शुक्रवार, 27 मार्च 2009

वह मजदूर - २

ऊपरी हिस्से से चली
नीचे के तरफ़ बढती
चूने लगी कुछ क्षण बाद
टिप टिप टिप टिप
नीचे की उर्वर भूमि तक
पहुँचती ,
तरलता प्रदान करती
शीतलता देती
शरीर के सम्पूर्ण हिस्से को
झकझोर देने के बाद
वेदनामय वातारण में
पोंछता एक एक हिस्से से
शरीर का पसीना
वह मजदूर
गहरी लम्बी साँस लेते
श्रम के उस लम्हे से
कर्म को दे प्राथमिकता
फ़िर भी
सुख सुविधाओं से दूर
वह मजदूर ... ॥

वासना

आ रही थी वह
एक अदृश्य स्वप्न - सा
यथार्थ का रूप लेते
धीरे धीरे धीरे
स्मृति पटल में
तेज ठण्ड में
सूर्य की प्रथम किरण - सा
हल्का धूप - देते
जरूरत नहीं थी धूप की
शीतलता की भी नहीं
आवश्यकता एक जलन की थी
तपन की थी
सिरहन और शिष्कन की थी
बन आहार वह
विशिष्ट त्यौहार का -सा
छा रही थी
धीरे धीरे धीरे
समस्त मानसिक क्रियाओं में
वेबस असहाय
उस शीतलता उस धूप को
निःशब्द मैं
था लाचार - लेते
वह विजित
हंसती रही
मुझे छांव धूप देते ॥

मंगलवार, 17 मार्च 2009

दोहे

अरस शमन है प्रगति का घमंड वीरवशान

क्रोध खंगारत रिश्ते को तजहूँ समय धरि ध्यान ॥

सुरभि चमके सुरभि में तारा ज्यों द्विज पास

मानव चमके शुद्धाचरण धरि संतन के आश ॥

अनंत शर्म निज कर्म पर चखि अरस कर स्वाद

सोवत विगत समुन्नत लखि रोवत होत बर्बाद ॥

अनिल गुरु सन जाय के सीखहूँ सगुन सहूर

दुर्गम पथ तजि सुगम पथ धरहूँ नाहिं अति दूर ॥

देखहु तो या जगत में नीचन की भरमार

जहाँ नीच होइहैं बहुत तहां संत दुई चार ॥

जीवन वितत ढूँढत सफर सफर सवारी गात

श्रवण शान्ति मन भ्रान्ति विकल कहत निशा परभात ॥

गुरुवार, 5 मार्च 2009

काश एक बार फ़िर तसलीमा नसरीन किसी नये '' लज्जा '' की रचना का करने में सक्रीय हो जाति .........

खुदा करे कि कयामत हो सब ठीक हो जाए "बडी ही चिंता की बात है , बड़ी ही परेशानी की वजह है , और है बडी ही व्यथित कर देने वाली समस्याएं कि एक तरफ़ जहाँ सम्पूर्ण विश्व आतंक के घेरे में सिमटता जा रहा है वहां आज भी विद् जनों के बीच यह आतंकवाद आलोचना और समालोचना का मुद्दा बना हुआ है , जबकि जरूरत एक त्वरित निर्णय का है । एक ऐसा निर्णय जिसमें सभी एक जुट होकर आतंक के खात्मे का संकल्प लेता दिखाई दे। क्या हिंदू , क्या मुस्लिम , क्या सिख , क्या ईसाई । क्या भारत , क्या अमेरिका , क्या पाकिस्तान , क्या कोरियाई। क्योंकि आज आतंक सिर्फ़ भारत का "झूठा आलाप " नहीं रह गया है जिसे कि संयुक्त राष्ट्र में बार बार उठाये जाने की जरूरत हो , यह तो एक वैश्वीकरण का रूप धारण कर लिया है जो हर जगह , हर मोड़ पर , फ़िर चाहे वह परम्परा या रीति-रिवाज से उपजा कोई त्यौहार हो या मेला अथवा फ़िर क्रिकेट , फिल्मी समारोह , हर स्थान और प्रत्येक प्रक्रियाओं पर अपना आशियाँ बना लिया है आतंकवाद ने ।

भले ही उदयभास्कर के लिये '' भारतीय उपमहाद्वीप के लिए आतंकवाद की व्याधि कोई नई बात नहीं '' है। पर श्रीलंका के लिए ? फ़िर इस्रायल , अमेरिका और स्वयम पाकिस्तान के लिए ?इस्रायल ने तो किया । निःसंकोच किया । उसने सिर्फ़ किया सुना नहीं किसी की क्योंकि whi त्वरित निर्णय था । पर क्या ऐसा भारत , पाकिस्तान और अमेरिका ने भी किया ? और सबसे बडी बात तो यह है कि ;''जब पाकिस्तान सरकार को अपना सारा ध्यान आतंकवादियों की कमर तोड़ने में लगाना चाहिए तब वह उनसे समझौता करने , उन्हें रियायतें देने , और उनमें अच्छा- बुरा का भेद करने में लगी हुई है । '' (दैनिक जागरण सम्पादकीय ) । फ़िर मुंबई हमले में तो पाकिस्तान सरकार और उनके हिमायती लोग भारत से पहेचन मांग रहे थे और इंकार कर रहे थे कि हमलावर उनके देश के निवासी नहीं , पर अब कौन सा साबूत चाहिए उन्हें जब यूनुस खान जैसे प्रभावशाली व्यक्ति सम्पूर्ण पाकिस्तान की तरफ़ से श्री खिलाड़ियों की तरफ़ से माफ़ी मांग रहे हैं ?

ज्यादा तो नहीं , क्यों कि जागरण से लेकर अमर उजाला तक , सभी प्रमुख समाचार पत्रिका ,ने वैसे ही कह दिया है , पर आशा करता हूँ कि काश एक बार फ़िर से तसलीमा नसरीन किसी नये '' लज्जा '' की रचना करने में सक्रिय हो जाती तो शायद उन्हें , कम से कम भारत के विरोध में यह ना कहना होता कि '' भारत कोई विच्छिन्न जम्बूद्वीप नहीं है । भारत में यदि विश-फोडे का जन्म होता है , तो उसका दर्द सिर्फ़ भारत को ही नहीं भोगना पड़ेगा , बल्कि वह दर्द समूची दुनिया में , कम से कम पड़ोसी देशों में तो सबसे पहले फ़ैल जाएगा । '' पर अगर दूसरे नजरिये से देखा जाए तो यह दर्द अभी तक तो सिर्फ़ भारत का था , जिस विष - फोडे का जन्म भारत के नहीं पाकिस्तान के भू-गर्भ से हुआ था । वह घुट रहा था ,वह कुढ़ रहा था ,वह चिल्ला रहा था , रो तो नहीं पर चीत्कार कर रहा था कि यह ( आतंकवाद ) एक महामारी है जिसको मैं ही नहीं तुम सब भोगोगे । पर 'सब ' तो मजे ले रहे थे , इस दर्द का , बेचैनी का और इस पीड़ा का , क्यों कि किसी के आचरण में '' लज्जा '' नहीं नहीं आयी जो इस दर्द का एहसास दूसरे पड़ोसी देशों को भी कराती ।

रही बात आतंकवाद के खात्में के संकल्प का तो मई मानता हूँ कि उदयभास्कर जी को '' आतंकवाद की व्यापक चुनौती के सन्दर्भ में आशा की सुनहरी किरण '' दिखाई दे रही है कि '' पूरा उपमहाद्वीप दहशत के सौदागरों से निपटने के लिए एक जुट हो रहा है '' पर अब भी कुछ तो है जो शायद कह रहा है '' धीरे धीरे बोल कोई धुन ना दे '' क्योंकि डर ही तो आतंक है । और मैं तो कहता हूँ '' खुदा करे कि कयामत हो सब ठीक हो जाए । ''

मंगलवार, 3 मार्च 2009

पर थोड़ा उन विद्यार्थियों को देखो , जो उत्तर प्रदेश के बोर्ड-परीक्षा से जुड़े हुए हैं

वैसे तो मार्च का महीना युवाओं के दिल में एक नया रंग लेकर आता है जिस रंग में उनका मन तो प्रफुल्लित हो ही जाता है , तन भी नवरंगी रंगों से सजकर स्वयं में एक नई धुन का संचार करता है । पर थोड़ा उन विद्यार्थियों को देखो , जो उत्तर प्रदेश के बोर्ड परीक्षा से जुड़े हुए हैं और १० वीं ,१२ वीं की परीक्षा में सामिल हो चुके हैं । पता नहीं क्यों , जो मन खुशी दिखना चाहिए , उत्साहित दिखना चाहिए , प्रसन्न दिखना चाहिए , और चाहिए दिखना एक आश्चर्यचकित कर देने वाली जिज्ञासु भावना से पुलकित , जो वास्तव में इस बात को साबित कर दे की " उछल रही जवानियाँ जवान मस्त जा रहे " या " हम युवा हैं देश के हैं हमारे कल सभी " , पर वे बुझे हुए हैं , टूटे हुए हैं , निरुत्साहित , हीन भावना से ग्रसित , खिन्न हैं , भिन्न हैं , स्वयं की प्रकृति से , चित्त से , माता - पिता के आशान्वित प्रवृत्ति से । इससे एक तरफ़ जहाँ वे लूज , लंगडे , और अपाहिज से लग रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ अब भी जब १७-१८ की उम्र में पहुँच चुके हैं , अबोध बालक की तरंह लग रहे हैं जो इस समय भी इस आशा में है कि कोई आए और हाँथ पकडके लिखाए तो हम लिखें । हम सोंच नहीं सकते , हम हम विचार नहीं कर सकते , और ना ही तो कर सकते हैं प्रयास पेपर में आए हुए प्रश्नों का उत्तर देने के लिए यानि कि " बचपन खेल में खोया " और युवापन कब आया इसका कोई एहसास अब भी नहीं है ।
और फ़िर यह समय तो परीक्षा के रंगों से रंगा दिख रहा है । जिसमें अध्यापक , छात्र , परीक्षा-केन्द्र , साशन-व्यवस्था और तो और अविभावक भी स्वयं में विभिन्न प्रकार के रंगों- से लग रहे हैं जो कहीं कहीं अपने रंगीन माहौल से शिक्षा-समाज में इन रंगों के माध्यम से अराजकता फैला रहे हैं तो कहीं कहीं ऐसा शालीनपूर्ण रंग खेल रहे हैं जहाँ समानता के स्तर पर स्वच्छा-फगुवा का निर्वहन करते दिखाई दे रहे हैं । रंग भी खेल रहे हैं ,लगा भी रहे हैं , लगवा भी रहे हैं । एक का एक दूसरे के प्रति कोई विरोध नहीं । अर्थात शाशन-प्रशाशन , छात्र-अध्यापक अविभावक-विद्यार्थी हित रक्षक ( नकल करवाने वाले दलाल ) सबका सबके प्रति पूर्ण समर्थन भाव । यहाँ ' सर फरोसी की तमन्ना ' भी देखी जा रही है तो 'वसुधैव कुटुम्बकम ' की भावना भी । गार्डों के प्रति ' त्वमेव माता च पिता त्वमेव ' की भावना भी विद्यार्थियों में है तो विद्यार्थियों के प्रति ' साडे नाल रहोगे तो ऐस करोगे ;' की सी यारी । कुलमिलाकर भू -मंडलीकरण और वैश्वीकरण की वास्तविक प्रवृत्ति यहाँ के परीक्षाओं में ही दिख रही है और ऐसी स्थितियां भी यहीं दिख रही हैं , इसी उत्तर प्रदेश बोर्ड परीक्षा में विद्यार्थियों को लेकर ' डिप्टी ना कलेक्टर न महाराज बनेगा नक़ल की औलाद है नक़लबाज बनेगा ;' ................. ।

रविवार, 1 मार्च 2009

कारण अकारण

दर्द उठा भीतर कोई

ढूंढ रहा मैं बावला हो

पता ना चला कारण कोई

क्या तार छिटका दिल का कहीं से

या अपने की कोई पुकार आयी

बरस पडी आँखें अचानक

क्या वेदना नें ले ली है अंगडाई

खिन्न मन , टूटी आत्मा, रूठा ह्रदय

अनेको विकल्प उस कारण के

फ़िर भी उलझा मन अकारण

शायद नहीं दिया कुछ भी सुनाई .......... ।

जरूरत एक कुशल न्याय-व्यवस्था की ......

मानव उत्पत्ति हुई विकास हुआ विकास होने से परस्पर ईर्ष्या द्वेष बढे । और परस्पर ईर्ष्या-द्वेष बढ़ने से विभिन्न प्रकार के अपराधों की उत्पत्ति हुई तथा इन अपराधों की वृद्धि से एक बार पुनः मानव समाज विकास की ओर अग्रसारित होने लगा । इन विनाश को रोकने के लिए एक न्याय प्रणाली दायित्व में आई जो काफी हद तक उन अपराधों को रोकने में सफल रही और मानव समाज पुनः विकास गति पर चल सकी ।

लेकिन तब मानव समाज खतरे की लकीर पर डगमगा रहा था और आज ख़ुद वह न्याय व्यवस्था । अतः अगर आज किसी की जरूरत है तो उस न्याय व्यवस्था के न्याय की जो न्याय व्यवस्था को उसके पूर्व स्वरुप पर ला सके । राजधानी दिल्ली की बहु चर्चित प्रियदर्शिनी-हत्याकांड हो या जेसिकालाल - हत्याकांड अथवा कोई अन्य जघन्य अपराध । इन सब मामलो पर आज की न्याय व्यवस्था की गिरती हुई स्थिति को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।

प्रियदर्शिनी , जिसको उसी के ही घर में संतोष सिंह [जो एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का लड़का ] द्वारा हवास का शिकार बनाया गया और हवस पूरी करने के बाद उसकी हत्या कर दी गयी । मामला कोर्ट में पहुँचा । जब बात उसको सजा देने की आयी तवो अदालत के द्वारा यही कहा गया की वह सजा देते हुए भी नहीं दे सकता । आख़िर उस अभियुक्त को सजा लायक समझा गया और अदालत के द्वारा भले ही अभी तक कोई सजा ना निश्चित की गयी हो पर यह तो स्पष्ट है की वह दोषी है और उसको सजा दी जायेगी पर यही कार्य जो अब हुआ उसी समय होता जब न्यायलय द्वारा यह कहा गया था की हम सजा देते हुए भी नहीं दे सकते तो न्याय व्यवस्था की गरिमा कुछ और ही होती । अब इस बात के खोखले धिधोरे पीते जा रहे है कि न्यायलय की जीत हुई ।

ये तो प्रिदार्शिनी - हत्याकांड का सौभाग्य था जो मीडिया की छाया मिली और मीडिया ने इस मामले को उछाल कर उन जगहों तक पहुँचाया जहाँ से उसे न्याय प्राप्त हो सकी। पर क्या ऐसी भी सोंच कभी विकसित की गयी है कि जहाँ पर ये मीडिया नहीं पहुँच पति उनका क्या होता होगा ? प्रियदर्शिनी और जेसिका जैसी लाखों मामले , बलात्कार , हत्या,फरेब , शोषण आदि के ऐसे होंगे जो न्याय के लिए अब भी न्यायलय के दरवाजे खटकता रहे हैं जबकि वे उतने ही पुराने हैं जितना कि प्रियदर्शिनी हत्याकांड । ये इसलिए हैं क्योंकि शायद इनको मीडिया की छाया नहीं मिली और न्याय व्यवस्था में या तो इनके समस्याओं को सुना ही नहीं जा रहा है और यदि सुना भी जा रहा है तो उसे एक कागजी कार्यवाही समझकर कोरम मात्र पूरा कर दिया जा रहा है । जो न्याय व्यवस्था जैसी पवित्र संस्था के लिए एक सर्मनाक बात है ।

अतः इसमें कोई दोराय नहीं है कि वर्तमान समय में न्याय व्यवस्था ख़ुद अपने साख के धरातल पर डगमगाता नजर आ रहा है जिसे पुनः विश्वास पथ पर लाने के लिए आज एक कुशल न्याय प्रणाली की आवश्यकता है । वो न्याय प्रणाली जो हरेक अपराध को एक अपराध समझते हुए बगैर किसी के हस्तक्षेप के शीघ्रताशीघ्र अपना निर्णय सुना सके जिनसे किसी को ये कहने का अवसर ना मिले कि हमारी न्याय प्रणाली लचीली है अथवा वह अपने कर्तव्य पथ से विमुख हो गयी है ( प्रियदर्शिनी हत्याकांड और जेसिकालाल हत्याकांड के फैसले के समय लिखा गया एक पुराना लेख ) ............. ।