गुरुवार, 15 नवंबर 2007
एक सुबह
एक सुबह एक बालक आया
अपनी माँ के पास
ममता की छाया पाने को
जो था बहुत निराश
एक अनिंद्य आशा का
दीप जलाए हुए बोला वह,
ऐ माँ!
तू क्यों छुपाये है मुख
दे न वही सुख फिर
जो कुछ समय पहले दिया करती थी
काश! आज तूं जानती
मैं कितना हूँ विह्वल
कितना दुःख है
पीडा है
निराशा पन है
देखके तेरी ये बिखरी बिखरी सी सूरत
मुझे कुछ नहीं चाहिऐ इस झूठे समाज से
मैं भूखा हूँ-गम नहीं
प्यासा हूँ - गम नहीं
यदि मरता हूँ तब भी मेरी माँ
मुझे गम नहीं
न दे कोई मुझे एक रोटी
थोडी सी दाल
एक दाना चावल का
चर टुकडा जूठा अचार
पर तूं तो दे दे माँ एक बार
फिर वही प्यार
जो बचपन में दिया करती थी
कम से कम ख़ुशी तो रहेगी
मेरी आने वाली अगली सुबह
कुछ समय पहले जैसे थी .........
सोमवार, 5 नवंबर 2007
आंसू की सार्थकता
आंसू जो कभी कभार भा करते हैं। बेवजह और अनायास। तब जब हम किसी को विदा करते हैं या किसी के घर से विदा होते हैं। अथवा कोई अचानक आ जाता है और हम दौड़ पड़ते हैं इस आंसू को लेकर। उनका स्वागत करने के लिए, अगवानी करने के लिए। ये तो हुयी प्रेम की आंसू जिसके कोई न कोई वारिस होते हैं। यह अनाथ नहीं होती, दूसरों की उसमें कम से कम कुछ न कुछ अभिव्यक्ति होती ही है। जो चूकर गिरने से पहले ही थाम ली जाती है। पर क्या हम इस आंसू को वास्तविक आंसू कह सकते हैं? यह कैसी आंसू है जो कभी कभार बहा करती है और दूसरों की दिलासायें पाकर अपने आपको तिलान्जित कर लेटी है? आंसू तो शायद वी होते हैं जो अनवरत बहा करते हैं ,जो लावारिस होते हैं । जिसमें दूसरों की अभिव्यक्ति होती है तो शोषण के लिए। दिलासायें होती हैं तो विकास को विनास में परिवर्तित करने के लिए जिसमें यदि स्वर्थाता होती है तो दो रोटी के लिए और यदि निह्स्वर्थाता होती है तो अपने आपको समर्पण करने के लिए। इसके शिवाय वो कर ही क्या सकते हैं? ना तो विद्रोह और ना ही तो विरोध। पर यदि विद्रोह और विरोध करें भी तो किस आधार पर सब कुछ राजनीतिकों का जो ठहरा। धन- दौलत, रूपया- पैसा, मान-ईमान।
भारत में चल रहे आतंकवादी हमले हों या आसाम में सितम ढा रहे उल्फा संगठन के कारनामें अथवा दिल्ली के मास्टर प्लान के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण मामले या तो फिर निठारी हत्याकांड,इन सब में इन्हीं आंसू के तो दर्शन होते हैं। जिसमें निह्स्वार्थ्ता होती है । स्वर्थाता होती है । निरासा , डर ,भय , अनुकम्पा होती है। जो जीवन के समतल पर ऐसा बहा करती है जैसे नदियों के पानी। जिनको न तो कोई पूछनें वाला होता है , और ना ही तो कोई रोकने वाला। कभी कभार यदि रोकानें की कोशिश की भी गयी तो बाँध बनाकर किसी नाम से विभूषित कर दिया गया । घोट दिया गया गला उसका,उसके विकास का और उसके व्यक्तित्व का । पर यहाँ यह भी कहना तो एक देश के लिए , उसके लोगों के लिए , हमारे लिए, अन्यायपूर्ण होगा , कि आंसू रोके नहीं जाते । वी अनवरत बहते रहते हैं । वे लावारिस होते हैं । उनको कोई पूछनें वाला नहीं होता। नहीं;ऐसा नहीं है। जरूर कोई न कोई होता है। उसे रोकानें वाला । उसके बदले भले ही वह अपने आंसू बहाए। पर वह एक कोशिश तो करत्ता है-लाखों आंसू को बहनें से रोकने के लिए । भले ही वह सीलिंग मामले के अंतर्गत अन्यायपूर्ण ढंग से जेलों की रोटी खाए या फिर उसमें उसकी राजनीतिक हित छिपा हो, पर वह एक संघर्ष तो करता है इन असहाय आंसुओं के साथ । यदि इन्हीं के जैसा देश का ३५% भाग करनें लगे तो ये आंसू बहे ही क्यों? फिर तो ना राजतन्त्र , न लोकतंत्र , ना तो प्रजातंत्र , सब तंत्र आ जाये । स्वतंत्र तंत्र आ जाये । जिस स्वतंत्र तंत्र में न तो पुलिस हो, ना तों अन्याय हो , ना तो कानून हो । पर, ये तो गांधीवादी विचारधारा है । इसका समर्थन कौन करेगा ? कांग्रेस , भाजपा , या फिर अन्य राजनीतिक दल? शायेद कोई नहीं। क्योंकि उनके पास ये आंसू नहीं है । हित है। राजनीतिक हित। वर्ग हित । समोहिक हित । समाज हित से कोई मतलब नहीं । समाज क्या कर रहा है? क्या हो रहा है? कहाँ जा रहा है?कोई मतलब नहीं , कोई परवा नहीं। कुछ हो रहा है वो भी बुरा, कुछ न हो रहा है वहतो बुरा हयी है । जो कुछ कर रहे हैं वो आलोचना के शिकार , और जो नहीं कर रहे हैं वो तो आलोचित हयी हैं ।
फिर आंसू कौन है? कहाँ है? कैसे है? किस तरह से उसको परिभाषित किया जाय? किस तरह से उसकी सार्थकता दिखाई जाय ? कैसे नाम दिया जाय उसको आंसू का ? क्या आंसू nirasray है?जो यूँ ही choo padati है। जो यूँ ही bhaauk हो uthati है। बहनें लगती है , गिरने लगती है, चुनें लगती है झरनों की तरह , किसी को देखकर । शायेद यही। .....................
भारत में चल रहे आतंकवादी हमले हों या आसाम में सितम ढा रहे उल्फा संगठन के कारनामें अथवा दिल्ली के मास्टर प्लान के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण मामले या तो फिर निठारी हत्याकांड,इन सब में इन्हीं आंसू के तो दर्शन होते हैं। जिसमें निह्स्वार्थ्ता होती है । स्वर्थाता होती है । निरासा , डर ,भय , अनुकम्पा होती है। जो जीवन के समतल पर ऐसा बहा करती है जैसे नदियों के पानी। जिनको न तो कोई पूछनें वाला होता है , और ना ही तो कोई रोकने वाला। कभी कभार यदि रोकानें की कोशिश की भी गयी तो बाँध बनाकर किसी नाम से विभूषित कर दिया गया । घोट दिया गया गला उसका,उसके विकास का और उसके व्यक्तित्व का । पर यहाँ यह भी कहना तो एक देश के लिए , उसके लोगों के लिए , हमारे लिए, अन्यायपूर्ण होगा , कि आंसू रोके नहीं जाते । वी अनवरत बहते रहते हैं । वे लावारिस होते हैं । उनको कोई पूछनें वाला नहीं होता। नहीं;ऐसा नहीं है। जरूर कोई न कोई होता है। उसे रोकानें वाला । उसके बदले भले ही वह अपने आंसू बहाए। पर वह एक कोशिश तो करत्ता है-लाखों आंसू को बहनें से रोकने के लिए । भले ही वह सीलिंग मामले के अंतर्गत अन्यायपूर्ण ढंग से जेलों की रोटी खाए या फिर उसमें उसकी राजनीतिक हित छिपा हो, पर वह एक संघर्ष तो करता है इन असहाय आंसुओं के साथ । यदि इन्हीं के जैसा देश का ३५% भाग करनें लगे तो ये आंसू बहे ही क्यों? फिर तो ना राजतन्त्र , न लोकतंत्र , ना तो प्रजातंत्र , सब तंत्र आ जाये । स्वतंत्र तंत्र आ जाये । जिस स्वतंत्र तंत्र में न तो पुलिस हो, ना तों अन्याय हो , ना तो कानून हो । पर, ये तो गांधीवादी विचारधारा है । इसका समर्थन कौन करेगा ? कांग्रेस , भाजपा , या फिर अन्य राजनीतिक दल? शायेद कोई नहीं। क्योंकि उनके पास ये आंसू नहीं है । हित है। राजनीतिक हित। वर्ग हित । समोहिक हित । समाज हित से कोई मतलब नहीं । समाज क्या कर रहा है? क्या हो रहा है? कहाँ जा रहा है?कोई मतलब नहीं , कोई परवा नहीं। कुछ हो रहा है वो भी बुरा, कुछ न हो रहा है वहतो बुरा हयी है । जो कुछ कर रहे हैं वो आलोचना के शिकार , और जो नहीं कर रहे हैं वो तो आलोचित हयी हैं ।
फिर आंसू कौन है? कहाँ है? कैसे है? किस तरह से उसको परिभाषित किया जाय? किस तरह से उसकी सार्थकता दिखाई जाय ? कैसे नाम दिया जाय उसको आंसू का ? क्या आंसू nirasray है?जो यूँ ही choo padati है। जो यूँ ही bhaauk हो uthati है। बहनें लगती है , गिरने लगती है, चुनें लगती है झरनों की तरह , किसी को देखकर । शायेद यही। .....................
रविवार, 4 नवंबर 2007
हम क्या थे क्या हो गये
आया था कभी ख्याल जो वो ख्याल बनकर रह गये
सोंचा भी न था जो कभी वो सोंच बनकर कह गये
देखा न ख्वाब जिसकी मैं वो ख्वाब बनकर बह गये
सोंचते हैं, क्या थे पर आज क्या हम हो गये
चारों तरफ बाहर थी संयुकतता गुहार की
रहते थे ख़ुशी हर समय आनंद सी फुहार थी
थे एक हम अनेक में वो संगम कि धार थी
वे धार अमरता के थे पर अल्पता में बह गये
स्वत्वों का अमंद गान था अनंत पर भी मान था
थे स्वर्गवासी नरक में हम सबका ऐसा शान था
गिरते न कभी गिर के भी जन जन का ये अभिमान था
पर मान अपनी बेंचकर अभिमान में ही ढह गये
है बात सारे जाति की सब हिंद के प्रजाति की
स्वजाति पर निर्भर थी जो उस देश के प्रभात की
उन धीर की सुधीर की विद्वान उन गंभीर की
जो मार्ग पर ही चलते चलते मार्ग से बिछड़ गये
वह देश हिंदुस्तान है जो विश्व का खाद्यान्न था
लुटते हुए सहस्र बार फिर भी जो महान था
था पास इसके अतुल्यता न और किसी के पास था
पर तुली यह ऐसा हुआ न विश्व में कोई भए
कारण कुछेक एक ना असंख्य के करीब थे
थे सभी अमीर,जन व्यक्तित्व ही गरीब थे
धन था धान्य था खेत खलिहान था
था सभी गुजर बसर, अनजान से सब गुजर गये
कहता हूँ आज मैं यहाँ जो मामले संगीन थे
रंगीन थे जो होते कभी, वो स्वप्न में नशीब हैं
शश्यामला थी धरती यहाँ पुत्र नौनिहाल था
जो जैसा था अच्छा ही था चारों तरफ खुशहाल था
सरसों के फूल फूलते, सूरजमुखी बाहर थे
सितार नवरंग में जौ, धान, गेहूँ, सार थे
फुहार था प्रकृति यहाँ वातावरण कुहार था
निर्माता न कोई भाग्य का मनुष्य कूदी लुहार था
पर दुर्भाग्य हम उनकी कहें कि खेल ईश्वरी जाति का
धीरे धीरे न बहोत पर क्षति हुआ प्रजाति का
कुछ तो लुटे खुदी, शायद ईश्वरी अभिशाप था
कुछ को गया लुटाया यही सबसे बड़ा आघात था
बाहरी अधिक प्रवीन थे बल शक्ति से न क्षीण थे
थे बडे, छोटे, बुरे लालची प्रखर मलीन थे
पर था न ऐसा हिंद में यह भारती दरबार था
जिसके लिए सदा से ही अतिथि देवो संसार था
अर्थ स्थिति थी प्रबल विकट इस जहान् की
न कोई पाप संसय जो भी थी वो शान की
माता थी ये तब धरती उनकी प्रांगन कृषि संसार था
बोले जो भी बोली धारा की जीवन से उसका हर था
पर दिन कहाँ वी दूर थे मानवीयता से सुदूर थे
निकल पड़े जो पग जनों के लखते हुए भी सूर थे
बिकने सगी ये माता उनकी पुत्र ही खरीददार था
है बात कोई और कि पीछे कोई स्वर था
खाली पड़ीं जो सड़कें सूखी धुल रेत कांट की
कुछेक के जीवन बनायी कुछ के लिए खाट थी
बाकी चले आशा चलाये एक शहर चार था
माता पिता परिवार पर सीधा बुरा प्रहार था
सोंचा ना होगा कोई स्वप्न ऐसे दुराचार का
झेलना पड़ेगा अब दुःख गुलामी के प्रहार का
माता पिता पथ लखते यहाँ रोटी दो आचार का
शहरों में छोटे पुत्रों का खटखट के बुरा हाल था
अब और क्या सुनाएँ दर्द हिंद के निहार के
पहने थे कितने कपड़े व कितने कहाँ उघार थे
थी जमीदारी प्रथा तो कर क्रिया प्रधान था
औरतें थी भोगी हवस की ऐसा वह संसार था .............
सोंचा भी न था जो कभी वो सोंच बनकर कह गये
देखा न ख्वाब जिसकी मैं वो ख्वाब बनकर बह गये
सोंचते हैं, क्या थे पर आज क्या हम हो गये
चारों तरफ बाहर थी संयुकतता गुहार की
रहते थे ख़ुशी हर समय आनंद सी फुहार थी
थे एक हम अनेक में वो संगम कि धार थी
वे धार अमरता के थे पर अल्पता में बह गये
स्वत्वों का अमंद गान था अनंत पर भी मान था
थे स्वर्गवासी नरक में हम सबका ऐसा शान था
गिरते न कभी गिर के भी जन जन का ये अभिमान था
पर मान अपनी बेंचकर अभिमान में ही ढह गये
है बात सारे जाति की सब हिंद के प्रजाति की
स्वजाति पर निर्भर थी जो उस देश के प्रभात की
उन धीर की सुधीर की विद्वान उन गंभीर की
जो मार्ग पर ही चलते चलते मार्ग से बिछड़ गये
वह देश हिंदुस्तान है जो विश्व का खाद्यान्न था
लुटते हुए सहस्र बार फिर भी जो महान था
था पास इसके अतुल्यता न और किसी के पास था
पर तुली यह ऐसा हुआ न विश्व में कोई भए
कारण कुछेक एक ना असंख्य के करीब थे
थे सभी अमीर,जन व्यक्तित्व ही गरीब थे
धन था धान्य था खेत खलिहान था
था सभी गुजर बसर, अनजान से सब गुजर गये
कहता हूँ आज मैं यहाँ जो मामले संगीन थे
रंगीन थे जो होते कभी, वो स्वप्न में नशीब हैं
शश्यामला थी धरती यहाँ पुत्र नौनिहाल था
जो जैसा था अच्छा ही था चारों तरफ खुशहाल था
सरसों के फूल फूलते, सूरजमुखी बाहर थे
सितार नवरंग में जौ, धान, गेहूँ, सार थे
फुहार था प्रकृति यहाँ वातावरण कुहार था
निर्माता न कोई भाग्य का मनुष्य कूदी लुहार था
पर दुर्भाग्य हम उनकी कहें कि खेल ईश्वरी जाति का
धीरे धीरे न बहोत पर क्षति हुआ प्रजाति का
कुछ तो लुटे खुदी, शायद ईश्वरी अभिशाप था
कुछ को गया लुटाया यही सबसे बड़ा आघात था
बाहरी अधिक प्रवीन थे बल शक्ति से न क्षीण थे
थे बडे, छोटे, बुरे लालची प्रखर मलीन थे
पर था न ऐसा हिंद में यह भारती दरबार था
जिसके लिए सदा से ही अतिथि देवो संसार था
अर्थ स्थिति थी प्रबल विकट इस जहान् की
न कोई पाप संसय जो भी थी वो शान की
माता थी ये तब धरती उनकी प्रांगन कृषि संसार था
बोले जो भी बोली धारा की जीवन से उसका हर था
पर दिन कहाँ वी दूर थे मानवीयता से सुदूर थे
निकल पड़े जो पग जनों के लखते हुए भी सूर थे
बिकने सगी ये माता उनकी पुत्र ही खरीददार था
है बात कोई और कि पीछे कोई स्वर था
खाली पड़ीं जो सड़कें सूखी धुल रेत कांट की
कुछेक के जीवन बनायी कुछ के लिए खाट थी
बाकी चले आशा चलाये एक शहर चार था
माता पिता परिवार पर सीधा बुरा प्रहार था
सोंचा ना होगा कोई स्वप्न ऐसे दुराचार का
झेलना पड़ेगा अब दुःख गुलामी के प्रहार का
माता पिता पथ लखते यहाँ रोटी दो आचार का
शहरों में छोटे पुत्रों का खटखट के बुरा हाल था
अब और क्या सुनाएँ दर्द हिंद के निहार के
पहने थे कितने कपड़े व कितने कहाँ उघार थे
थी जमीदारी प्रथा तो कर क्रिया प्रधान था
औरतें थी भोगी हवस की ऐसा वह संसार था .............
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