गुरुवार, 27 दिसंबर 2007

स्मृति के झरोखे से

हुआ क्या कदम आज रुकने लगे

तुम मुझे आज बेगाने लगने लगे

ऐ प्रिये कुछ बताओ भला क्या हुआ

तेरे हर गम में खुश हम यूँ लगने लगे


याद कर लो उसी दिन को जब तुम मिले

थे मिटे उस दिन पहले के कितने गिले

फिर गिले आके आख़िर क्यों ऐसे मिले

कि एक दूजे के दुश्मन हम लगने लगे


तुमने कहा कुछ क्या हमने सुना

क्या हमने कहा तुम समझते गए

कुछ सुने भी गए कुछ रहे अनसुने

दोष तुमपे तुम हमपे यूँ मढ़ने लगे


चला न पता दोष किसका कहाँ तक

न तुम नम हुए ना ही हम कम हुए

बात एक दिन न हो न बिताए बिते

आज दूरी को ही नजदीकियां हम समझने लगे


चलो अच्छा है प्यारी ये अच्छा ही था

अब आगे बढ़ो कुछ समझते हुए

कुछ ऐसा करो कुछ लगे कुछ भला

ताकि दूरियां नजदीकियों में बदलने लगे ............... ।

गुरुवार, 6 दिसंबर 2007

रिश्तों पर-2

दिया था कसम भौरों ने फूल को जब
जनम भर रहेगा ये बन्धन हमारा
कड़ी धूप में,वर्षा, ठंडी हर पहर में
चमका करेगा प्यार का ये सितारा

कहा
फूल से एक दिन भौरे नें खिलखिलाकर
प्रिये तुम रहोगी सदा सर्वदा ही हमारी
न प्यारी खूबसूरती न लालच है यौवन का
न समझना कभी मुझे सौंदर्य का पुजारी

नियत ही है मन मानवीय स्वभाओं से निर्मित
कभी गर ये भटके तो कहेना न विलासी
अगर भूल चाहे चखना स्वाद तेरे हुस्ने जहाँ का
बनाना मुझे तत्क्षण स्व-मन मर्जी का प्रवासी

सौंदर्य का पुजारी तो जहाँ ही रहा है
न चलना मुझे रीति-पथ अनुसरण कर
कहाँ घर, जाती, धर्म, रीति कौन सा है तुम्हारा
न मतलब है रहेना हमें नैतिकता को वरण कर

बना स्वर्ण माटी वही जाती थी वह
बँटा पूर्व थाती वही धर्म था वह
बने थे हम दानव नैतिकता को तजकर
हुए थे विलासी वही रीति थी वह

वही परंपरा थी भूल कर्तव्य लड़े हम
जहाँ ने था देखा बर्बादी को अपने
सितारों ने बनाया था जो स्वर्ग इस जहाँ को
हुए नर्क से बद जो देखे न सपने ...................

मंगलवार, 4 दिसंबर 2007

रिश्तों पर-1

जिंदगी कभी कभी बहोत हारी,सुस्ताई और मायूस सी लगती है। खासकर तब जब कोई अपना या कोई अपना लगने वाला उसके प्रति अपने कर्तव्यों से विमुख होने लगता है। और तब न तो ये कलम काम करती है और ना ही तो ये सोंच या कल्पना जिससे कुछ नया विचार करके उससे निजात पाने का तरीका ढूँढा जा सके। यही दुखित मन अपने ही पता नही क्या क्या सोंच लेती है और कौन कौन से ताने बाने बुन लेती है कि सहसा ही मन में एक तरंग उठती है और वह उसका साथ छोड़ देने के लिए अपनी सहमति प्रदान करती है। पर क्या किसी समस्या का हल केवल त्याग में ही संभव है ? क्या उसके लिए कोई और प्रयत्न नहीं किये जा सकते ? किये जा सकते हैं, पर यह प्रयत्न केवल मात्र उसी पर ही निर्भर नहीं होनी चाहिये। आख़िर उसमें भी तो दोनों के अभिव्यक्ति की आवश्यकता होती है। पर किस बात की अभिव्यक्ति ? परिश्रम की अभिव्यक्ति, विचारों की अभिव्यक्ति या एक के प्रति दूसरों के आत्मसमर्पण की अभिव्यक्ति। शायेद ये सभी हो सकते हैं। बस अवसर की अनुकूलता होनी चाहिये। अवसर कब, कहाँ, किसको मिलती है ये तो नहीं कहा जा सकता पर अवसर की भी तो उत्पत्ति शायेद एक ही के हित में होती है। जबकि उसमें भी लगभग दूसरे का अहित ही छिपा होता है।
आख़िर इस प्रश्न के बार बार उठाने का क्या कारन है कि मैं उसके लिए सब कुछ करता हूँ वह मेरे लिए कुच्छ नहीं करता या उसके एक ही इशारे पर मैं आशामन के तारे तोड़ने को उद्यत हो उठता हूँ और जब उसकी बारी आती है तो ऐसा आभाष होता है कि उसका छत ही गिरता जा रहा है। क्या इसमें रिश्तों के टूटने का साफ साफ संकेत नहीं मिलता ? आख़िर ऐसी अवस्था में त्याग का विचार नहीं आएगा तो क्या सम्बंध बनाए रखने का विचार आएगा ! संभवत दोनों ही हो सकते हैं। पर शायेद त्याग का स्तर कुछ ऊंचा ही हो!...................

सोमवार, 3 दिसंबर 2007

तारे-1

रे तारे !

रोज ही तूं भाग आता है

नहीं कहीं और जाता है

रात रात भर जग जग कर

देता रहेता है पहेरा

मौसम साफ हो चाहे छाया घना कोहरा

तुझे कौन सी दिक्कत

क्या आन पड़ी पारिवारिक संकट

शादी तो तेरी हुई नहीं

न ही दुश्मनी किसी से कोई कहीं

जरूर,तेरे पोषक ने तुझको दुत्कारा

फिर रहा तूं मारा मारा

चुक गयी न आज घर की रोटी

मिटटी का तेल खतम, बुझ गयी न ज्योति

काट रहा तूं प्रवास

नहीं तो होता घर का प्रकाश

चल छोड़ क्यों घबडाता है

बैठ सुना सब कुछ अब और कहाँ जाता है .......

गुरुवार, 15 नवंबर 2007

एक सुबह









एक सुबह एक बालक आया

अपनी माँ के पास

ममता की छाया पाने को

जो था बहुत निराश

एक अनिंद्य आशा का

दीप जलाए हुए बोला वह,

ऐ माँ!

तू क्यों छुपाये है मुख

दे न वही सुख फिर

जो कुछ समय पहले दिया करती थी


काश! आज तूं जानती

मैं कितना हूँ विह्वल

कितना दुःख है

पीडा है

निराशा पन है

देखके तेरी ये बिखरी बिखरी सी सूरत


मुझे कुछ नहीं चाहिऐ इस झूठे समाज से

मैं भूखा हूँ-गम नहीं

प्यासा हूँ - गम नहीं

यदि मरता हूँ तब भी मेरी माँ

मुझे गम नहीं


न दे कोई मुझे एक रोटी

थोडी सी दाल

एक दाना चावल का

चर टुकडा जूठा अचार

पर तूं तो दे दे माँ एक बार

फिर वही प्यार

जो बचपन में दिया करती थी

कम से कम ख़ुशी तो रहेगी

मेरी आने वाली अगली सुबह

कुछ समय पहले जैसे थी .........

सोमवार, 5 नवंबर 2007

आंसू की सार्थकता

आंसू जो कभी कभार भा करते हैं। बेवजह और अनायास। तब जब हम किसी को विदा करते हैं या किसी के घर से विदा होते हैं। अथवा कोई अचानक आ जाता है और हम दौड़ पड़ते हैं इस आंसू को लेकर। उनका स्वागत करने के लिए, अगवानी करने के लिए। ये तो हुयी प्रेम की आंसू जिसके कोई न कोई वारिस होते हैं। यह अनाथ नहीं होती, दूसरों की उसमें कम से कम कुछ न कुछ अभिव्यक्ति होती ही है। जो चूकर गिरने से पहले ही थाम ली जाती है। पर क्या हम इस आंसू को वास्तविक आंसू कह सकते हैं? यह कैसी आंसू है जो कभी कभार बहा करती है और दूसरों की दिलासायें पाकर अपने आपको तिलान्जित कर लेटी है? आंसू तो शायद वी होते हैं जो अनवरत बहा करते हैं ,जो लावारिस होते हैं । जिसमें दूसरों की अभिव्यक्ति होती है तो शोषण के लिए। दिलासायें होती हैं तो विकास को विनास में परिवर्तित करने के लिए जिसमें यदि स्वर्थाता होती है तो दो रोटी के लिए और यदि निह्स्वर्थाता होती है तो अपने आपको समर्पण करने के लिए। इसके शिवाय वो कर ही क्या सकते हैं? ना तो विद्रोह और ना ही तो विरोध। पर यदि विद्रोह और विरोध करें भी तो किस आधार पर सब कुछ राजनीतिकों का जो ठहरा। धन- दौलत, रूपया- पैसा, मान-ईमान।
भारत में चल रहे आतंकवादी हमले हों या आसाम में सितम ढा रहे उल्फा संगठन के कारनामें अथवा दिल्ली के मास्टर प्लान के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण मामले या तो फिर निठारी हत्याकांड,इन सब में इन्हीं आंसू के तो दर्शन होते हैं। जिसमें निह्स्वार्थ्ता होती है । स्वर्थाता होती है । निरासा , डर ,भय , अनुकम्पा होती है। जो जीवन के समतल पर ऐसा बहा करती है जैसे नदियों के पानी। जिनको न तो कोई पूछनें वाला होता है , और ना ही तो कोई रोकने वाला। कभी कभार यदि रोकानें की कोशिश की भी गयी तो बाँध बनाकर किसी नाम से विभूषित कर दिया गया । घोट दिया गया गला उसका,उसके विकास का और उसके व्यक्तित्व का । पर यहाँ यह भी कहना तो एक देश के लिए , उसके लोगों के लिए , हमारे लिए, अन्यायपूर्ण होगा , कि आंसू रोके नहीं जाते । वी अनवरत बहते रहते हैं । वे लावारिस होते हैं । उनको कोई पूछनें वाला नहीं होता। नहीं;ऐसा नहीं है। जरूर कोई न कोई होता है। उसे रोकानें वाला । उसके बदले भले ही वह अपने आंसू बहाए। पर वह एक कोशिश तो करत्ता है-लाखों आंसू को बहनें से रोकने के लिए । भले ही वह सीलिंग मामले के अंतर्गत अन्यायपूर्ण ढंग से जेलों की रोटी खाए या फिर उसमें उसकी राजनीतिक हित छिपा हो, पर वह एक संघर्ष तो करता है इन असहाय आंसुओं के साथ । यदि इन्हीं के जैसा देश का ३५% भाग करनें लगे तो ये आंसू बहे ही क्यों? फिर तो ना राजतन्त्र , न लोकतंत्र , ना तो प्रजातंत्र , सब तंत्र आ जाये । स्वतंत्र तंत्र आ जाये । जिस स्वतंत्र तंत्र में न तो पुलिस हो, ना तों अन्याय हो , ना तो कानून हो । पर, ये तो गांधीवादी विचारधारा है । इसका समर्थन कौन करेगा ? कांग्रेस , भाजपा , या फिर अन्य राजनीतिक दल? शायेद कोई नहीं। क्योंकि उनके पास ये आंसू नहीं है । हित है। राजनीतिक हित। वर्ग हित । समोहिक हित । समाज हित से कोई मतलब नहीं । समाज क्या कर रहा है? क्या हो रहा है? कहाँ जा रहा है?कोई मतलब नहीं , कोई परवा नहीं। कुछ हो रहा है वो भी बुरा, कुछ न हो रहा है वहतो बुरा हयी है । जो कुछ कर रहे हैं वो आलोचना के शिकार , और जो नहीं कर रहे हैं वो तो आलोचित हयी हैं ।
फिर आंसू कौन है? कहाँ है? कैसे है? किस तरह से उसको परिभाषित किया जाय? किस तरह से उसकी सार्थकता दिखाई जाय ? कैसे नाम दिया जाय उसको आंसू का ? क्या आंसू nirasray है?जो यूँ ही choo padati है। जो यूँ ही bhaauk हो uthati है। बहनें लगती है , गिरने लगती है, चुनें लगती है झरनों की तरह , किसी को देखकर । शायेद यही। .....................




रविवार, 4 नवंबर 2007

हम क्या थे क्या हो गये

आया था कभी ख्याल जो वो ख्याल बनकर रह गये

सोंचा भी न था जो कभी वो सोंच बनकर कह गये

देखा न ख्वाब जिसकी मैं वो ख्वाब बनकर बह गये

सोंचते हैं, क्या थे पर आज क्या हम हो गये


चारों तरफ बाहर थी संयुकतता गुहार की

रहते थे ख़ुशी हर समय आनंद सी फुहार थी

थे एक हम अनेक में वो संगम कि धार थी

वे धार अमरता के थे पर अल्पता में बह गये


स्वत्वों का अमंद गान था अनंत पर भी मान था

थे स्वर्गवासी नरक में हम सबका ऐसा शान था

गिरते न कभी गिर के भी जन जन का ये अभिमान था

पर मान अपनी बेंचकर अभिमान में ही ढह गये


है बात सारे जाति की सब हिंद के प्रजाति की

स्वजाति पर निर्भर थी जो उस देश के प्रभात की

उन धीर की सुधीर की विद्वान उन गंभीर की

जो मार्ग पर ही चलते चलते मार्ग से बिछड़ गये


वह देश हिंदुस्तान है जो विश्व का खाद्यान्न था

लुटते हुए सहस्र बार फिर भी जो महान था

था पास इसके अतुल्यता न और किसी के पास था

पर तुली यह ऐसा हुआ न विश्व में कोई भए


कारण कुछेक एक ना असंख्य के करीब थे

थे सभी अमीर,जन व्यक्तित्व ही गरीब थे

धन था धान्य था खेत खलिहान था

था सभी गुजर बसर, अनजान से सब गुजर गये


कहता हूँ आज मैं यहाँ जो मामले संगीन थे

रंगीन थे जो होते कभी, वो स्वप्न में नशीब हैं

शश्यामला थी धरती यहाँ पुत्र नौनिहाल था

जो जैसा था अच्छा ही था चारों तरफ खुशहाल था


सरसों के फूल फूलते, सूरजमुखी बाहर थे

सितार नवरंग में जौ, धान, गेहूँ, सार थे

फुहार था प्रकृति यहाँ वातावरण कुहार था

निर्माता न कोई भाग्य का मनुष्य कूदी लुहार था


पर दुर्भाग्य हम उनकी कहें कि खेल ईश्वरी जाति का

धीरे धीरे न बहोत पर क्षति हुआ प्रजाति का

कुछ तो लुटे खुदी, शायद ईश्वरी अभिशाप था

कुछ को गया लुटाया यही सबसे बड़ा आघात था


बाहरी अधिक प्रवीन थे बल शक्ति से न क्षीण थे

थे बडे, छोटे, बुरे लालची प्रखर मलीन थे

पर था न ऐसा हिंद में यह भारती दरबार था

जिसके लिए सदा से ही अतिथि देवो संसार था


अर्थ स्थिति थी प्रबल विकट इस जहान् की

न कोई पाप संसय जो भी थी वो शान की

माता थी ये तब धरती उनकी प्रांगन कृषि संसार था

बोले जो भी बोली धारा की जीवन से उसका हर था


पर दिन कहाँ वी दूर थे मानवीयता से सुदूर थे

निकल पड़े जो पग जनों के लखते हुए भी सूर थे

बिकने सगी ये माता उनकी पुत्र ही खरीददार था

है बात कोई और कि पीछे कोई स्वर था


खाली पड़ीं जो सड़कें सूखी धुल रेत कांट की

कुछेक के जीवन बनायी कुछ के लिए खाट थी

बाकी चले आशा चलाये एक शहर चार था

माता पिता परिवार पर सीधा बुरा प्रहार था


सोंचा ना होगा कोई स्वप्न ऐसे दुराचार का

झेलना पड़ेगा अब दुःख गुलामी के प्रहार का

माता पिता पथ लखते यहाँ रोटी दो आचार का

शहरों में छोटे पुत्रों का खटखट के बुरा हाल था


अब और क्या सुनाएँ दर्द हिंद के निहार के

पहने थे कितने कपड़े व कितने कहाँ उघार थे

थी जमीदारी प्रथा तो कर क्रिया प्रधान था

औरतें थी भोगी हवस की ऐसा वह संसार था .............

रविवार, 14 अक्तूबर 2007

वह मजदूर

जिसमें उत्साह था अदम
सह चूका था जो हर सितम
रक्त नलिकाएं भी
दौड़ लगा रही थी
चुस्ती जुर्ती के साथ
जो था समाज की
राजनीति से बहुत दूर
वह मजदूर

फावड़ा लिए अपने कन्धों पर
चला जा रह था
वह निश्चिंत हो बेपनाह
बेहिच्किचाहट
समाज समुदाय की
गन्दी कूटनीति से
बहुत दूर
वह मजदूर

राजनीति, कूटनीति
थी सीमित उसके लिए
यहीं पर
हो नसीब मात्र
दो वक्त की रोटी
सुख सुकून से
किसी तरहं चलाता जाए
परिवार का गुजर बसर
चलाता फावड़ा वह इसीलिये
रात को दिन में बदल देते हैं वे
अपने लिए
हो वास्तविकता के निकट
ख्वाबों से बहुत दूर
वह मजदूर
वह मजदूर। ॥

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2007

स्वार्थी सूरज

गोधूलि बेला हो गयी है। सूर्य धीरे धीरे अपने निवास स्थल को जा रहा है । एक अजीब की लालिमा है। जो एक समय पर देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि उसमे वही तेज विद्यमान है जो तेज तब था जब वह उदित हो रहा था। छोटी छोटी तेज्युक्त लालिमा किस तरह मोतियों-सा प्रतीत हो रही थी। जब वह उदित हो रहा था। पर, अगर यदि सच कहा जाय तो इस समय जब वह जा रहा है अपने पुराने स्थल को, जहां से वह आया था। एक अजीब सी मायूसी उसमे देखने को मिल रही है। ऐसा लग रहा है जैसे इसके आँखों में आंसू भरे हों। वह चाह रहा हो रोने के लिए पर रो ना प रहा हो। शायद इसलिये कि कहीं उसको रोते देख वो भी ना रोने लगे, जो शायद उसके प्रकाश के तले अपना जीवन यापन कर रहे हैं। या फिर इसलिये कि कहीं वह निस्तेज ना हो जाये क्योंकि उसे तो कल फिर वहीं आना है। पर यही तो चिन्ता का विषय है कि कल जब वह फिर आएगा तो क्या यहाँ के वासियों को वैसा पायेगा जैसा कि छोड़ गया था? नहीं ना। शायद नहीं। क्योंकि तब तक तो पता नहीं कितने वहां से जा चुके होंगे और कितने वापस आ चुके होंगे। एक दुनिया को छोड़कर एक नयी दुनिया में। एक नयी सवेरा और एक नयी आशाओं के साथ। एक नवे सभ्यता में। एक नवे परिवेश में। एक नवे समाज तथा एक संगत में।
फिर उनके लिए उस सूर्य का क्या महत्व?वी तो यही सोंचेंगे ना कि यह कोई रही है। भूखा है। प्यासा है। किसी से मिलाने जा रहा है। रास्ता भूल गया है। लाओ लाकरके एक लोटा पानी दे दो । बिछा दो खात सोहता ले । आराम करले। उनको क्या पता होगा कि यह वही सूर्य है जो इसके पहले सबदो एक प्रकाश देकर गया था। एक आशा देकर गया था। जीवन में कुछ पाने की।

पर दूसरे पल यह महाशूश होता है कि कहीँ वह इनको पहचान रहे हो कि ये उनका पूर्वज है। और पर इसलिये नकार दे रहे हो कि यह स्वार्थी हो जो हम सबों को दुखों में छोड़ गया था और जब ख़ुशी देखा तो वापस आ गया। हाँ, एक पल के लिए सही हो सकता है। जब सूर्य सबको समान समझ रहा था। अपना समझ रहा था तो आख़िर छोड़कर क्यों चला गया वह? क्या उसे यहाँ कोई बहोत अधिक परेशानी थे। जैसे सब जीं रहे थे वैसे वह भी जीता. क्यों नहीं सम्मिलित हुआ वह लोगों की खुशियों में ?दुखों में? लोग तो निराश थे जब वह जा रहा था, क्यों वह ख़ुशी की लालिमा लिए चला गया मुस्कुराते हुये?
पर क्या सूर्य को स्वर्थाता का अपराधी बताना ठीक होगा? ये माना जा सकता है की वह स्वार्थी है। सबों को जिस हालत और जिन हालातों में छोड़ गया उसे नहीं जाना था। रहना था सबों के दुखों में, सुखों में। पर क्या वह अपने लिए ही गया?नहीं वह अपने लिए ही नहीं गया। ये तो सोंचने वालों की गलत फहमीं ही हो सकती है। यदि उसे अपने तक की ही चिन्ता होती तो वह भी अन्यों की तरह दो रोटी खाकर पड़ा रहता गरजते हुए। क्या जरूरत थी उसको एक जगहं की ठण्डी और दूसरे जगाहन की गर्मी सहते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जानें की। सबकी चिन्ता थी सबकी परवा थी तब वह छोड़कर गया सबों को। उसका प्रकाश ग़ायब हो गया था । वह क्षीण होता जा रहा था अपने आप में। जिससे लोग प्रकाश हीन होकर विलाख रहे थे इधर उधर। सड़कों पर आए. भीख मँगाने की नौबत आयी। तब मजबूरन उसे जान पड़ा। आकिर कौन है ऐसैस संसार में जो अपने को दुःखी देख सके। पर फिर भी ऐसे सूर्य भुला ही दिए जाते हैं। नहीं रहता किसीको उसके प्रकाश का ख्याल। उसके तेज का ख्याल।तथा उसके सतीत्व का ख्याल इसीलिये शायद सूर्य भी बांवला हो गया है। आता है, खोजता है अपने पुराने इज्जत को, सतीत्व को, साथी और संगाती को। पर जब नहीं पाता तो एक अजीब सी वेदना लिए हुए चला जता है रुंवासा होकर। लेकिन उसे जब फिर भी संतोष नहीं होता तो चला आता है दौड़ा दौड़ा। पर इस स्वार्थी संसार में कोई नहीं खाता तरस उस पर। उसके कार्य पर। उसके प्रयास पर॥

बाज़ार में

बिक रहा था सब कुछ

''कुछ'' के साथ ''कुछ''

मिल रहा था उपहार में

आलू, प्याज,टमाटर की तरह

भाव, विचार, रीति, नीति, सुनीति

सब के लगे थे भाव फुटकल नहीं, थोक में


लोग ख़रीद रहे थे

सब के साथ सब

कुछ के साथ सब

एक के साथ सब

कुछ को मिल रहा था

कुछ व्यवहार में


मैं खोज रहा था शिष्टाचार

किसी ने चेताया

यह नहीं संसार

तुम खड़े हो बाज़ार में॥

बाज़ार

आचार, शिष्टाचार, व्यवहार, परिवार

कितनी तीव्र हो रहा परिवर्तित संसार

घट रहा, बढ़ रहा, स्थाई नहीं, चल रहा

फिर भी सूना पड़ा मानवता का बाज़ार


है नहीं आता समझ क्या विस्तृत होगा

पैरा-पुतही, घांस-फूंस से

नव निर्मित मानव घर-बार

होगा यह चिरस्थाई क्या पुराने ईंटों से गर्भित दीवार

या यूँ ही रह जाएगा संकुचित कुजडे, बनिये का बाज़ार


नहीं सुरक्षित, वैचारिक स्थिति,

व्यावहारिक परिस्थिति से खंडित आचार

छोटे छोटे खंडों में, टुकड़ों में हो रहा विभाजित बाज़ार

गया परिवार, लोपित शिष्टाचार, नश्वरता ही रह गया आधार

बनते बिगड़ते शेअरों में विनष्ट हो रहा एक विस्तृत बाज़ार ॥

सोंच

सोंच, सोंच के किनारे रहकर

सोंचती है सोंचते हुए

क्या सोंच का जन्म

सोंच,सोंच के सोंचने से ही होता है

या

सोंच का सम्बंध

सोंच के सोंच से है

यानी अपनी प्यारी प्यारी चिन्ता ।।

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2007

क्या है मानव जीवन?

दुःख है

विपदा है

सघर्ष है

चल सम्पदा है

निरुपाय निरर्थक

एक विकट विकराल आपदा है

यह मानव जीवन

या

सुख है

समृद्ध है

सहज स्वीकार्य

मानवता की सुमनावीय

भावाभिव्यक्ति की

अचल सम्पदा है

यह मानव जीवन ?