बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

एक बार तुम फिर आओ

(हिंदी साहित्य सम्मलेन , प्रयाग , और हिंदी साहित्य अकादेमी दिल्ली के सयुंक्त प्रयास से बीते दिनों इलाहबाद में ''केदारनाथ अग्रवाल के जन्मशती वर्ष पर'' पर आयोजित दो दिवशीय सम्मलेन पर पठित कविता .)




ओ कवि
एक बार तुम फिर आओ

है रो रहा मानव जहां पर
है सो रहा मानव जहा पर
जो खो रहा विश्वाश अपना
उकेरकर संवेदनाये उनकी
विश्वाश नई तुम दे जाओ

एक बार तुम फिर आओ

है चमक धमक चारो दिशाए
है पस्त मनुष्य मदमस्त हवाए
है भ्रष्ट तंत्र सब भ्रष्ट सभाए
लख वेदना विपदा कृषक की
विचार प्रवाह के श्रेणियों में

इक  मंच नई तुम फिर दे जाओ
एक बार तुम फिर आओ

सुबह वही है दोपहर वही
समय वही है पहर वही
यह देश वही है रूप वही
शाम वही है धुप वही
खींच गये जो चित्र देव तुम
असहाय वही है प्रारूप वही
पर व्यक्ति नहीं वह जो तुम थे

बस एक झलक उस भावभूमि पर
फिर से हमको तुम दे जाओ

बस एक बार
ओ कवि
एक बार तुम फिर आओ .    

बुधवार, 19 सितंबर 2012

. प्रेरणा लेनी चाहिए अन्य सभी स्त्री विमर्शकारों को मधु कांकरिया जी से .

मानव जीवन , एक रहश्यात्मक पहलू होता है . यथार्थता मात्र एक आवरण भर . यही कारन  है कि समझना चाहा है सभी ने इसे . कोई किसी रूप में तो किसी रूप में . पर गति सब की वही . सत्य सबकी वही खड़ा रहता है सबके सामने जीवन एक धुंधले क्षितिज  का सा पर्दा लटकाए . पहनाये हर किसी को एक बुर्का , जिसे देख यह जिज्ञासा सबमे बनी रहे की "जीवन क्या है " ? एक कला। एक संगीत . एक स्वप्न . एक यथार्थ . कल्पना या फिर विकासशील नदी की छटपटाहट अथवा समुद्र की सी गहराई लिए संघर्ष .
         कहने के लिए , लिखने के लिए , और सोचने समझने के लिए सामने हैं आज मेरे मधु कांकरिया और उनके द्वारा लिखित एक विशेष रचना "सूखते चिनार " . जो मानवीयता के सन्दर्भ में न सिर्फ मानवीय संवेदना को उकेरती है अपितु पूर्णतः फौजी जीवन पर निर्मित और संगठित कथानक के माध्यम से कश्मीर में उपजे मानव का मानव के प्रति विरोध , विद्रोह ,और विद्वेष को सैद्धांतिकता और व्यावहारिकता के मध्य रख उठाती एक सार्थक विमर्श को . क्या ख़तम भी होगा ये मानव के द्वारा मानव के प्रति संकीर्णता . एक दूसरे को खा जाने की इच्छा अथवा य की क्या मनुष्य की मनुष्यता भी है कोई चीज ? मानवीयता भी मानवीय समाज में जिन्दा है अभी? जो लडे  तो मानव के लिए, भिड़े तो मानवीयता के लिए न की एक जाती , धर्म , वर्ग विशेष के लिए .
          सम्पूर्ण उपन्यास इसी भावभूमि पर मर्यादित है और केंद्र में है मिलिट्री और फौजी जीवन तथा कश्मीर समस्या और क्योंकि इन दोनों, फौजी और कश्मीर , का स्तित्वा ही इन दिनों आतंकवाद को लेकर है , चित्रण उसके भी उद्भव और विकास का बड़े ही कलात्मक ढंग से पेश किया गया है . 2 भागो में फैले इस उपन्यास में पहला भाग दूसरे की अपेक्षा थोडा विस्तार लिए हुए है जिसमे युवा मन का स्वप्न है और देखे गये स्वप्न के अनुसार कैरियर की उड़ान .(स्वप्न और कैरियर ) . युवा मन जब स्वप्न देखता है उसे यही लगता है सबकुछ कितना सरल और अच्छा है क्योंकि उसमे उस समय उमंग होता है , जोश होता है . और होता है लहरों से टकराने का साहस . बहुत गहरे में विद्रोह हुवा मन की पहली पहचान होती है और यही करता है नायक संदीप अपने परिवार के साथ . अपने देखे गये स्वप्न क अनुसार पिता के परम्परित व्यवसाय को ठुकराता है , तिलांजलि देता है मा की ममता को . जो पिता के दुलार और मा के प्यार को भुला सके बनता तो शायद वही न है फौजी . लायक . माता पिता भी उसके निर्णय पर हस्तक्षेप नहीं कर सकते क्योंकि उसके हाथ में है गीता का कर्म योग . जनता भी है वह " हर इन्सान को आने कर्मभूमि के पत्थर खुद ही तोड़ने पड़ते है तो क्यों न वह कर्मभूमि मेरे स्वप्नों की कर्मभूमि ही हो की पत्थर तोड़ते हुए भी आनंद का एहसास  बना रहे " 1,  युवा मन कितना ही जोश और उमंग लिए हुए हो अनुभव तो उस वृद्ध के में ही होता है और यह बात संदीप के पिता शेखर को अच्छी तरह पता है ,"श्रोत से निकलकर कोई भी लहर वापस उद्गम तक कभी नही लौट पाती है फिर तो आगे अनंत समुद्र ही मिलता है . आर्मी का मतलब ही होता है मौत, विनाश, अशांति और रक्तपात " 2. पर यह तो नकारात्मकता है और है छोटी सोच ही अगर उस समय हर अभिभावक करता या कहता तो कौन जाकर करता शीमा पार जाकर देश की रखवाली .
        यह भी कितना सही है की जैसे हर व्यक्ति आई .ए .एस  नही हो सकता वैसे ही कोई जरूरी नहीं हर बेटा अपने पिता के व्यवसाय को अपनाकर ही चले . चलना उसे है , भोगना उसे है इसलिए कम से कम ऐसे संवेदनशील मामले में तो उसे स्वतंत्र ही रखे तो अच्छा है . अगर गौर किया जाय तो पिछले दिनों जब "तारे जमी पर " आमिर खान की फिल्म आई थी यह विषय पूरे महीने जो पकड़ा था . समीक्षकों और सामाजिक सरोकार से जुड़े संवेदनशील लोगों की भीड़ लगी हुई थी साहित्य जगत में . कथा नायक भी अंततः कहता है " आप लहरों को उसकी स्वाभाविक दिशा और वेग से बहने दे , धारा को मोड़ने की चेष्टा ना करे "3,  कितनी संवेदनशील और मनोवैज्ञानिक चेतावनी दिया है कांकरिया जी ने . और यही तो है यंगिस्तान . दूसरी तरफ , यह युवा विद्रोह नहीं तो आखिर क्या है ? परंपरा और नवीनता के वीच तीव्र टकराहट युवा और बुजुर्ग के बीच तीव्र विरोध आज की प्रमुख समस्या क्या नहीं है ? उपन्यास में ऐसी भावना को उभारकर लेखिका ने समाज समीक्षकों और विद्वानों को एक बार और सोचने विचरने के लिए विवश कर  दिया है।
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लेखक आर्मी जीवन में घटित एक एक घटनाओं को न सिर्फ जीता है अपितु परीक्षण करता है अपनी पैनी निगाहों से जहा सबसे पहले वह पाता है एक आर्मी जाती '' भारत के विभिन्न राज्यों , प्रान्तों ,मैदानों, पहाड़ों, राजमार्गो ,पगडंडियों से जो भी आता है यहाँ आर्मी की गंगा में मिलकर फौजी हो जाता है "4, यही है उसकी जाती . यही है उसकी पहचान . क्योंकि जैसे मिटटी कुम्हार के यहाँ पहुँचने के बाद उसके किसी दूसरे रूप में ढाल दी जाती है उसी तरह व्यक्ति आर्मी भी .
            आज की सबसे प्रबल समस्या है रैगिंग .और कांकरिया जी ने रैगिंग के दुष्परिणामो को बड़ी ही चतुरता से उठाया है और उसके प्रभाव का भी आज की स्थिति में उल्लेख किया है ." हमारे विश्वाश की जड़ो में दुनिया के प्रति अविश्वास की खाद यही से डालना सुरु होती  है जो ताउम्र हमारी नकारात्मक भावना को सीचती रहती है " पर रैगिंग से हतोत्साहित भी नहीं होना चाहिए क्योंकि " जिंदगी का दूसरा नाम ही है मुठभेड़ हर कदम पर मुठभेड़ "जहां व्यक्ति गिरता है , सम्हलता है , टूटता है , फूटता है और इन सबके बावजूद जीता है जीवन .एक पूर्वाभ्यास तो करा ही देता है रैगिग .
            समसामयिकता में न सिर्फ रैगिंग है आर्मी जीवन है अपितु उपन्यासकार के ह्रदय में आतंकवादियों और नक्सलवादियों की समस्याओ को भी प्रश्रय मिला है . जिसे चाहकर भी विषय से अलग वह नहीं रख पाती है  भारतीय मानसिकता में उपन्यास के पहले खंड में नक्सलियों और आतंकवादियों के प्रति विरोध नहीं है . विद्रोह नहीं है . है तो बस सहानुभूति . लेखिका की नजरो में आतंकवाद  फैलता ही वहां है " जहाँ लोग अभी भी सौ साल पुराणी दुनिया में रहते है . गारे लकड़ी और सीमेंट से बने छोटे छोते घर और खस्ताहाल दुकाने . यहाँ भोजन कम और बच्चे ज्यादा पैदा होते हैं . इसलिए यहा अशिक्षा और गरीबी दोनों ही बहुत है . '' 5, फिर जिस दुनिया में '' न टीवी है ,न    है रेडिओ   न गीत है, संगीत है और न ही  क्रिकेट है '' 6. अर्थात जहां मनोरंजन नाम की प्रवृत्ति ही न हो          वहां स्वस्थ मानसिकता क्या पनप सकती है ?'' ऐसे सभी गाँव आतंकवाद के लिए बहुत ही उर्वर इलाके ''होते हैं .इसलिए अगर सर्वप्रथम सत्ता के माध्यम से उस समाज में पल रहे गरीबी, अशिक्षा ,और भुखमरी को ही ख़तम करने का बीड़ा उठाया गया होता तो आतंकवाद क्या इतना विकराल रूप धारण कर पाता ?नृत्य , गीतो और गजलो से से गूज उठाने वाली यह धरती विल्कुल भी रक्त रंजित न होती ''यदि सही नियत संवेदना और सावधानी के साथ कदम उठाये गये होते .''7. ''शेखर एक जीवनी में '' भी यहीं प्रश्न करते है अज्ञेय ''जिस जीवन को उत्पन करने में हमारे संसार की सारी सक्तियाँ , हमारे विकास , हमारे विज्ञान , हमारी सभ्यता द्वारा निर्मित सारी क्षमताये या औजार असमर्थ है उसी जीवन को छीन लेने में , उसी का विनाश करने में , ऐसी  भोली हृदयहीनता ''. 8. और सोंचता ही संदीप '' कितना सस्ता जीवन , क्षणों की धारा पर उछलता और सयोंगो पर जीता जीवन . ''9,
              यह महज सयोंग ही है कश्मीर में आतंकवादियों और फौजियों के लिए , जहां वे लड़ना और लड़ कर मरना ही नियति मान बैठे हैं . जहां फौजी स्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं व्यक्तित्व की नहीं तो आतंकवादी अपने होने को लेकर . जीवन के जीने को लेकर .लड़ रहे हैं . '' पृथ्वी से आप भूख मिटा दीजिए सबको उनके हिस्से का प्रतिफल   दे दीजिए तो न कश्मीर में आतंकवाद फैलेगा और न झारखण्ड , उड़ीसा और आन्ध्र में माओवाद''10. इतनी कठोर वास्तविकता न तो कोई धार्मिक ठेकेदार समझता है और ना ही तो सत्ता क्योंकि ''सुन्दर सत्य और मानवीय  '' सत्ता को इन्हीं शब्दों से सबसे अधिक खतरा है .
              हर एक बात को सोचने विचरने के दो ढंग होते हैं एक के अन्दर यदि सैद्धान्तिकता की महक होती है तो दूसरे के अंदर व्यावहारिकता की खटास . महक जितना ही प्रिय और रुचिकर होती है खटास उतनी ही अप्रिय और अरुचिकर . पर वाश्त्विकता ? वाश्त्विकता तो व्यावहारिकता में ही होती है . उपन्यास के दूसरे भाग में लेखिका पूर्ण रूप से व्यावहारिकता और यथार्थता के धरातल पर पहुँचती है जहां न सिर्फ वह भारतीय रीति रिवाजो पर निगाहें दौड़ती है अपितु मिलिट्री जीवन की वास्तविकता , उसके प्रति सत्ता में बैठे लोगों का दृष्टिकोण , कार्पोरेट जगत की व्यस्तता में दम तोड़ रहे युवापन पर भी लेखिका का दृष्टिकोण स्पष्ट होता चलता है . और इन सब पर इतनी बारीकी से विचार किया गया है जैसे लेखिका का वह अपना भोगा हुआ अतीत हो .
           यथार्थता के इस धरातल पर पहुंचकर ही यह बात कितना सही लगता है  की ''जनश्रुतियों के लहरों पर उछलती आई सच्चईया काफी कुछ विकृत और फ़ैल चुकी होती है .''11 , घटना के एक एक पैनल को इस कदर देखा गया है इस उपन्यास में जैसे वास्तविकता से पहली बार टकराहट हो रही हो '' यह दुनिया झूठ से भरी पड़ी है . अमानवीयता से अटी  पड़ी है . यहाँ अँधेरे सिर उठा कर चलते है और उजाले आत्महत्या करने को विवश हैं .12. आतंक की जड़े अब वह नहीं रह गयी हैं जो पहले थी .उसके उद्भव के समय .मजबूरियों और विवाश्तावो का स्थान अब सौख और विलासिताओं ने ले लिया है . वह कोई और ही दौर रहा होगा जब ''मिलिटेंसी अपने पाक इरादों के साथ सुरु हुई होगी .पर आज आतंकवाद सिर्फ पैसा और रुतबा हासिल करने का जरिया बन गया है . ''13. फलतः कश्मीर की स्थिति वह ऐसी हो गयी है जहां ''फिजाओं में गीत नहीं , खेतो में मजदूर नहीं ,स्कूलों में बच्चे नहीं चरों और नजर आती है विधवाओ की तजा फसल .'' ' मेरी आखे खुल गयी है .मुझे अब इस्लाम नहि इन्सान से प्यार है '13. ये बाते कश्मीर में रह रहे हर उस व्यक्तित्व की है जो इस्लाम के और इस्लाम के अन्दर व्याप्त ढोंग ढकोसले को जी रहे हैं .
           कुल मिलकर एक ऐसे समय में जब स्त्री विमर्श छाया हुआ हो साहित्य जगत में, पुरुष बर्चश्व  को तोड़कर, स्वतंत्रता की सारी हदे तैरकर पा लेने की जिद स्त्री लेखिकाओ में बढ़ चढ़कर बोल रहा हो , मधु कांकरिया जी का ऐसे संवेदन शील मुद्दे पर कलम  चलाना अच्छा लगता है . एक लेखन की सार्थकता भी उसी में है की वह कुछ सार्थक मुद्दे को लेकर , रचना प्रक्रिया में अवतीर्ण हो . फिर दुनिया सिर्फ और सिर्फ खाने ,पहनने या स्वतंत्र होकर घूमने टहलने तक ही सीमित नहीं है . उसके आगे भी दुनिया है . प्रेरणा लेनी चाहिए अन्य सभी स्त्री विमर्शकारों को मधु कांकरिया जी से .
सन्दर्भ सूची-
सूखते चिनार -
नया ज्ञानोदय , भारतीय ज्ञानपीठ , मर्च 2012
1.पृष्ठ संख्या- 58
2.-      -      -  59
3. -     -      -  59
4. -     -      - 60
5.-     -       - 73
6. -    -       - 73
7. -    -       - 72
8. शेखर एक जीवनी, अज्ञेय . लोकभारती प्रकाशन
     पृष्ठ संख्या -3
9.  -    -        -91
10.-    -       -107
11.-    -       -108
12.-    -       -112
13.-    -       - 113.

बुधवार, 12 सितंबर 2012

जो सुझाए मार्ग- पुण्य स्वागत बारम्बार है

आता नही समझ करें क्या  हिंदी दिवस आज है
हैं पूर्ण ना स्वतंत्र हम  न पूर्णतः स्वराज है
अँधेरे में ही बीता कल  अँधेरे में ही आज हैं
कल का कुछ पता नहीं शंकाओं का सरताज है

भाषा वहीं समृद्धि है   जनता जहां प्रबुद्ध है
है नवीनता वहीं जहां  पुरातनता विशुद्ध है
अवरुद्ध है हर मार्ग नीति कोई नहीं शुद्ध है
देखो जहां वहां वही  एक दूसरे पे क्रुद्ध है

सभी जगह रात्रि है , कही न दीखता भोर है
जहां कही रहो वही  पहले से बैठा चोर है
शोर है उठता गजब  परसान लोग-बाद है
है मौन साधुवाद और  शैतान सब आजाद है

ठीक है जो जहां  जैसे भी कर ले कुछ यहाँ
है उन्नति का दौड़  कौन लेता है सुध कहाँ
अवनति की बड़ी चीज ये पता न किसी को कहीं
दरिद्रता के  लोक  में  दम  तोड़ समृद्धता रही

आओ विचारे हम सभी व्यथाओं का अम्बार है
हार में  है  जीत ,  जीत  में  ही  छुपाहै  
जो सुझाए मार्ग- पुण्य  स्वागत बारम्बार  है
 अन्यथा हिंदी दिवस पर   उसका तिरस्कार   हार  है 
करते हम पुकार आज  हिंद द्वार पर खड़े
बिगड़ी  दशा जो  देश की  युवा सुधार पर अड़े
कर एक बार देख प्रण   मौका मिला आज है
दूर नहीं सत्य 'अनिल ' बैठा राम राज है 

हिंद- दिवस के रूप में

हम सा भला न कोय है , ना हममे कोई दोष  .
लक्ष्य एक हिंदी समृद्धि , सबतों बढ संतोष ..

यह बसत सब ह्रदय में  सब इसमे ही समाय
सुगम मृदुल शुभ सरिस यह , सद्रिस न दूजा भाय ..

जन-मन-हृदय जे बसतु , जानत यहू संसार
सकल समृद्धि सुवासिनी , हिंदी अभिव्यक्ति सार ..

देखहु जगत में देखि के , भाषा कै  व्यवहार
नही हिंदी सम पावगे ,  श्रद्धा अपरम्पार

मोल न जेकर जगत में , जे न कहूं पे विकाय .
मात्रि -भूमि-भाषा  अनिल , दूजा न हिंदी सिवाय ..

विश्व प्रेम , समता विपुल , सिखवत साहित्य सेतु .
महादेवी , प्रसाद , पन्त ,  निराला भारतेंदु ..

जन-मन होता धन्य है , बहता सुखद समीर .
श्रोत अनिल है वह विस्तृत , तुलसी, सूर, कबीर।।

आश्रय पावत , भ्रमित युगल , जानहु ''प्रेम क पीर'' .
घन आनंद बन बरसत  हैं , बन दिनकर गंभीर ..

जितना कहहु वह थोर है , हिंदी का संसार
आरत- भारत हरत है , हिंद प्रेम का द्वार .

न समय और बर्बाद करो 2

उठो, बढ़ो , ऐ युवा साथियों
न  समय और बर्बाद करो
घिरे हुए किस विचार-कुञ्ज में
जन जीवन हित कुछ काज करो

है जरूरी आज उठ
समय को पहचानकर
दे बदल समाज तुम
स्वयं को कुछ मानकर

सोते रहे , गर जागे नहीं
पीछे बहुत रह जाओगे
बढ़ जाएगा दुनिया जहां
मुंह की वहां तुम खाओगे

सोच लो फिर क्या मिलेगा
वह स्वप्न की दुनिया निराली
हर रंग के व्यंजन दिखेंगे
जागने के बाद खाली

है सुहाना जानते हो
कल्पना का लोक भी
सुख भी वहां है मानते हो
दुःख भी वहां है शोक भी

स्वतंत्र हो कर लो यहाँ कुछ
चाहते हो जो अभी
निजता वहां उस लोक में है
परतंत्रता भी रोक भी

है वही इस्थिति यहाँ की
जी रहे जिस रूप में
दुःख वही वेदना मिलेगी
रंक में की भूप में

फिर भी उठो तुम दृढ बनो
सिंह सा दहाड़ कर
है मार्ग जो अवरुद्ध, खोलो
नरसिंह सा चिग्घाड़ कर  

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

राजेन्द्र यादव की ''जहां लक्ष्मी कैद है '' पढ़ते हुए ...

जीवन मानवीय पृष्ठभूमि की एक ऐसी कड़ी  है जिसमें प्रकृति ने जो कुछ भी दिए है मानव को मानवीयता के सन्दर्भ में , आवश्यक हो जाता है . उसमे से किसी एक की कमी या अभाव जहां उस जीवन को नारकीय बना देती है वहीं यह प्रश्न चिन्ह भी लगा देती है , क्या वह मानव कहलानें का अधिकारी है ? क्योकि एक जीवन को पूर्णता प्रदान करने में रुपये-पैसे , धन-दौलत अर्थात भौतिक साधन जितना अधिक सहायक होते हैं उससे कहीं ज्यादा सहायक उसका अपना वह परिवेश , वह समाज , वह समय, समूह , संगठन या परिवार होता है , जिसमे की वह रहता है और जीवन यापन करता है . पर अगर उन्हें इन्हीं प्राकृत संसाधनों से , जो उसे मानव बनाती है , दूर कर दिया जाय तब ?

                         इस प्रश्न चिन्ह की ही साकार अभिव्यक्ति है राजेंद्र यादव की  " जहां लक्ष्मी कैद है "*१* . क्योंकि ''यह कहानी विष्णु की पत्नी लक्ष्मी के बारे में '' नहीं है जो समस्त शक्तियों से संपन्न , लोककल्याणकारी , महिमामयी और शक्तिशाली है . अपितु यह ''लक्ष्मी नाम की ऐसी लड़की के बारे में ''  है जो भारतीय परंपरा , रूढ़िवादिता में लुटती  पिटती कूटती जकड़ी हुयी संकीर्ण मानसिकता की स्वार्थता की उपज है . उपज है वह मन मानव में विचरण करने वाली उन कभी न पूरा होने वाली इच्छाओं की , अभिलाषाओं की जिसके पीछे व्यक्ति कभी कभी सब कुछ गँवा देता है कुछ पाने की चाहत में . और इस 'चाहत' का ही परिणाम है वह ''लड़की' ''जहां लक्ष्मी कैद है ''
.
                       बहुत गहरे में कहानी कर के सामने नव स्वतान्र्य हिंदुस्तान है और इस स्वतंत्रता में सम्पूर्ण समाज में विद्यमान , घूम रहा ,टहल रहा , विचरण कर रहा एक ऐसा हैवान है जिसे सिर्फ और सिर्फ संग्रह ही दिखाई देता है . स्वस्थ भविष्य के लिए वर्तमान का संहार ही सुझाई देता है . क्योंकि डर होता है उसे , सम्पूर्ण मानव को , संग्रह वह नहीं करेगा तो लेगा दूसरा कोई  और इस भावना के रूप में कहानीकार लक्ष्मी के पिता रूपराम को कहानी में रखता है .  है तो धनवान . चक्की मशीन , मोटर , ट्रक , रिक्शा , नोकर चाकर क्या नहीं है इसके पास लेकिन फिर भी  " आज की तारिख तक यह विचार भाग दौड़ कर , लू धुप की चिंता छोड़कर जमा कर रहा है . एक पाई उसमें से खा नहीं सकता जैसे किसी दूसरे का हो .''  वाकई ऐसी स्थिति में उसकी दस ऐसी हो गयी थी कहानीकार के जुबान से ''जैसे धन के ऊपर बैठा सांप . खुद उसे खा नहीं सकता , खाने तो उसे देगा क्या ?''४'   दरअसल उसकी रखवाली करना और जोड़ना ये परिदृश्य इस एकमात्र रूपराम की नहीं अपितु उस समाज में रह रहे अनेक ऐसे रूपराम की थी जो सिर्फ संचय करना जानते थे उस समय ना तो उसका उपभोग और ना ही तो उपयोग .

                 सामने कोई बैठा हो समोसे खा रहा हो . दूसरी तरफ दूसरा कई दिनों से भूखा हो . दो कवर रोटी भी न नशीब हो पाया हो .तब आखिर वह क्या करेगा? बहुत हद तक ''रहिमन चुप ह्वै बैठिए'' का भाव तो उसमे ना ही जागेगा .जागेगा भी तो बस एक ही भाव , मारो साले को मर जाय.  नहीं खाऊँगा तो खाने भी क्या दूंगा इसको . इतनी सूक्ष्म मानसिकता की इतनी तीव्र परख तो राजेंद्र यादव जैसे कहानीकार के यहाँ ही संभव है . लाला रूपाराम के विरुद्ध चौकीदार की यही भावना पाठको के सम्मुख पहुँचती है . स्पष्टतः वह कहता है ,''और कभी कभी मन होता है ,छुरा लेकर साले की छाती पर जा चढूं और मुरब्बे के आम की तरह गोदूं . अपने पेट में जो इसने इतना धन भर रखा है उसकी एक एक पाई उगलवा लूं ''.
               
                 पर यहाँ जो बात लक्ष्मी की है , जिसके ऊपर सम्पूर्ण कहानी निर्भर करती है वह भी उसी 'संचय' की शिकार होती है .उसी चाहत की एक प्रकार होती है ,'' कूद खाने और दूसरों को न खाने देने '' का सेन्स यहाँ भी लागू होता ही है . और यही बात दिलावर सिंह , जो रूपराम के यहाँ चौकीदार है , बताता है गोविन्द को '' बाप है उसे भोग नहीं सकता और छोड़ तो सकता नहीं .''६'' मानों यह लक्ष्मी की ही बात नहीं है उसके द्वारा संचय की गयी उनसभी धन संपदाओं की है जो सिर्फ और सिर्फ संचय किया है वह और जैसे वह लक्ष्मी के रूप में कह रही हो ''ले तूने मुझे अपने लिए रखा है , मुझे खा , चबा मुझे , भोग . ''

                  लक्ष्मी जो हालांकि उसके घर में 'सचमुच एक लक्ष्मी ही बकर आयी ' और जिसके विषय में वह चौकीदार कहता भी है '' यह मिटटी भी छू दे तो सोना बन जाए और कंकड़ को उठा ले तो हीरा दिखे . '' क्या वह मात्र धन पैदा करने की मशीन ही मान ली गयी .या फिर भविष्य की की एक ऐसी निधि जिसके जाने से उसका सर्वनाश हो जाता  सबकुछ . क्या यह रूढ़िवादिता नहीं है ? क्या यह भाग्यवाद की कोरी कल्पना नहीं है ? क्या यह वाकिया दूसरों के अधिकार का , जीवन के अधिकार हरण नहीं है ? आखिर क्या इसे व्यक्ति स्वतान्त्र्य के प्रति किया गया कुठाराघात नहीं कहा जा सकता .? समाज के सामने इन्हीं प्रश्नों को उठाने का एक माध्यम है ''जहां लक्ष्मी कैद है ''.

                 ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि लक्ष्मी यह सब प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में सहती चलती है .उतना तीव्रतम विरोध वह नहीं कर पाती जितना कि घोर यातना सहने के बाद व्यक्ति विशेष को करना चाहिए . ''लक्ष्मी पर पहरा बैठा दिया गया . उसे स्कूल से उठा लिया गया .और वह दिन सो आज का दिन बेचारी नीचे नहीं उतरी .......... विल्कुल नंगी हो जाती है और जांघे पीट पीट कर बाप से कहती है ''ले तूने मुझे अपने लिए रखा है मुझे खा ,मुझे चबा, मुझे भोग .''


               बहुत गहरे में यह लक्ष्मी-नारियों की स्थिति है जो ना तो आवाज उठा सकती है , ना बोल सकती है और ना ही तो कर सकती है विरोध . हाँ अगर कर सकती है कुछ तो समर्पण मात्र . वह भी तन-मन , तन- धन से . क्योंकि जिस लक्ष्मी की दशा दिशा का वर्णन किया गया है वह युवा थी , सुन्दर थी, चंचल थी और थी तेज तर्राक .(दिलावर के अनुसार ) . भाग सकती थी वह. आग लगा सकती थी . फांसी चढ़ सकती थी . सिर फोड़ सकती थी वह उन 'चिमटा' 'संडासी' 'तवा' से जो  वह बहाती है . पर कहानीकार नहीं चाहता . क्योंकि वह जानता था  इस पुरुष प्रधान देश में ऐसी लडकियां उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं . यह तो उन नारियों या लड़कियों की कहानी है जिनके जीवन में लिखा है रोना , चिल्लाना ,दहाड़ना विलख विलख कर . 


                  सम्पूर्ण कहानी मानव-मन के अन्दर मचे अंतर्द्वंद को झकझोरती है. कोशाती है  मानवीय संवेदना को. उभारती है  मानव के प्रति मानव की  अंतर्वेदना को . इस लिए नहीं की वह उसे सुनकर शांत हो जाए शिथिल हो जाये बल्कि इसलिए की वह कदम उठाए एक , एक  आवाज उठाए और उठाए एक वीणा व्यवस्थात्मक सुधर के प्रति क्योंकि '' क्या सचमुच जवान लड़की की आवाज को सुनकर अनसुना किया जा सकता है ? '' प्रेरणा देती है समाज के उन रहीसों को उन भल्मानुसों को जिनके आरी बगल पता नहीं कितनी लक्ष्मियाँ एक नहीं कितने नवयुवकों के आगे मजबूरी का यह प्रस्ताव रखती भी हैं --- '' मैं प्राणों से अधिक प्यार करती हूँ'' मुझे यहाँ से भगा ले चलो '' '' मैं फांसी लगाकर मर जाऊंगी '' . पर सुनते कितने है . जो सुनते भी हैं वो उसमे ढूंढते है वासनात्मक खुशबू . गोविन्द के सेन्स में सौन्दर्यात्मक ललक .

                  नई कहानी के धरातल पर लिखित यह कहानी संपूर्णतः सफल होती है . चाहे वह भाषा की बात हो या फिर संवाद की . पात्र  की बात हो या फिर पात्र के चरित्रांकन की एक मिशल पेश करते हैं यादव जी . पर ''ये पंचतंत्र के सामान एक कहानी के भीतर अन्य कहानी को निकलने के लिए लालायित रहते है .''*२* और इसीलिए शायद इन्हें कहा गया ''वे चक्र के भीतर चक्र(व्हील विदीन व्हील ) के कहानीकार है . यही कारन है कि उनमे उलझाव आ जाता है .''*३*यह उलझाव स्पष्तः इस कहानी में भी विद्यमान है . सुरुआत गोविन्द के मनोवृत से होता है ''एकदम घबड़ाकर जब गोविन्द की आँखे खुली तो वह पसीने से तर था '' फिर राम स्वरुप और लाला रूपराम पर टिकती है .अचानक ही , कुछ दूर चलकर ,कहानीकार मिस्त्री और चौकीदार को भी मुख्या भूमिका में रख देता है और उस पर प्रकाश देने लगता है .यही पाठक कुछ हद तक उलझन में आ जाता है . ना तो वह गोविन्द के साथ अपना तादात्म्य बैठा पता है और ना ही तो चौकीदार पर सहानुभूति . लक्ष्मी के प्रति वह होता जरूर द्रवित है .पर तब तक कहानी अन्त्प्राय हो जाती है और यह जिज्ञासा भी बराबर बनी रहती है कि क्या हुआ होगा उस चौकीदार,राम स्वरुप या मिस्त्री का .


                           पर अभिव्यक्ति की कला , मानवमन को टटोलने की परख शायद राजेंद्र यादव की अपनी एक अलग विशेषता है  . गोविन्द की लक्ष्मी के प्रति क्या सोच है  , कहानी कर के शब्दों में, जो हर जवान दिल की एक स्थाई विशेषता होती है ---''उसने उसे अपने कोमल हाथों से छुआ होगा . तकिए के नीचे , सिरहाने भी यह रही होगी ........ लेटकर पढ़ते हुए हो सकता है सोचते सोचते छाती पर भी रखकर सो गयी हो .''

                 इस कहानी के सभी पात्र सजीव है . बोलते है और कहानी को एक नई अर्थवत्ता प्रदान करते है . संवाद बोझिल न होकर , व्यवहारात्मक है और उत्सुकता बढ़ाने में सहायक है . अनावश्यक विस्तार से सर्वथा बचा गया है  . संवाद का एक नमूना --
   ''विधवा है ? ''
    ''अजी उसने शादी ही कहाँ की है ? ''
    ''नाम क्या है ? '' गोविन्द से रहा न गया .
   ''लक्ष्मी ?''
   ''लक्ष्मी !'' उसके मुंह से निकल गया और जैसे .....

जहां तक सवाल कहानी के उद्देश्य का है उसमे कहानी कार का सम्पूर्ण ध्यान समाज में बैठे , जी रहे . कुछ भले बनमानुसो और समाज को दिशा देने वाले महानुभावों को सुधरने की रही है  . जो चौकीदार के इन वाक्यों से पूरा हो जाता है ,''लोग जमा करते हैं की बैठ कर भोंगे . यह राक्षस तो जमा करने में ही लगा रहता है . इसे जमा करने की ही ऐसी हाय हाय रही है की दौलत किसलिए जमा की जाती है , इस बात को यह विचार विल्कुल भूल गया है . ''      

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची -
१-राधा कृष्ण प्रकाशन , नई दिल्ली, पटना , इलाहाबाद
 ''   जहां लक्ष्मी कैद है    '' कहानी संग्रह .  पृष्ठ संख्या - १४९-१६६
२- शिव कुमार शर्मा ,'हिंदी साहित्य : युग और प्रवृतियां .पृ.सं. -६४९
३- बच्हन सिंह , आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहाश , पृ .सं.-३६४     

गुरुवार, 15 मार्च 2012

न समय और बर्बाद करो ...... .

सुबह चला सूरज उगा
 कलियाँ खिलकर छा गयी

तेजस्विनी किरणे  दिनकर की

मन मंदिर तक आ गयी


उठो प्रिये ! प्रात पुण्य का

प्रेमपूर्ण  संवाद  करो 

पुष्पित हो पल्लवित धरा ये

न समय और बर्बाद करो ...... .

ये दुनिया अजीब है

ये दुनिया अजीब है

सब कुछ होता है नया

सिवाय पुराने के बगैर

बदलती है रोज तस्वीर नगर की

बनती एक दीवाल जब घर की

छत की चाहत ने किया मटियामेट

नगरीकरण की अभिलाषा को

सिवाय किसी अच्छा के बगैर .....   

मेरा भी मन है चंचल है युवा है ,

क्यों चिढ गये

नाराज क्यों हो गये मुझसे

परंपरा को वहन नहीं करना था

नहीं किया हमने

लीक से हटकर

न सिमटकर बचपना तक

युवापन का मार्ग वरण किया हमने

बुरा क्या किया ?


रोज ही तो चला था

माना था अभी तक कहा तुम्हारा

आज नहीं चला उस मार्ग पर

लगा कोई और रास्ता प्यारा

काट लिया क्यों दुखी हो मुझसे किनारा


बड़े हो गये हैं पैर

शरीर भी युवापन का है

चाहता है कर आये सैर

खेतों के पगडंडियों पर

मेड़ों, दान्दों और नालियों पर

चलते चलते ऊब गया था मन

चलना चाहा सड़कों पर




नाराज क्यों  हो गये मुझसे  

कितने दिन डरेंगे

गाड़ी मोटर कारों से

और कितने दिन तक आखिर

खड़े रहेंगे बच्चों के कतारों में

कभी तो समझ लेने दीजिए

होने दीजिये मुलाकात

दुनिया के रंग विरंगे बाजारों से

मेरा भी मन है / चंचल है

युवा है ,

भरा पूरा तन है

इसके भी इंतजार में

कहीं खड़ा कोई मुस्कुराता जन है

मिलने भी दीजिए उससे भी

जान भी लेने दीजिए उसको भी


और नहीं रहा जाता

आदर्श वादिता में चिपके

शौक होता है

देश दुनिया को

समझने का मुझको भी

क्यों नाराज हो गये

नाराज क्यों हो गये मुझसे

आखिर यही तो रस्ते थे

जो कभी मिले थे तुमको भी .....  

मंगलवार, 13 मार्च 2012

यहि जीवन का नाम ही माया

इन फूलों की कौन कहें

जो पा मौसम मदमाते हैं

अपनी सुन्दर काया से

मानव मन हरसाते हैं

लोभ रूप संवरण का ऐसा

लालच पुष्प की भंवर को जैसा

फिर चिंता कैसी डर और कैसा

पाओ जैसी खींचो वैसा

रूप रहे न मिलेगी काया

यहि जीवन  का नाम ही माया 

ऐसा ही कुछ नियम सृष्टि का

भाग्य सभी आजमाते हैं

देख रूप लावर्न्य पुष्प का

इर्द-गिर्द मंडराते हैं , पर

बदकिस्मत , हतभाग्य विधि का

कुछ तो कुछ पा जाते हैं

बाकि व्यर्थ समय गंवाते हैं ....... . 

याद आता है

याद आता है

बतलाना उनका

व्यवहार भाव आदर का

खाट छोड़ धीरे

गोड्वारी से  सिरहाने तक

सरक जाना उनका

याद आता है

पूछना हाल चाल

ढंग से मुस्कुराना ,

हँसना, नत नयन कर

पाय लागी पंडित जी कहना

हलके से सिर को झुकाकर      

रूप उनका आ जाता है

सामने पूरा का पूरा

और मैं .....

सोचता रह जाता हूँ तब

क्यों ? क्यों आखिर

ऐसे लोग मरा करते हैं

खुश हो स्वयं

धन्य कर अपने को

दुखी दूसरों को किया करते है ...... .    

कोटि कोटि धन्यवाद् उस आयोग रुपी मानव को

मुबारक , शुभकामनाएं

तरुण , वृद्ध , जवानों को

सफल किए अभियान चुनावी

उन मेहमान जान अनजानों को

साफ रखा सब स्वच्छ

दूर किए जो दानव को

कोटि कोटि धन्यवाद् उस

आयोग रुपी मानव को

समझ बूझ दृढ सत्य संकल्पित

शिष्ट क्लिष्ट प्रण पूर्ण समर्पित

लोभ मोह लालच कर खंडित

भ्रष्ट नष्ट जो अवनीति अवलंबित

डर , भय , साम्य संग नीति परिवर्तित

कर मार्ग अनुसरण ह्रदय से अर्पित

सलाम उन नीति नियंताओं और

संघर्षशील जवानों को , जो

नहीं फटकने दिया उपद्रवी , उन

सत्य सहज अरमानों को ......... .    
   

शुक्रवार, 2 मार्च 2012

हिन्तित मत हो परिवर्तन का दौर है

हिन्तित मत हो परिवर्तन का दौर है

कल कोई और था आज कोई और  हैहै

यही क्रम बराबर हो जीवन में हमारे

गया जो और था आया जो और है

रखना जरुर ख्याल इतनी सी बात का

कभी सुबह दोपहर तो कभी शाम होगा

पलटकर देखोगे अपने जीवन के पन्ने को

सबसे पहले दर्ज वहां मेरा नाम होगा .....

किस्मत ही भारी है

कोई चले मोटर पर 

कार , ऑटो, स्कूटर
 
किसी को प्यारी है 

कोई ढोता रिक्शे पर 

दिन भर सवारी है

बैठ शाम घर कोई कहता 

युग की मंहगाई ने हमको मारी है 

कोई बैठ फूटपाथ पर रोता 

दुनिया में एक 

बुरी किस्मत हमारी है 

प्रबुद्ध जन नारे देता 

मिट गयी असमानता 

अब,समानता की बरी है 

स्तब्ध है आमजन 

असमानता बदस्तूर जारी  है

सच है इस दुनिया में 

कोई कम सुखी ,

न अधिक कोई दुखारी है 

उम्र और योग्यता पर 

किस्मत ही भारी है