है

झगडी है मम्मी , पापा गुस्से हैं ऊपर

पत्नी को छाया मेरी प्रेमिका का बहम है

था फ़ोन लड़के का , फीस देना है उसको

डबल कट लाइट का फक्ट्री भी है बंद

किया मिस्ड चाची नें है काल मुझको

न पैसा मोबाइल में , उधर प.सी.ओ भी है बंद

छोटी है लड़की बिस्कुट जरूरी उसे भी

बीड़ी , तम्बाकू के यहाँ लाले पड़े हैं

साबुन खतम , ना नहाया , कपडे भी है गंदे

दिए थे उधार जो , वे भी मूंछ ताने खड़े थे

भइया ! अगर कुछ हो देना मुझे आज

अभी तो कारखानें में मेरे पैसे पड़े हैं

मगर क्या पता उस विचारे को था कि

भइया भी उसी लिए पास उसके खड़े हैं

सोंचोगे प्यारे , सही कहती है ये दुनिया

शरीर है अनेकों पर आत्मा एक ही मिलेगा

अगर दुखी किसी का तन कहीं भी दिखा तो

समझो वही दुःख कल तुमको भी मिलेगा ............. ।

गुरुवार, 15 मई 2008

राष्ट्रपति कलाम का सुझाव - दो दलीय व्यवस्था

राष्ट्रपति कलाम , द्वारा दर्शाई गयी नयी राजनीतिक प्रणाली , जिसके अंतर्गत दो दलीय राजनीतिक प्रणाली को अपनाए जानें की नसीहत दी गयी है । सिद्धांतों में इस पर यदि ठीक प्रकार से विचार किया जाय तो देश के लिए हितकर हो सकता है । इस प्रणाली के अपनाए जाने से न सिर्फ़ सत्ता को स्थिरता मिलेगी अपितु एक तो बरसाती मेढक की तरंह दिन प्रतिदिन बढ़ रहे राजनीतिक दलों की संख्या पर विराम लग जायेगा और दूसरे , एक स्वच्छ राजनीतिक वातावरण का निर्माण किया जा सकेगा । जिससे न तो संसद की कार्यवाहियों पर कोई अवरुद्ध उत्पन्न होगा और न ही तो सरकार की नीतियों को लागू करनें में बेवजह और किसी प्रकार की देरी । जबकि वर्तमान भारतीय राजनीतिक प्रणाली में यह गुन विद्यमान नहीं है । बहुदलीय और खासकर गठबंधन प्रणाली होनें से एक तो साधारण से साधारण नीतियों को भी लागू करनें में व्यापक समय लग जाता है और दूसरे कुछ अच्छे कार्य भी समर्थक दलों की नाराजगी के चलते नहीं हो पाते इससे देश को व्यापक हानियों का सामना करना पड़ता है ।

पर यदि व्यवहार में देखा जाए तो इस प्रकार की व्यवस्था भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए किसी भी प्रकार से फायदेमंद नहीं है । ऐसा होनें से एक तरफ़ तो जहाँ लोकतंत्र को आघात पहुंचेगा वहीं दूसरी तरफ़ राज्य की स्वायत्तता पर भी विराम लग सकता है । इसमें कोई संदेह नहीं है की आज भारत जिस तरंह से विकास की नयी ऊंचाइयों को छू रहा है , वह बहुदलीय प्रणाली का ही श्रम है । स्वतंत्रता प्ताप्ती से लेकर १९६७ तक और १९८९ से १९८० तक भारत में एक ही दल की प्रधानता रही क्योंकि लोगों को राजनीतिक घटनाओं और मतदान व्यवहार का ठीक प्रकार से ज्ञान नहीं था । जबकि आज राजनीतिक जाग्रति जनता में स्पष्ट रूप से दिखायी दे रही है । जिसका परिणाम एक ही दल के युग की समाप्ति के रूप में हमारे सामनें आया । पर इसका श्रेय हम बहुदलीय प्रणाली को ही दे सकते हैं ।

आज देश में सत्ता की राजनीती न होकर विकास की राजनीती है और जिस तरंह से राज्य सरकारों नें अपनें अपनें राज्यों को विकास की ऊंचाइयों तक पहुँचाया है या पहुंचानें की कोशिश कर रहे हैं उसमें भी बह्युदालीय प्रणाली की भूमिका को नाकारा नहीं जा सकता ।

मिली- जुली सरकारों का स्तित्व में आना भविष्य के लिए तो हानिकारक माना जा सकता है पर इसको अंत करनें के और भी तरीके हो सकते है सिवाय दो दलीय व्यवस्था के अपनाए जानें के । हाँ यदि भारतीय इतिहाश को पुनः उसी आइनें के आवरण में देखना हो तो यह व्यवस्था उपयुक्त मानीं जा सकती है .......... ।

काश ! मेरी भी एक प्रेमिका होती

काश मेरी भी एक प्रेमिका होती
जीवन सुख निधि की कोशिका होती
भागीदारी हर क्षेत्र में करता
गर मुस्कान में उसकी भूमिका होती

वो पल सुखमय कितना होता
जब यादें उसकी आती
मेरी रूखी चुपडी स्मृति में
आहें देते बलखाती

नवयौवना की एक मीठी स्पर्श
तीखी स्वाद जवानी की
निर्मम सिसकी बाँहों के उसकी
करती हरण मेरे नादानी की

पास आकर दिखती कहती
छुओ मुझे कुछ सहेलाकरके
मेरे गुलाबी होठों को सदमें से
चुमों चाटो कुछ बहलाकरके

होगी तुम्हें रसानुभूति इससे
पकडो बाँहों को दे झकझोर
जितना हो सके लूटो इसको
बुझाओ प्यास, मेरी ,अपनी
उथल पुथल तोर मरोर

मैं भी प्यासा वो भी प्यासी
पर दोनों की एक उदासी
जब पकड़ता बाँहों में उसको
हकीकती दुनिया होती गुस्सा सी

ये सपने सच होते शायद
जब वो जीवन साधन की
एक जीविका होती
काश मेरी भी एक प्रेमिका होती

और वो वादा करती कुछ ऐसी
दर्शाती प्यार मीन- जल जैसी
श्वाती नक्षत्र की बूंदे बनकरके
अंतरात्मा की क्षुधा बुझाती

आती मटकी मार इठलाती
काले गलों को बालों पर सहलाती
होठों पर मदन की आहें चिक्कारती
बिस्तर पर पड़ते ही जब वो मदमाती

उसकी ऐसी क्रियाकलापों का
करता वर्णन मैं सुन्दरतम लेखो में
देश जहाँ में छाप होती अलग जब
अमित अनुराग मेरा भी होता आलेखों में

सब कोई पढ़ते आँखें दबाकर
अपनी उत्तेजना को स्वयं में सम्हाले
बच्चा , नवयौवना या वोल्ड बुढापा
छाती से लगाते कुछ शर्माकर

भाता मैं नवहीर से सबों को
जब वास्तव में वो
मेरी कविता की नायिका होती
काश मेरी भी एक प्रेमिका होती ............. ।

गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

मन

इस डाल से उस डाल पर उस डाल से उस डाल पर चलती रहती है हर समय हरदम इस ऊंचाई से उस ढाल पर । तुझे ही रहती है चिंता हर किसी के दुःख में सामिल होनें की । तुझे ही रहता है अफसोस किसी के सुख में न पहुँच पानें की । रहती है ख़बर तुझे ही क्या आरी पड़ोस में हुआ या हो रहा । घट रहा क्या देश समाज में , कौन पहुँच चला कहाँ तक कौन अभी तक सो रहा । सुन्दरता को निहारती तूं ही , तूं ही वासना का देती है साथ । होता है अफसोस तुझे ही ना सुंदर हो पानें की , रख रोती हांथों पर हाँथ। विह्वल हो जाया करती ममता से हो जाती अनाथों को देख अनाथ। करती तो सहायता हर किसी की पर देती है नकार होनें को साथ । ऐ मन तूं इतना ध्यान रखती है हमारा , ताहिं तो स्वीकारते हम तेरा परमार्थ ........... ।

चिंता

ऐ मेरी चिंता तूं कितनी भोली है रे! भोली है कितनी कि हर समय साथ रहा करती है । दुःख हो या विपदा, गम हो या निराशा, प्रतिदिन प्रतिक्षण यहाँ तक कि नीरवता में भी साथ दिया करती है तूं ! क्या मिलता है तुझको मेरे इस साथ में ? प्रसंसा के दो शब्द का भी तो हकदार नहीं तूं , तूं , जो करती है मजबूर सोंचनें के लिए , करती है उत्प्रेरित पानें के लिए , तूं बनाती है कमजोर बहानें के लिए आंसू किसी के मिलन या बिछुड़न पर । फ़िर भी इस हमारे सच्चे हृदय की न बन पाई वफादार है तूं । फ़िर तेरे इस भोलेपन का क्या वजूद? तुझे तो हो जाना चाहिए एकदम कठोर । पर फ़िर भी अभी तक तूं कितना भोली है रे ! ऐ मेरी चिंता तूं कितनी भोली है रे ........ ।

यादों का टूटा तारा हूँ

यादों का टूटा तारा हूँ

रहता हूँ यादों में बिछड़कर

चाहता हूँ निकलना भी, पर

जाऊं कहाँ यादों से हटकर

छूट जाते हैं जब हम सभी से

रूठ जाते हैं जब सब हमी से

हो जाता है अँधेरा

ना कहीं कोई साथी दिखता

ना कहीं कोई सवेरा

तब दूर देश से आती एक रोशनी

सब कुछ कहते सुनते हैं

रोशनी को अपना समझकर

यादों का टूटा तारा हूँ

रहता हूँ यादों में बिछड़कर ........ ।

भाग्य का बिछौना

कहते थे लोग जिनको

खिलौना खिलौना

हाथों का खिलौना

आना जाना काम था जिनका

किसी के पास सिर्फ़ मनोरंजन के लिए

वह आज बन गयी है

सबके जीवन की लकीर

जो मलिका बन गयी है

सबकी जरूरत का

पर

अपनी जरूरत

सुख समृद्धि का फकीर

उसको नहीं था आता

कभी किसी के साथ

रोना धोना

जिसको पता होता था सिर्फ़

अपनें सुख पर गाना

लेकिन आज पड़ता है उसको

सबके सुख- दुःख-गम में

अपनें नयन-नीर बहाना

अब उसे नही कहता कोई

खिलौना खिलौना

सब दोहाई देते फिरते हैं अब

बिछौना बिछौना

भाग्य का बिछौना

सिर्फ़ बिछौना बिछौना

भाग्य का बिछौना ............ ।

गुरुवार, 27 मार्च 2008

असर उसके साथ का

जब से वो मेरे दुनिया में आयी
सूर्य चन्दा से लगनें लगा है
उजड़ी थी जो कभी मेरी महेफिल
आज तारों सा सजानें लगा है

रोते थे हम कभी यूँ अकेले
अपनें दुखादों का दमन पकडके
आज रहती है साथ वो मेरे
दोस्ती की कसम एक ले के

दी कसम हमको भी दोस्ती की
आज उसको दिल ढोनें लगा है ।

मिलती वो मुझको सपनों में हंसकर
यूँ हकीकत में फूलों से खिलकर
करता हूँ याद उसको मैं हरपल
लाख मुशिबतों से भी घिरकर

मेरी भी याद रखती वो होगी
तह- ऐ - दिल से ये लगनें लगा है ................. ।

कहानी सुहानी

मैनें तो सोंचा था शायेद

कुछ सुनोंगे मेरी भी बातें

होता कैसे दिन गलियों मी मेरे

वितती हैं कैसे ये रातें

किस तरंह से जीते हैं वासी यहाँ के

खाते हैं क्या वो पीते

कब कैसे बीत जाते हैं पल

किस किस के ताने बाने सुनते

मिलती कौन उन्हें सावन बूँद - सम

सताती समेटे गमांचल में अपनें

खिलती फूलों में कैसे कलियाँ काटों की

दिखने लगते हैं जब बेगानों से अपनें

है कहानी सुहानी दिलचस्प जुबानी यहाँ की

मिलो कभी फुरसत में तो बैठ सुनाएँ

बातें करेंगे अनिल (हवा) से गोधूली बेला में

तब दिखा करेंगे रंग जागरण में दहकते ................. ।

उड़ते मन के ख्यालों से

हे मन आश तूं केके लिए है

प्यार वफ़ा रिश्ते सब नाते बस थोड़े दिन के हैं

आज खुसी कल खिल खिल हँसना परसों गाना हाल

नरसों सुन कुछ गुस्सा होना अगले दिन दुःख के हैं

भूल जा चेहरा फ़िर से उनके जानें से ले सन्यास

तीखे वचन "अनिल" शरीर शालत अच्छे के मालिक के हैं .................. ।

मैं तो मातु चरण रज प्यासा

कब आएगी अमृत -रज उसकी कब देगा मन दिलासा

सोंचा था प्रतिपल साथ वो मेरे होगी शाश्यामल जीवन गाथा

उसकी ममता हर वो सुख देगी मन लहरेगा ध्वजा सा

अब तो मम ख्वाबें भी रूठे दामन पकडी निराशा

जीवन मैं सब सुख साधन हैं पर नहीं उसकी आशा ................ ।

बुधवार, 26 मार्च 2008

प्रियतम संदेश

ये हवा जाके उनसे कह देना

हम याद बराबर करते हैं

वो चाहे जितना दूर रहे

पर मेरे दिल में रहते हैं



याद हमारी उनको भी

दिन रात सताया करती है

सब जान के वो अनजान बने

दिल दर्द शिकायत सहते हैं



हम आज भी पहले जैसे हैं

जिस हाल में थे कुछ वैसे हैं

पर वो हंस कर कह देते है

हम कुछ कहनें से डरते हैं



कुछ ऐसा संदेसा भी कहेना

कुछ उनकी भी तुम सुन लेना

पर चुप रहेना बुत बनकर तूं

हम जैसे गुमसुम रहते हैं



अरविंद सो आनन दिखता है

फूलों की गली में घर उनका

कुछ और पता हम भूल गए

पर गुल की गुलशन में रहते हैं



ये हवा जाके उनसे कह देना

हम याद बराबर करते हैं

वो चाहे जितना दूर रहें

पर मेरे दिल में रहते हैं ............... ।

अब मुझको पवन बन जन होगा

अब मुझको पवन बन जाना होगा
कितना दूर कितना पास
कौन कहाँ कब रखता है आश
पास पहुँच सबके अब मुझको
समाचार कुछ लाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा

कितनी खुशियाँ किसके घर हैं
कौन सचेत कौन बेखबर है
किसको कौन आता है रास
सोंच समझ मुझको ही अब
एक आंकडा नया बिठाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा

कहाँ रही बह नीर-नयन
सहत रहत जन भूख-शयन
रहा तड़प कौन प्यास से
कुछ पानी दाना पहुँचाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा

सो रहे जो प्रेस वाले हैं
राजगद्दी पर बैठे मतवाले हैं
उनके मन को पकड़ एक दिन
इन सुनें नगर को दिखलाना होगा
अब मुझको पवन बन जाना होगा ................. ।

मंगलवार, 18 मार्च 2008

ऐसी आए मेरी रानी

हे इश्वर भगवन प्रभु

हे मावा महरानी

करो ऐसा जुवाड

जेसे आवे हमारो रानी

गोरी हो या वो काली

पर लगे सदा भौकाली

लहंगा पहने गोरखपुरिया

नथुनी राजस्थानी

पैर जुडा हो दोनों तन से

एक हो छोटा एक बड़ा

निकुरा हथिनी सूंड के जैसी

हो एक आँख की कानी

नाक निकुरे से छूती रहे

घूमें जूठ लगाए मुख में

चले जिधर भी करें घृणा सब

पर समझे वो ख़ुद को रानी

जब भी निकले घर से वो

कीचड तन में लगा रखे

तन भी फूली हो मुर्रा भैंसों सी

बैठत होवे परसानी

गर ऐसा प्रभु हो गया तो

होगी सटी सावित्री ही वो

बची रहेगी बुरी नजरों से सबके

मैं बना रखूंगा उसे अपनें महलों की रानीं

हे इश्वर भगवन प्रभु ..................... ।

ऐसी आएगी मेरी घरवाली

स्वच्छ सुसज्जित सुनायनों वाली

आएगी मेरी घरवाली

मुख पर तनिक भी बात ना होगी

चमकेगी होठों पर लाली

थोडी सी वो गोरी होगी

हल्की ही सी सावली

पतली सी सारी पहनकर

कर देगी सबको बावली

उसकी भोली सी सूरत पर

हो जाऊंगा मैं कुर्बान

चाहे चर लात रोज ही मारे

जोहूँगा मैं उसकी मुस्कान

नाकों में नथुनी होगी

और कानों में लतकेगी बाली

सासु जी को हर समय तोदेगी

और श्वसुर को देगी गाली

कहते कविराज वो मायावी होगी

होगी चर घूँसा खानें वाली

अवगुण तो उसके पैरों तल होगी

ऐसी आयेगी मेरी घरवाली

ऐसी आएगी मेरी घरवाली .......... ।

सोमवार, 17 मार्च 2008

अगर कहीं कुछ हो जाता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

गजब की चिंता होती है मन में
हलचल सी उठ पड़ती है

एक मार्ग से हटते हटते

आँखें भी रो पड़ती हैं

पर धैर्य खो देता है तन

मन शांत नहीं रह पता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

लाखों करोरों भावनाएं

लेकर आसमा में चक्कर लगाते हैं

एक बार अंतरिक्ष पहुंचकर

धरती वापस आते हैं

मुख्य बिन्दु पर चलते चलते

बुद्धि ही खो जाता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है


रहता एक कहीं अगर तो

चार उसे मैं बनता हूँ

अपनी झूठी खबरें देकर

सबको खुश कर जाता हूँ

पर मजबूरी हो चली यहाँ पर

असत नहीं छिप पता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है


किसी हादसे में कहीं से

आलसी अगर आ जाता है

ch च करते करते वहाँ

ख़ुद घायल हो जाता है

अन्ताहल में आकर सबको उस पर रोना पड़ता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

कुछ अच्छे कुछ बुरे जुटते

रहते उस शोकापन में अपनी बीती बातों को
कह जाते एक घतानापन में
वो विचरते देते सुख हम पर

दुःख ही उनको मिलता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

कुछ सहकारी कुछ ग्रामीनी

आ जाते दो जन के गम में

कुछ घूसखोरी कुछ खिश्निपोरी

कर जाते उनके अंधेपन में

चिंता मुझको इस पर होता है

जल्द मानव घबडाटा है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

अपनें विगत गत जीवन को वो

खुश्खोरों को बताते हैं

स्थ घूसखोरी के कारन

एक को चार बनाते हैं

सब बातों को छोड़ जवान दिल

इनकी बातों में उलझता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है ................ ।




सोमवार, 3 मार्च 2008

और दे जायेंगे काम यही १०-५ रुपये

अब नहीं सहा जाता और ना ही तोदेखा जाता है आर्थिक तंगी की दशा । जैसे जैसे दिन बढ़ रहे हैं , उम्र बढ़ रही है ऐसा आभाष होता है की ये आर्थिक समस्याएं पूरी तरंह से हमें अपनी गिरफ्त में लेती जा रही हैं। जबकि ऐसा नहीं है कि इससे मैं ही दुखित हूँ या ये कि मैं ही झेल रहा हूँ । भोग रहा हूँ। इस दशा को इसके पहले भी हमारे ही दादा, बाबा, यहाँ तक कि बड़े भाई तक इस तंगी से मुखातिब हो चुके हैं । और जैसा कि अब भी झेल रहे हैं , हालांकि वैसी मुसीबत मेरे ऊपर नहीं आयी पर आज ये भी नहीं कह सकता कि मैं एक एक पैसे के लिए नहीं सहका । आज मैं विद्यार्थी जीवन का निर्वहन कर रहा हूँ ,कहा जाता है कि विद्यार्थी जीवन सबसे सुखमय जीवन होता है। ना कूँ चिंता और ना ही तो कोई फिक्र । खासकर आजके इस फैश्नबुल जमानें में तो और भी सही है । पर ऐसी स्थिति में पैसे के मत्वा को तो नजरंदाज नहीं किया जा सकता । जब तक जेब में १०-५ रुपये नहीं होते न तो किताब नजर आती है और ना ही तो कुछ पढ़नें का दिल करता है। वैसे भी १०-५ रुपये आज के इस महंगाई के दौर में कोई मायनें नहीं रखता पर कहीं भी बैठ जाओ एक दोस्त के साथ तो २०-२५ के करीब वैसे ही पड़ जाते हैं । पर क्योंकि कोई साधन नहीं है, कोई विशेष आश्रय नहीं है और ना ही तो पिता की कमाई । माँ है जिसका ख़ुद का खर्चा अपाध है ,बड़े भाई तो हैं पर क्योंकि १८ की उम्र पार कर चुका हूँ अब वह बचपना भी नहीं रही कि जिद करके या रो के ले लूँ, मांग लूँ। बडा हो गया हूँ और स्वाभिमान का अभिमान । १०-५ ही मेरे लिए बहुत है और कोशिश करता हूँ कि ये बचे रहें खर्च न हों । पर फ़िर भी कमबख्त यूँ ही आँख के सामनें से ख़ुद के ही हाँथ से स्वयं के जेब से निकलकर चले जाते हैं दूसरों के पास ।

पहले (बडे भाई के पास रहते हुए)समोसे अच्छे लगते थे ,न्यूदाल्स और मंचूरियन प्यारे लगते थे । वर्धमान मंदी में जाकर गोल गप्पे खाना तो एक परिवेश ही बन गया था मेरा। पर वही जब अब कहीं दिखते हैं तो तुरंत मन मचल जाता है। पहुँचनें की एक कोशिश तो करता हूँ उनके पास पर असफल क्योंकि वही १०-५ अगर बच जाते हैं तो दूसरे दिन मिर्चा आ जाएगा , या फ़िर एक्शातेंशन लाइब्रेरी में २ रुपये साइकिल स्टैंड के लगते हैं और दी जायेंगे कम यही १०-५ रुपये । ऐसी स्थितियां प्रायः लोगों के पास कम ही आती होंगी पर हमारी तो दिनचर्या ही इसी से सुरु होती है। अर्थात सुबह से ही १०-५ रुपये को बचानें का उपक्रम करता रहता हूँ और शाम होते होते २०-२५ रुपये खर्च होकर अंततः एक दिशाहीन मोड़ पर आकार सोंचानें के लिए मजबूर हो जन पड़ता है।

आज नंददुलारे वाजपेयी द्वारा लिखित पुस्तक कवि निराला पढ़ रहा था और क्योंकि निराला की दिनचर्या भी लगभग इसी लहजे में हुआ करती थी प्रारम्भ और यह जानने पर कि निराला का दानी स्वभाव बहुत हद तक उनकी अर्थ समस्या थी " रिक्शे वाले या पं वालों को पैसा देकर वापस न लेना उनका स्वभाव नहीं अपितु कट जाता था उसमें जिसे प्रायः वे उधार(कर्ज) लिए रहते थे । खीझ उत्पन्न हुयी सम्पूर्ण मानवीयता पर पर यह जानकर कि आर्थिक दुर्दशा अन्य दुर्दाषाओं से प्रायः थिक हुआ कराती है अपनें आप को समझाते हुए यह एक लेख लिखना ही उचित समझा। ......................

हमपे क्या गुजरेगी जब हम उस गुरु को छोड़कर नव जीवन के नव आँगन में प्रवेश करेंगें ?

कादम्बनी के "आयाम" स्तम्भ में प्रकाशित विश्वनाथ त्रिपाठी की प्रायः गद्य विधा के संस्मरण विधा में रची रचना या आत्मीय लेख ,"उन छात्रों की याद आती है" पढ़कर सहज ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गुरु गुरु ही होते हैं उनका स्थान तो कोई और ले ही नहीं सकता । एक स्थान पर वे जब कहते हैं,"गुरु माँ-बाप नहीं होता"तो मुझे ऐसा लगा जैसे कोई बहुत बडा रहस्य आज की पीढ़ी से, खासकर हम नवयुवकों से छुपाकर रखा जा रहा है । पर जब उसी अंदाज में आगे वे लिखते हैं,"वह कुछ ऐसा भी होता है, जो माँ-बाप नहीं होते" तो मुझे अपना छात्र जीवन याद आ जाता है । जो अब भी मैं अपनें उसी गुरु के संरक्षण में छात्रीय जीवन को न सिर्फ़ जी रहा हूँ अपितु उसका आनंद उठा रहा हूँ। श्रीमान त्रिपाठी जी जिस तरंह आपका श्री प्रकाश अपने घर के समस्याओं से आहत था ठीक वही दशा आज हमारी है। फर्क तो सिर्फ़ इतना है कि उसके पास आप गुरु विश्वनाथ त्रिपाठी थे और मेरे पास गुरु सुनील अग्रवाल जी जो कमला लोह्तिया सनातन धर्म कालेज( लुधियाना) के राजनीती शास्त्र के प्रमुख अध्यापक हैं। वह समस्याएं आपको सुनाता था मैं सुनील सर को ।
पर निहायत ही आज के इस समय में बहुत से विद्यार्थी ऐसे होते हैं जो न तो अप जैसे गुरु का दर्शन ही कर पते हैं और ना ही तो अपने आपको ऐसे छात्र के रूप में प्रस्तुत ही कर पाते हैं जिससे कि गुरु और शिष्य के उस सम्बंध को एक उए "आयाम"तक पहुँचाया जा सके । बात तो यह भी सही है कि "सभी छात्र इतनें प्रिय और आत्मीय नहीं होते" क्योंकि आज वे शिक्षा को शिक्षा की तरंह नहीं अपितु व्यावाशय के रूप में ले रहे हैं । और ऐसी स्थिति में तो जो गुरु शिष्य परम्परा का केन्द्र होता है संवाद पूर्ण रूप से टूट गया है।जहाँ एक अध्यापक को अपने सिर्फ़ ४५ मिनट के लेक्चर से मतलब होता है वहीं विद्यार्थी का उस प्रणाली के डेली अतैन्देंस से यथास्थिति तो आज ये कहती है की अध्यापक जन अपना अध्यापकत्वा ही खोते जा रहे हैं । अब तो आप जैसे लोग जो यह कहते हैं ," विश्वविद्यालय में क्लास लेनें के बाद तीसरे पहर , मैं अक्सर छात्रों के साथ बैठकर गप मरता था ।" न होकर ऐसी श्रेणी के अध्यापक प्रायः हो रहे हैं जो उतने समय गप मरनें के भी शुल्क (फीश) ले लिया करते हैं अन्यथा इस रूप में उनके पास नहीं बैठते की उनके लिए उनके परिवार से ही फुरसत नहीं है।
पर हकीकत यही तो नहीं है । संवाद का जरिया यहीं से टू खत्म नहीं हो जाता। एक अनजानें अंचल पर रह रहा छात्र जिसका प्रायः ना तो उसका वहाँ घेर होता है और ना ही तो उसका अपना जन्मभूमि । होते हैं तो आप ही "जो कुछ ऐसा भी होता है जो माँ -बाप नहीं होते ।" ऐसी स्थिति में वह विद्यार्थी स्वार्थी तो नहीं कह सकता पर अभागा जरूर हो सकता है जो अपनें गुरु नहीं गुरु के रूप में पाया हुआ माता-पिता को अपना हाल नहीं देता और ना ही तो उसका लेता है ।वे शायद यही भूल जाते हैं की "माँ-बाप का दुःख असहनीय होता है, वे रोते धोते भी हैं"
वास्तव में जब आप कहते हैं,"मेरे अनेक विद्यार्थी ऐसे भी थे, जो हमें बीच में ही छोड़कर चले गए । निहायत आत्मीय, प्रतिभाशाली छात्र । उनकी याद से हूक सी उठती है । हमारी स्मृत चेतना विवश चीख करती है और चुप हो जाया कराती है ।" मैं प्रतिभाशाली होनें की तो आशा नहीं कर सकता और ना ही तो यह कह ही सकता हूँ की आपके श्री प्रकाश और अन्य विद्यार्थियों की तरंह गुरु की पवित्र आत्मा में जगंह ही बना पाया हूँ पर एक बात जो मुझे सालती है वह यह की आप तो गुरु हैं, अर्थात माता-पिता, जिन्हें गमों और दुखों को सहेना लगभग एक आदत सी बन गयी होती है , किसी तरंह उनके बिछुदन को सह भी लेते हैं , पर मैं या मेरे जैसे अन्य छात्र जब आप और सुनील सर जैसे माता के आँचल और पिता के प्यार को सिर से उठाते देखते होंगे या आभाष करते होंगे तो उनका क्या होता होगा ? आपकी इस रचना को पढ़कर वास्तव में ह्रदय द्रवित हो गया है। आँखें नम हो आयी हैं । इसलिए तो हई है की आप के दिल पर व आप पर क्या गुजरती होगी जब हर साल ऐसे शिष्य को विदा करते होंगे , इसलिए भी की हमपे क्या गुजरेगी जब हम उस गुरु को छोड़कर नव जीवन के नव आँगन में प्रवेश करेंगे ? क्या उस समय भी आप जैसे गुरु या सुनील सर जैसे गुरु हमें मिल पायेंगें ? जो "छात्रों के साथ क्लास लेनें के बाद तीसरे पहर में अक्सर बैठकर गप मारा करें."

बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

जहाँ पढ़ना और पढाना ही सब कुछ होता है...

आज कई दिनों से जब मैं स्व-वेदना और पारिवारिक दुर्दांत के ग्रसन से मुक्त हो अपने अध्ययन कार्य में पुनः व्यस्त हो चुका हूँ, तबसे मेरे कुछ दोस्त अक्सर ये कहते हुए, और जैसा की मैं भी मनता हूँ कि मैं कालेज बराबर नहीं आ रहा हूँ। यदि आ भी रहा हूँ तो लगभग क्लासों में बंक मार जाता हूँ । मेरे चाहने वालों में तो कई लोग यह भी कहते हुए नहीं हिचकते कि कहीं मैं "इलाहबाद "में चल रहे "नहावन" में तीर्थ यात्रा करनें तो नहीं गया था। सही है उन सब का सोंचना, और जाहिर है ऐसे प्रश्नों का उठना । दरअसल अबतो मैं भी मनता हूँ कि मैं तीर्ता यात्रा में नहीं पर तीर्थ-स्थल पर जरूर रहता हूँ । जहाँ पर कभी कभी मुझे इलाहबाद के ;"शास्त्री पुल"पर " निराला" की "वह तोड़ती पत्थर"वाली औरत भी मिल जाया करती है और कभी कभी मुंशी प्रेमचंद के "गोदान" का होरी गऊ दान के स्वप्न लिए उसी तट पर दिखाई देता है । जहाँ दिनकर के "रश्मिरथी" का कर्ण दलितों के उत्कर्ष के लिए हांथों में अर्ध लेकर सूर्य से प्रार्थना करते हुए दिखाई देता है वहीं अज्ञेय के "हरी घांस पर क्षण भर" के लिए बैठे एक प्रेमी जोडा यह सोंच कर उठता हुआ प्रतीत होता है कि कहीं ये ईर्ष्यालु समाज उनको कुछ और न समझ बैठे ।
इस तीर्थ- स्थल की जीतनी भी प्रसंसा की जाए उतनी ही कम है । क्योंकि यहाँ पर हमारी संस्कृति है , सभ्यता है , परम्परा का निर्वहन कराने के लिए नए और पुराने व्यक्तियों के बीच संवाद का जरिया है और है जीवन को जीने की कला । एक ऐसी कला जिसमें मार्क्सवाद के दर्शन यदि आर्थिक समस्याओं के हल खोजने की प्रेरणा देता है तो गाँधी जी के विचार उसको पाने का तरीका बतलाता है । जहाँ कबीर दास ,"का बाभन का जुलाहा" कहकर समाज में भाईचारा को बढ़ने और जाती-पांति को ख़त्म कर देना चाहते हैं वहीं घनानंद जी यह बतानें के लिए उद्यत हो रहे हों कि इस मार्ग पर चलने का एक ही तरीका है और वह है प्रेम । एक ऐसा प्रेम "जहाँ सांचे sचले तजि अपुनपौ झाझाकी कपटी जे निसाक नहीं।"
यहाँ मोहन राकेश के "अशाध का एक दिन"से संवाद करती मुक्तिबोध की "अंधेरे में "खड़ी कविताएँ है जो पूर्ण होते हुए भी मोहन राकेश के दुनिया में "आधे अधूरे " हैं। यहाँ पर आशा है, निराशा है , वेदना है संवेदना है और है फणीश्वरनाथ रेणू की आंचलिकता । "मैला आँचल" "परती-परिकथा"यदि जीवन की वास्तविकता पर आने के लिए मजबूर कर देती हैं तो "रस्प्रिया", "तीसरी कसम", "आदिम रात्रि की महक",तथा "संवदिया" मध्यम से श्रद्धालु परदों के पीछे छुपे हुए सत्य को पहचानकर मानवीय संवेदना को वेदना के स्वर से भर कर समाज में नव क्रांति लाने को उद्यत हो उठता है । जहाँ पर हर कोई ऐसे पवित्र स्थल पर मत्था टेक कर जतिवादिता और वर्ग-भेदभाव के कारण खड़ी दीवार को तोड़ देना चाहता है, दहा देना चाहताहै और चाहता है निर्माण करना ऐसे परिवेश और सभ्यता का जहाँ पर मानव का मानव के साथ व्यापार का नहीं मानवीयता का सम्बंध हो ,और हर कोई , हर किसी से , अशोक वाजपेयी जी के "कविता का गल्प" का माने तो संवाद करता हुआ दिखाई दे , चिंतन करता हुआ दिखाई दे , अपने जीवन के प्रति , अपनी वास्तविकता के प्रति और सबसे आवश्यक तथा महत्वपूर्ण समस्या साहित्य और समाज के प्रति । की जब साहित्य व्यक्ति की समस्याओं को केन्द्र में रखकर उनके लिए निराकरण खोजने का प्रयास कर रहा है तो आखिर क्या कारण है कि साधारण-वर्ग से लेकर उच्चा-वर्ग , और अध्यापक वर्ग से लेकर विद्यार्थी -वर्ग तक उससे अपनी दूरियां बढाये जा रहा है । कि जब कविता चाहे "भिक्षु" हो या "दींन" , चाहे "वह तोड़ती पत्थर" हो अथवा अर्थहीन जीवन का रोना रोता वृद्ध "चल रहा लाकुटिया टेक" हो इन सबका इन सबके अपने अपने अर्थों में साथ दे रही हो तो आखिर वे सब क्यों उसके विकास और संवर्धन के विषय में उदासीन हैं ।
वास्तव में दोस्तों मुझे बहुत ही आनंद आ रहा है इस तीर्थ स्थल पर आकर। जो तीर्थ यात्रा से ज्यादा पुण्य कमाने का अवसर देती है । श्रद्धा देती है और देती है हौसला जबकि क्लास में क्या है वही ४५ मिनट डेस्क के सामने कुर्सी पर बैठा एक इन्सानिं मूर्ती । या समय पर पहुँच कर लगातार ४५ मिनट लिखवाने वाला ट्यूटर , अथवा फ़िर ये कहें कि गुरु के मर्यादाओं के साथ खेलते हुए "बुद्धिमान बुद्धू" विद्यार्थिओं की संगती । बहुत हद तक अब तो आप सब ये sweekare ही होंगे कि हाँ "ये सब ये सब कुछ" । तो जब ये सब ये सब कुछ है तो आप सब भी आ जाओ इस तीर्थ स्थल पर "जिस तीर्थ स्थल का नाम है "साहित्य" "साहित्य का संसार" और अगर गुरु प्रो० सुनील अग्रवाल सर का मानें तो "आनंद का स्वर्ग" , जहाँ पर पढ़ना और पढाना ही सब कुछ होता है । ..............................

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

आलस्य-युग में मनुष्य लक्ष्यहीन एवं पूर्णरूपें कर्महीन होगा

जंग करना आसान है। जंग में विजय प्राप्त करना आसान है। किन्तु यह जंग तलवारों की हो न की आपसी विवादों की । जहाँ जंग तलवारों की होती है वहां फैसला बाहुबल पर जाता है तथा विजय प्राप्त करना कुछ हद तक मुमकिन हो जाता है। और जब यग लड़ाई आपसी विवाद की होती है , तब दिल कुछ भी करनें से इंकार कर देता है। फिर इन्सान कर भी क्या सकता है? कलह, अशांति व्यक्ति को इतना लाचार कर देती है कि व्यक्ति दिन प्रतिदिन निराशा एवं आत्मग्लानी में डूबता जाता है। एक दिन वह समय आ जाता है जब जिंदा आदमी बुत्परस्त बन जाता है । सब कुछ देखता हुआ भी अनदेखा कर देता है । सब कुछ जानकर भी वह अनजान बन जाता है । अपनी पहचा वह इस कदर भूल जाता है, जैसे डाल से टूटा हुआ पत्ता । यह आत्मविश्वाश ही कितना सहायक होगा ? नसीब ही कितना साथ देगी ? कोई किसी का भला क्या कर सकेगा ? इन सभी विवादों में उलझाना, साथ ही साथ इन विवादों का निराकरण कैसे निकले ? कौन हल करे ये छोटे- छोटे दो चार विवाद ?
अजीब विडंबना है । आज इन्सान खुद को ही नहीं बता पा रहा है कि वह क्या है, उसके अंदर कितना गुण समाहित है,वह समाज के लिए कितना उपयोगी है ? वास्तविकता तो यह है कि आज प्रत्येक व्यक्ति अपनें स्वाभिमान के परे एक कायर की भांति जीवन बितानें में अपना कर्तव्य समझ रहा है। फिर क्या हक है उसे किसी दूसरे पर टिप्परी करनें की ? वह क्यों भाषण देता है कि हम परिवार या समाज की भलाई के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर सकते हैं ? एक आलसी की भाँती जीवन यापन करना इन्सान को शोभा नहीं देता। आलसी व्यक्ति अपनें किसी कार्य को करनें में असमर्थ होता है । फिर वह परिवार समाज या किसी और के विषय में क्या सोंच सकता है ? यदि आज जन जन, बच्चा - बच्चा आलस्य का त्याग नहीं करेगा तो आने वाला समय आलस्य - युग के नाम से जान जाएगा। अर्थात , आलस्य-युग में मनुष्य लक्ष्यहीन एवं पूर्णरूपें कर्महीन होगा । .............

सोमवार, 4 फ़रवरी 2008

फिर क्यों रख रो रही वह अपनी पकी रोटी?

जल रही आग के आगे
तप रहे तावे पर , बैठी
रख रही वह पिसान कि तहें
धीरे धीरे नरम हांथों से
उलटती पलटती देखती
फिर चौपतती
फिर पहुँचाती सबके सामने
कच्ची है रोटी
काले धब्बे ज्यादा पड़ गए हैं
अभी और पकाना था
नहीं लगाई आंच
पक तो गयी , पर जल गयी
ज्यादा लगाई आंच
नहीं इसमें कोई स्वाद
हो गया सब बर्बाद
रख , पका दूसरी रोटी
देना उसे जो आये मेरे बाद
जली , भुनी , रोई
पस्ताती फिर ले आयी रोटी
वही धुवां वही आग
पर पसीना है नया
उलट पलट तरासती
फिर वही नयी रोटी
बन गयी रोटी एकदम नयी
पर फिर क्यों रख रो रही
वह अपनी पकाई रोटी ?.............

रविवार, 3 फ़रवरी 2008

..........इज्जत क्या,उनको रोटी भी नसीब होती है तो इन्हीं चमारों के कारन

कभी कभी, जब कभी , कोई ऐसी रचना हमें पढनें को मिलती है, जिसमें भारतीय वर्ण-व्यवस्था के प्रति व्यंग और मानव जीवन को पाने के बावजूद पशुतर जीवन जीने के लिए मजबूर निचली जातियों, अर्थात दलितों की समस्याओं को सत्य के धरातल पर रख उनके निरासमय जीवन के प्रति, कुंठित भावनाओं एवं संवेदनाओं को, जहाँ दुखों को सहना उनकी परंपरा और वैसे वातावरण में रहना, जहां न तो साफ सफाई हो और ना ही तो कोई घर बार हो , हो तो झुग्गियां- झोपरियाँ । जिनका समय या असमय कभी भी नष्ट हो जाना निश्चित ना हो, उनका परिवेश बन जाता है। ऐसी कहानियो को सुनकर या पढ़कर निश्चित ही ह्रदय में दो तरहं की चिंगारियां फूटती हैं जिसमें एक वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरहं समाप्त कर देना चाहती हैं जबकि दूसरी उन दलितों को, जो पशुतर जीवन जी रहे हैं, वर्ण-व्यवस्था के प्रधान, ब्रह्मण और क्षत्रियों के बीच खड़ा कर देना चाहती हैं।
रामनिहोर विमल की कृति,"अब नहिं नाचाब" हालांकि इसकी रचना १९८० के आसपास की गयी पर भारतीय वर्ण-व्यवस्था की प्रधानता से पूरी तरहं लड़ती हुई और सूद्रों , चमारों एवं दलितों के अधिकारों का समर्थन करती हुई एक ऐसे रंगमंच का निर्माण करती है जहां यदि दलितों को उत्साहित होनें की प्रेरणा मिलती है तो क्षत्रियों और ब्राहमणों को ग्लानी और वर्ण व्यवस्था के प्रति, जो हमारे पूर्वजों, वेदों, तथा उपनिषदों के द्वारा हमें प्रदान किये गए, क्शोभित होनें के लिए हमें मजबूर कर देती है।
अपनें वक्तव्य में विमल जी यह बात मानते हैं,"हमनें इस कहनीं को घटी होते हुए नहीं देखा।"पर आज के परिप्रेक्ष्य में और खासकर जिस समय यह लिखी गई, पूर्णतः सत्य सिद्ध होती है। कन्हाई भगत का, जो कहानी का मुख्य पत्र है, पंडित विद्याधर चतुर्वेदी तथा बाबु साहब शेर शिन्घ से दंडवत प्रणाम करना और उनका ध्यान ना देना। ध्यान देते हुए भी,"उठ उठ ससुर तुम लोग को समय असमय का जरा भी ख्याल नहीं , जब भी मेहरिया भेंज दिहिस, चलि दिहें।"दुत्कार कर अपमानित करना ब्रह्मण और क्षत्रियों का तो परिवेश ही बन चूका था। आज के परिवेश में भी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के लगभग ८०% दलितों की, जहां सवर्णों की बहुलता पाई जाती है,यही दशा है । जो ना तो उनके सामनें खड़ा हो सकते हैं और ना ही तो उनके साथ, उनके खाट पर बैठ ही सकते हैं। ये आज भी समझते हैं,"चमारों की इज्जत जानें से गाँव की इज्जत नहीं जाती। और जिस गाँव में चमारों की इज्जत होती है, उसमें फिर हम लोगों की इज्जत नहीं होती।" पर शायद ये भूल जाते हैं कि इज्जत क्या उनको रोटी भी नसीब होती है तो इन्हीं चमारों के कारन।............................

सोमवार, 7 जनवरी 2008

मुस्कराहट

ग़जब की चीज है मुस्कुराहट
आ जाती है , खुद-ब-खुद

न कोई पता बगैर किसी आहट


रोता है दिल तो आती है

हंसती है महेफिल तो आती है

आती है मुस्कुराहट बेवजह
ना कोई पता बगैर किसी आहट


पर कई दिनों से
घट रहा जब सब कुछ

हो रहा जब सब कुछ

सब कुछ सहना ही रह गया

जीवन में कुछ
कोशों दूर कड़ी मुस्कुरा रही
ये स्वार्थी मुस्कुराहट
ना कोई पता बगैर किसी आहट................... ।

वह चिड़िया

वह चिड़िया


दूर से दिखती है


फर्फराते हुए उसके पंख


सुनाई देते हैं , वह लकती है


आंखों में कुछ सपने दिखाई देते हैं


सपनों को संवारने की ललक लिए


पिज़डे में पड़ीं खिड़कियों को निहारती है


वह चिड़िया



ऐसा एक दिन की नहीं


रोज रोज की कहानी हो गयी है

पहले था बचपना , पर अब सायानी हो गयी है


पिज़डा ही उसकी मंजिल, पिज़डा ही उसकी आशा


पिज़डा उसकी पहचान , पिज़डा ही उसकी भाषा


जैसा रहा बचपना वैसे ही बीती जवानी


नहीं कर पायी भेद उसमें और देखती रही सपने


वह चिड़िया ..................................... ।