गुरुवार, 17 जुलाई 2008

रोटी के लिए

धूप की सनसनाहट

तूफ़ान की आहट , गरमी का कहर

और दोपहर की तपिस

ये सब फीके पड़ जाते हैं

उस समय की मार से

बौखलाए व्यक्ति के आगे

जिसको कहा करते हैं हम

रिक्शा चालक

महज चंद रूपए की खातिर

दो रोटी के लिए

दिन भर , हर समय , हर रोज

चलता रहता है

वह रिक्शा चालक

बिना पनही के

आधुनिक फैशन से बहुत दूर

फटी धोती और एक झीनी कुर्ती पहनें

मारता रहता है वह

रिक्शा का पैडल

फ़िर भी नहीं भरता है

उसका वह पेट

नहीं संतुष्ट हो पाती है उसकी अंतरात्मा

काश हे ईश्वर !

इनकी भी होती एक कुटिया

जिसमें वह रहता आराम से

तब कहीं जाकर झलकती

मानव के अन्दर की मानवता

तब देखनें में आता भारतीय संविधान की

समानता का व्यवहार

पर ये सब हैं कोरी कल्पनाएँ

और इन कल्पनाओं से बहुत दूर है

वह रिक्शा चालक । ।

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

Bhavuk kar dene vali rachna.