मंगलवार, 4 दिसंबर 2007

रिश्तों पर-1

जिंदगी कभी कभी बहोत हारी,सुस्ताई और मायूस सी लगती है। खासकर तब जब कोई अपना या कोई अपना लगने वाला उसके प्रति अपने कर्तव्यों से विमुख होने लगता है। और तब न तो ये कलम काम करती है और ना ही तो ये सोंच या कल्पना जिससे कुछ नया विचार करके उससे निजात पाने का तरीका ढूँढा जा सके। यही दुखित मन अपने ही पता नही क्या क्या सोंच लेती है और कौन कौन से ताने बाने बुन लेती है कि सहसा ही मन में एक तरंग उठती है और वह उसका साथ छोड़ देने के लिए अपनी सहमति प्रदान करती है। पर क्या किसी समस्या का हल केवल त्याग में ही संभव है ? क्या उसके लिए कोई और प्रयत्न नहीं किये जा सकते ? किये जा सकते हैं, पर यह प्रयत्न केवल मात्र उसी पर ही निर्भर नहीं होनी चाहिये। आख़िर उसमें भी तो दोनों के अभिव्यक्ति की आवश्यकता होती है। पर किस बात की अभिव्यक्ति ? परिश्रम की अभिव्यक्ति, विचारों की अभिव्यक्ति या एक के प्रति दूसरों के आत्मसमर्पण की अभिव्यक्ति। शायेद ये सभी हो सकते हैं। बस अवसर की अनुकूलता होनी चाहिये। अवसर कब, कहाँ, किसको मिलती है ये तो नहीं कहा जा सकता पर अवसर की भी तो उत्पत्ति शायेद एक ही के हित में होती है। जबकि उसमें भी लगभग दूसरे का अहित ही छिपा होता है।
आख़िर इस प्रश्न के बार बार उठाने का क्या कारन है कि मैं उसके लिए सब कुछ करता हूँ वह मेरे लिए कुच्छ नहीं करता या उसके एक ही इशारे पर मैं आशामन के तारे तोड़ने को उद्यत हो उठता हूँ और जब उसकी बारी आती है तो ऐसा आभाष होता है कि उसका छत ही गिरता जा रहा है। क्या इसमें रिश्तों के टूटने का साफ साफ संकेत नहीं मिलता ? आख़िर ऐसी अवस्था में त्याग का विचार नहीं आएगा तो क्या सम्बंध बनाए रखने का विचार आएगा ! संभवत दोनों ही हो सकते हैं। पर शायेद त्याग का स्तर कुछ ऊंचा ही हो!...................

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