शनिवार, 24 मई 2008

एक उत्तम अपूर्ण सोंच

मैनें भी तो कुछ था ही सोंचा
कुछ करनें को
कुछ चाहने को
कुछ पानें को
इसके बाद स्वतः चलकर
एक अजीबों गरीब पग से
एक सबसे कमजोर पथ पर
कुछ खोनें को

सोंच सोंच ही बनीं रही
और मैनें सोंचा
कुछ जरा सा सोंच कर

सोंचकर सोंचा उस विषय में
तो पाया एक सरल सा जवाब
जो था अर्थ से तरल
जो बहुत ही नुकीली और
चुकीली थी

सोंच का जन्म सोंच में ही होता है
और वहीं संभवतः
बहुत गहरे में
हो जाता है उसका अंत

आख़िर लता भी तो सोंचा होगा
नाज किया होगा
अपनी सुन्दरता पर
की मैं भी कभी
सबके पसंद का मालिक बनूँगा
पहनाया जाऊंगा सबों के गले में
चढ़ाया जाऊंगा मंदिरों में

भगवान के गले में
नेताओं के गले में
घरों में
किसी मुख्य त्योहारों में
और
विशेष रीति-रिवाजों में
अर्थियों पर गम के साथ

लेकिन उसकी भी सोंच
सोंच ही रह गई
आज वह शोभा है
शोभायमान हो रहा है
केवल गडाहों, और तालाबों में
कोई नहीं पूंछता उसका फूल
समझते हैं लोग उसको
केवल धूल
पग अथवा पथ का नहीं
हवावों और आँधियों का धूल .......... ।

न देंगे अपना आदर्श किसी को

नवदीप खिले थे
मन में
अंतर्मन में
अंतरतम ह्रदय में
मेरे अपनें सुन्दरतम तन में
फ़िर क्यों वो बुझ गए ?

क्या बोलने से
डोलने से , या फ़िर
कुछ अच्छा सोंचनें से
बतानें से
या फ़िर
कुछ आदर्श सिखानें से

मैं इतना निरादर्ष भी तो नहीं हूँ कि
कुल गलत बोल जाऊं
या बोलने से पहले
किसी के बातों को तोड़ जाऊं
किसी के भावनाओं को
कुभावनाएं बनाकर ठेस पहुँचाऊँ

मन है
स्थाई अस्थाई
बोल ही दिया करता है
कुछ गलत
कभी कभी कभी
फ़िर उस पर गुस्सा क्यूं
आख़िर छोटा ही तो हूँ

चलो अब नहीं भी
सिखाऊँगा आदर्श
किसी को कहीं भी
कभी भी
ऐसा भी हो सकता है कि
कुछ बोलने से पहले
तौल लिया करूंगा उसको
कहावतों को सिद्धस्त करते
अपना स्वयम का पहचान समझ के
अभिशाप समझ के
या किसी की आशीर्वाद
अथवा दुवायें समझ के ............. ।

शुक्रवार, 23 मई 2008

रोजी रोटी और नैतिकता के आगे भी एक समस्या होती है .......

आज कई दिनों से मैं परेशान हूँ । घर की आतंरिक माहौल या पढ़ाई की समस्या अथवा दो रोटी मिलनें की चिंता या फ़िर ये कहें कि आर्थिक तंगी , सामान्यतः लोग इन्हीं को समस्या का प्रथम कारक सिद्ध करते हैं पर इसके आगे भी एक समस्या होती है जो कहनें को तो तब मानव-मष्तिष्क में प्रवेश करती है जब व्यक्ति अपनें युवावस्था में प्रवेश करता है , लेकिन यदि वाश्तविकता समझनें की कोशिश की जाय तो यह बालकपनसे ही जब हम ४-५वीं में पढ़ रहे होते हैं , हमारे अंदर प्रवेश करनें लगती है । और वह है सेक्स, काम-वासना । आज तो इसने मुझे दुखित ही कर दिया । दिक्कत की बात तो ये है कि मैं जहाँ भी गया संभवतः इस काम-वासना से बचने की कोशिश करता रहा पर वासना है कि माना ही नहीं । अख़बार उठाया , मल्लिका शेरावत और बिपासा बसु नें रिझाया। पत्रिका उठाया एक बेहूदा किस्म का पोस्टर ना सिर्फ़ कल्पना करनें के लिए मजबूर कर दिया अपितु रस्ते में जाते हुए " परदे में रहनें दो " फ़िल्म के साथ ख़ुद को अनावरण होनें के लिए बेबस कर दिया । घर में टीबी चनल खोला , एक साधारण सा धारावाहिक आ रहा था , मन उस समय तक शांत हो गया था पर अचानक ही एक २२ वर्षीय किशोर का २० वर्षीय नवयुवती को उठाकर चुम्बन लेना और उसका उसके बाँहों में कसमसाना फ़िर से मुझे उसी वातावरण में ला धकेला । अब तक मैं अपनें आप को असंतुलित पा रहा था , परीक्षा का समय कोई इधर उधर की हरकत भी नहीं कर सकता था क्योंकि सबसे बड़ी दिक्कत तो स्मृति-दशा को एक संतुलित अवस्था प्रदान करना था ।



ऐसे में अगर मेरे पास कोई चारा बचा था ख़ुद को वासना से बचानें के लिए तो एक मात्र , साहित्य-संसार। वस्तुतः यह एक ऐसी दुनिया है जिसमें वासना नहीं है , कुंठा नहीं है , शारीरिक प्यास नहीं है और नहीं है दो जोशीले जिस्म के टकरानें की चाह ,ऐसी धारणा प्रायः हमारी थी क्योंकि ये भ्रम कई दिनों पहिले ही हमारे मष्तिष्क में विद्यमान थी कि , साहित्य में तो हमारे उन कर्मठ पुरुषों की वाणी रहती होगी जो भारतीय संस्कृति के संवाहक हैं , पर जैसे ही हमनें एक पुस्तक उठाई , मुंह खुला का खुला रह गया , हाँथ थर्थरानें लगा , शरीर तो ऐसा बेकाबू हो गया जैसे मानों कोई अंदर प्रवेश करनें लगा हो और क्यों कि समाहित ना हो पा रहा हो तड़प उठा और बौखला उठा । मैं " सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक "(सुरेन्द्र वर्मा का नाटक ), डॉ मिथिलेश गुप्ता की समीक्षा "विवाह के पाँच वर्ष तक कुंवारी रहनें के बाद संतान प्राप्ति के लिए जिस पर -पुरूष के पास भेजा जाता है तो सारे शील छोड़कर उसके भीतर की नारी भड़क उठती है और पति है नारीत्व की सार्थकता मातृत्व में नहीं, महामात्म्य है केवल पुरूष के सम्भोग के सुख में । " पढ़कर उठनें लगा मन में तरह तरह के सवाल । स्त्री का विवाह के बाद कुंवारी रहना , दूसरे पुरूष के पास भेजा जाना और उसके पास पहुंचकर , उसके नारीत्व का जागना आख़िर ये सब क्या है ? क्यों वह पुरूष के सम्भोग सुख से ही नारीत्व को प्राप्त हुई ? यह सम्भोग क्या होता है ?कैसे होता है , क्या जब स्त्री - पुरूष अकेले में मिलते है , एक दूसरे के बाँहों में झूमते हुए कसमसाते है या कल जो मैं दैनिक भास्कर पढा था , जिसमें एक व्यक्ति ६ वर्ष की लड़की का बलात्कार करता है अथवा परसों की " कृष्णा " फ़िल्म सनी दयोल की प्रेमिका को निर्वश्त्र करके खलनायक उसके जिस्म के साथ खेलता है , कि आजकल हर उस जगंह जहाँ व्यक्ति पहुँच रहे होते है , कंडोम को प्रयोग कर , निरोध को प्रयोग कर सहवास करनें की प्रेरणा दी जाती है ,क्या यही है सम्भोग क्या इन्हीं सब तत्वों के माध्यम से होता है सम्भोग सुख की प्राप्ति आज यह सवाल सिर्फ़ हमारा नहीं है जो १८-२० साल के उम्र को क्रास कर रहे हैं अपितु उन सभी बच्चों और किशोरों का है जो प्रायः अख़बार पढ़ रहे हैं , फ़िल्म देख रहे हैं , गानें सुन रहे हैं और कर रहे हैं अपनें आरी पडोस के लड़कियों या लड़कों से बातचीत । जब समाज के हर घर पर , हर गली , घर रस्ते , दरवाजे चाहे वह फ़िल्म हो या साहित्य , विज्ञान हो या कला , अख़बार हो या रेडियो , हर एक जगंह और प्रत्येक क्षेत्र में सेक्स एक प्रमुख आईना बनकर खड़ा है , एक मुख्य जरूरत के रूप में मुखरित हो रहा है , आख़िर ऐसी अवस्था में भी सेक्स एडुकेशन को क्यों नहीं स्कूलों में अनिवार्यता दी जा रही है ? समाज का एक बडा वर्ग इसके विरोध में तो अपनीं प्रतिक्रिया देता है पर अगर किसी भी दरवाजे पर जाकर किसी भी एक लडके या लड़की से सेक्स के विषय में अगर कुछपूंछा जाय तो शायद ही , वही जो पागल होगा , कोई न बता पाए बाकि तो ऐसा सब कुछ बता सकते हैं जिसको सुननें के बाद ना सिर्फ़ हम सोंचनें के लिए मजबूर हो जायेंगे अपितु हो उठेंगे संकित कि जरूर इन्हें कोई बिगड़ रहा है । जबकि उनको कोई बिगड़ता नहीं है । कम्पूटर , साहित्य , फ़िल्म , अख़बार तो इस प्रकार के मनोवृत्तियों को उभार ही रहे हैं ऐसे में कभी कभी हमारे घर का परिवेश ही उन्हें ऐसा कुछ सोंचनें और करनें के लिए मजबूर कर देता है ।

बाल श्रम पर प्रतिबन्ध : कैसे जिएगा गरीब परिवार

भारत में आए दिन राजनेताओं की राज्नीतियाँ प्रकाश में आती रहती हैं जो काफी हद तक अंधेरे से परिपूर्ण होती हैं। उस अन्धेरमय नीति पर चलना न सिर्फ़ कठिन अपितु असंभव भी होता है , खासकर उनके लिए जिनके ऊपर ये नीतियाँ थोपी जाती हैं । हाल ही में ली गयी एक और नीति "बाल श्रम पर प्रतिबन्ध" हालांकि सुननें और सैद्धांतिक रूप में तो एक अच्छा कार्य , एक अच्छा कदम कहा जा सकता है समाज के लिए पर व्यवहार में यह उतना गलत है । एक नाइंसाफी है गरीब परिवार और असहाय बच्चों के लिए ।
पंजाब प्रदेश समेत देश के अन्य प्रदेशों में इस वैधानिक नियम को शक्ति से लागु करनें का निर्णय लिया गया है । जिसके उलंघन की दशा में ना सिर्फ़ आर्थिक दंड अपितु एक वर्ष के कारावास का भी कठोर प्रावधान किया गया है । जिससे ये होगा की जो असहाय बच्चे अपनें गरीब माता पिता की दशा को सुधारनें तथा अपनीं जीविका को चलाने के लिए किसी होटलों , कारखानों व नगर के अमीरों तथा रहीशों के यहाँ नौकरी कर लेते थे अब उनको इनसे भी वंचित होना पड़ेगा । क्योंकि इस दुनिया में मूर्ख कौन है की एक बालक को नौकरी देकर अपनीं जान संकट में डालेगा । परिणामतः उन लाचार बच्चों को तथा उनके परिवार वालों को मजबूर होकर जस्ता का कटोरा लेकर सड़कों पर उतरना होगा । आख़िर पेट भरने के लिए कुछ ना कुछ तो करना ही पड़ेगा ।
दिलचस्प बात तो ये है कि भारतीय सरकार द्वारा उन बाल मजदूरों को सौ रूपये (१००) महीनें वजीफे के रूप में देनें का निर्णय लिया गया है जो गरीबी की दशा पर एक करारा व्यंग्य है , प्रहार है । इससे तो अच्छा ये होगा कि यदि कोई बालक फटा-पुराना कपड़ा या निर्वस्त्र होकर गलियों या सड़कों पर घूमता हुआ दिखाई दे तो सीधा उसे खतम कर दिया जे या किसी गाड़ी के नीचे कुचल दिया जाय । अब भला इससे अच्छा तरीका बाल श्रम पर रोक लगानें का और क्या हो सकता है ।
देश की ३०-४० प्रतिशत जनसंख्या ऐसी है जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है जिनको रहनें के लिए छान-छप्पर , झुग्गी , खानें के लिए नमक रोटी और तन ढकनें के लिए मात्र ३ इंच कपड़े नसीब हो जाय तो बडी बात है । क्या कभी इनकी इस दशा पर उनको ख्याल आई ? क्या कभी उनके द्वारा कोई ऐसा कानून पास किया गया कि यदि नगर में कोई बालक या कोई परिवार बिना खाए पिए सोया तो बगल वाले को कठोर दंड दिया जाएगा ?नहीं किया गया क्योंकि यदि कोई ऐसा कानून लागु किया गया होता तो नुका क्या हाल होता जो ऊपर के २०% अमीर वर्ग इन पर राज कर रहे हैं ।
अतः ये बात तो स्पष्ट है कि 'बाल श्रम ' पर पूर्णतः प्रतिबन्ध लगाना सिद्धांत में जितना ही सरल है व्यवहार में उतना ही कठिन है जिस पर वर्तमान सरकार को एक बार फ़िर गहनता से विचार करनें की आवश्यकता है । यदि तो इन प्रावविधानों को सख्ती से लागू करना है तो उन गरीबों को , उनकी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करनें का जिम्मा इनके द्वारा लिया जाना चाहिए , नहीं तो इसको वैसे ही सिर्फ़ कागजी कार्रवाई बनाकर छोड़ देना चाहिए जैसे ३०-४० सालों से किया जाता रहा है .............. ।

शुक्रवार, 16 मई 2008

गांधी वादिता की असफल कोशिश ( रिएलिटी सो )

वर्षों बीत गए । यादें नम होनें लगीं । वो ईश्वर बनने लगे । धीरे धीरे कुछ विस्म्रितियाँ याद ही आ रही थी की नया रूप सामनें आया । वह रूप एक रूप ही नहीं एक तेज जैसा , जो हजारों लोकोक्तियों और कहावतों को वाश्तविकता का परिप्रेक्ष्य देनें में वाश्तविकतः वास्तविक । यह कोई और नहीं हाल ही की गांधी की दूसरी प्रतिमूर्ति , जो आते ही एक बार फ़िर इतिहाश के आइनें में इस कहावत को चरितार्थ कर गयी ' सबै सहायक सबल के निर्बल के नहीं कोय
अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी का ब्रिटिश दौरा "चैनल ४ " के अंतर्गत इस बार कुछ ऐसा ही पेश कर रही हैं। जो कुछ हकीकत लग रही है तो कुछ स्वप्न । कुछ को उभार रही है तो कुछ को सत्य के धरातल पर लाने के लिए एक असफल कोशिश मात्र । जबकि घटनाएँ १०० साल पहले की हैं । नस्लवाद । गोरा , काला । और क्या क्या कुछ कम कुछ बहुत । पर क्या यह सही है ? क्या इसके पहले इस प्रकार के शब्दों को उभारा नहीं जाता था । या फ़िर यों कहा जाय की अन्य भारतीयों व एशियायियों के लिए ये शब्द उनके अपनें रिश्ते बन गए थे , जो उनका उच्चारण सुनते ही स्वागत करनें के लिए तैयार रहते । हर समय । हर जगंह । हर हालत और हालात में । चाहे वह सार्वजनिक स्थल हो या सार्वजनिक मार्ग अथवा कोई अन्य स्थल , मेले , बाजार आदि इन सब जगंहों पर आख़िर यही शब्द तो हैं जो एशियायियों के आचार और शिष्टाचार को बयां करते थे । जिसमें घृणा , फटकार और भेदभाव तो रोज रोज की आनीं जानी थी । होते थे तब भी इस शब्द के प्रयोग होते थे । तब भी इस शब्द के आदी थे ये अंग्रेज लोग । बजाय इसके की आज भी ऐसे शब्दों का प्रयोग वहाँ पर एक सभ्यता बनीं हुई है । ये बात और है की वे आम हैं । कमजोर हैं । गरीब हैं । लचर हैं ! और जिस पर ये लाचार रुपी बिच्छू के डंक लग जाते हैं , उस पर मीडिया रुपी जड़ी - बूटी भी अपना राग नहीं चला पाती है । फ़िर अचानक इन सबको हो क्या गया की ब्रिटिश मीडिया , मंत्रिमंडल और संसद से लेकर भारतीय मीडिया और सदन तक नस्लवाद , नस्लवाद , भेदभाव के सुर अलापनें लगे ।
फ़िर शिल्पा के सम्बंध में घटित इस छोटे से विवाद पर हम भला कैसे कह सकते हैं कि हाँ हम अपनें भारतीयत्व की रक्षा कर रहे हैं । और यह एक पल के लिए ठीक भी हो सकता था कि वह प्रतियोगी के उस उद्दंडता को जिसमें अभद्र व्यवहार किया गया , खेल एक अंश मानकर ही भूल गयी होती । और फ़िर खेल में तो हर कोई प्रतियोगी चाहता है कि किसी तरंह उसके मनोबल को गिराया जाय । आख़िर शिल्पा में और उन प्रतियोगियों में अन्तर ही क्या रह गया । क्या इसमें भारतीयत्व को दिखानें की जरूरत नहीं थी ? अच्छा तो शायद यह था जब वह इन आलोचनाओं को सहते हुए विजित होकर नये तेवरों में जवाब देती कि वास्तविकता क्या होती है । पर ऐसा कुछ नहीं हुआ ।
हुआ फ़िर भी कुछ हुआ । कम से कम मीडिया को एक नया मसाला तो मिला कि उस सुपर स्टार को काला कहा गया जो सौंदर्य की एक देन है । औलत की एक खान है । देश के करोड़ों लोग उस पर फ़िदा हैं । कुछ या ना हो पब्लिसिटी तो मिलेगी । अब तो ऐसा लगता है कि सम्पूर्ण भारतीयत्व सौंदर्य और दौलत के झरोखे से बहते दो आंसू में सिमट कर रह गयी है । जबकि ऐसे पता नहीं कितने आंसू विदेश की तो बात ही छोडो देश में गिर रहे है । बह रहे हैं । नदियों की तरंह नालों की तरंह , जहाँ पर वास्तव में ये भारतीयत्व तार तार हो रही है । उसका किसी को ख्याल नहीं । किसी को परवा नहीं । क्योंकि उनके पास ना तो शायद सौंदर्य है और ना ही तो धन है दौलत है । है तो बस एक शरीर का ढांचा है । जो कर्ज रुपी बोझ के तले दबा हुआ है । वास्तविकता तो ये है कि इन स्थानों की जो भारतीयत्व है वह भले ही सौंदर्य विहीन है पर एक अचल सम्पदा है । जो लुट रही है बर्बाद हो रही है । क्या इन्हें बचानें का अपेक्षित प्रयास किया जा रहा है ? यह कह पाना तो पूर्णतः मुश्किल है । पर वाकई शिल्पा ब्रिटिश में इस भेदभाव पूर्ण रवैये को खतम करने का गांधी के बाद दूसरा स्थान लेनें का एक सफल चाल चली थी यह बात और है कि वह उस रूप में नहीं प्रतिष्ठित हो पायी । क्योंकि यह एक खेल मात्र था । जबकि वह एक संघर्ष था । इसमें आंसू छलके , लेकिन उसमें आंसू नहीं वेदना और करुना के धार बहे । वेदना के स्वर में आत्मा की अभिव्यक्ति होती है जो करोड़ों भारतीय प्रवासियों के लिए आवश्यक है । जरूरी । अपरिहार्य है.......... ।

शरीर है अनेंकों पर आत्मा एक ही मिलेगा

कहीं भी किसी दिन मिलो तुम किसी से

हर एक दिन नया गम खिलता मिलेगा

दिखेगा तुम्हें वो तुम्हारा हितैसी

तुम्हीं से तुमपे वो हंसता मिलेगा

दिखेगा नया तेज व्यक्तित्व पर उसके

सुंदर बदन , मुख , चेहरा लगेगा

चाहोगे तो जानना हकीकत भी उसकी

मगर जब सुनोगे रूप तेरा ही मिलेगा

कहेगा मुसाफिर यहीं का हूँ एक मैं

नहीं घर चावल आज , आटा खतम है

झगडी है मम्मी , पापा गुस्से हैं ऊपर

पत्नी को छाया मेरी प्रेमिका का बहम है

था फ़ोन लड़के का , फीस देना है उसको

डबल कट लाइट का फक्ट्री भी है बंद

किया मिस्ड चाची नें है काल मुझको

न पैसा मोबाइल में , उधर प.सी.ओ भी है बंद

छोटी है लड़की बिस्कुट जरूरी उसे भी

बीड़ी , तम्बाकू के यहाँ लाले पड़े हैं

साबुन खतम , ना नहाया , कपडे भी है गंदे

दिए थे उधार जो , वे भी मूंछ ताने खड़े थे

भइया ! अगर कुछ हो देना मुझे आज

अभी तो कारखानें में मेरे पैसे पड़े हैं

मगर क्या पता उस विचारे को था कि

भइया भी उसी लिए पास उसके खड़े हैं

सोंचोगे प्यारे , सही कहती है ये दुनिया

शरीर है अनेकों पर आत्मा एक ही मिलेगा

अगर दुखी किसी का तन कहीं भी दिखा तो

समझो वही दुःख कल तुमको भी मिलेगा ............. ।

गुरुवार, 15 मई 2008

राष्ट्रपति कलाम का सुझाव - दो दलीय व्यवस्था

राष्ट्रपति कलाम , द्वारा दर्शाई गयी नयी राजनीतिक प्रणाली , जिसके अंतर्गत दो दलीय राजनीतिक प्रणाली को अपनाए जानें की नसीहत दी गयी है । सिद्धांतों में इस पर यदि ठीक प्रकार से विचार किया जाय तो देश के लिए हितकर हो सकता है । इस प्रणाली के अपनाए जाने से न सिर्फ़ सत्ता को स्थिरता मिलेगी अपितु एक तो बरसाती मेढक की तरंह दिन प्रतिदिन बढ़ रहे राजनीतिक दलों की संख्या पर विराम लग जायेगा और दूसरे , एक स्वच्छ राजनीतिक वातावरण का निर्माण किया जा सकेगा । जिससे न तो संसद की कार्यवाहियों पर कोई अवरुद्ध उत्पन्न होगा और न ही तो सरकार की नीतियों को लागू करनें में बेवजह और किसी प्रकार की देरी । जबकि वर्तमान भारतीय राजनीतिक प्रणाली में यह गुन विद्यमान नहीं है । बहुदलीय और खासकर गठबंधन प्रणाली होनें से एक तो साधारण से साधारण नीतियों को भी लागू करनें में व्यापक समय लग जाता है और दूसरे कुछ अच्छे कार्य भी समर्थक दलों की नाराजगी के चलते नहीं हो पाते इससे देश को व्यापक हानियों का सामना करना पड़ता है ।

पर यदि व्यवहार में देखा जाए तो इस प्रकार की व्यवस्था भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए किसी भी प्रकार से फायदेमंद नहीं है । ऐसा होनें से एक तरफ़ तो जहाँ लोकतंत्र को आघात पहुंचेगा वहीं दूसरी तरफ़ राज्य की स्वायत्तता पर भी विराम लग सकता है । इसमें कोई संदेह नहीं है की आज भारत जिस तरंह से विकास की नयी ऊंचाइयों को छू रहा है , वह बहुदलीय प्रणाली का ही श्रम है । स्वतंत्रता प्ताप्ती से लेकर १९६७ तक और १९८९ से १९८० तक भारत में एक ही दल की प्रधानता रही क्योंकि लोगों को राजनीतिक घटनाओं और मतदान व्यवहार का ठीक प्रकार से ज्ञान नहीं था । जबकि आज राजनीतिक जाग्रति जनता में स्पष्ट रूप से दिखायी दे रही है । जिसका परिणाम एक ही दल के युग की समाप्ति के रूप में हमारे सामनें आया । पर इसका श्रेय हम बहुदलीय प्रणाली को ही दे सकते हैं ।

आज देश में सत्ता की राजनीती न होकर विकास की राजनीती है और जिस तरंह से राज्य सरकारों नें अपनें अपनें राज्यों को विकास की ऊंचाइयों तक पहुँचाया है या पहुंचानें की कोशिश कर रहे हैं उसमें भी बह्युदालीय प्रणाली की भूमिका को नाकारा नहीं जा सकता ।

मिली- जुली सरकारों का स्तित्व में आना भविष्य के लिए तो हानिकारक माना जा सकता है पर इसको अंत करनें के और भी तरीके हो सकते है सिवाय दो दलीय व्यवस्था के अपनाए जानें के । हाँ यदि भारतीय इतिहाश को पुनः उसी आइनें के आवरण में देखना हो तो यह व्यवस्था उपयुक्त मानीं जा सकती है .......... ।

काश ! मेरी भी एक प्रेमिका होती

काश मेरी भी एक प्रेमिका होती
जीवन सुख निधि की कोशिका होती
भागीदारी हर क्षेत्र में करता
गर मुस्कान में उसकी भूमिका होती

वो पल सुखमय कितना होता
जब यादें उसकी आती
मेरी रूखी चुपडी स्मृति में
आहें देते बलखाती

नवयौवना की एक मीठी स्पर्श
तीखी स्वाद जवानी की
निर्मम सिसकी बाँहों के उसकी
करती हरण मेरे नादानी की

पास आकर दिखती कहती
छुओ मुझे कुछ सहेलाकरके
मेरे गुलाबी होठों को सदमें से
चुमों चाटो कुछ बहलाकरके

होगी तुम्हें रसानुभूति इससे
पकडो बाँहों को दे झकझोर
जितना हो सके लूटो इसको
बुझाओ प्यास, मेरी ,अपनी
उथल पुथल तोर मरोर

मैं भी प्यासा वो भी प्यासी
पर दोनों की एक उदासी
जब पकड़ता बाँहों में उसको
हकीकती दुनिया होती गुस्सा सी

ये सपने सच होते शायद
जब वो जीवन साधन की
एक जीविका होती
काश मेरी भी एक प्रेमिका होती

और वो वादा करती कुछ ऐसी
दर्शाती प्यार मीन- जल जैसी
श्वाती नक्षत्र की बूंदे बनकरके
अंतरात्मा की क्षुधा बुझाती

आती मटकी मार इठलाती
काले गलों को बालों पर सहलाती
होठों पर मदन की आहें चिक्कारती
बिस्तर पर पड़ते ही जब वो मदमाती

उसकी ऐसी क्रियाकलापों का
करता वर्णन मैं सुन्दरतम लेखो में
देश जहाँ में छाप होती अलग जब
अमित अनुराग मेरा भी होता आलेखों में

सब कोई पढ़ते आँखें दबाकर
अपनी उत्तेजना को स्वयं में सम्हाले
बच्चा , नवयौवना या वोल्ड बुढापा
छाती से लगाते कुछ शर्माकर

भाता मैं नवहीर से सबों को
जब वास्तव में वो
मेरी कविता की नायिका होती
काश मेरी भी एक प्रेमिका होती ............. ।