सोमवार, 17 मार्च 2008

अगर कहीं कुछ हो जाता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

गजब की चिंता होती है मन में
हलचल सी उठ पड़ती है

एक मार्ग से हटते हटते

आँखें भी रो पड़ती हैं

पर धैर्य खो देता है तन

मन शांत नहीं रह पता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

लाखों करोरों भावनाएं

लेकर आसमा में चक्कर लगाते हैं

एक बार अंतरिक्ष पहुंचकर

धरती वापस आते हैं

मुख्य बिन्दु पर चलते चलते

बुद्धि ही खो जाता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है


रहता एक कहीं अगर तो

चार उसे मैं बनता हूँ

अपनी झूठी खबरें देकर

सबको खुश कर जाता हूँ

पर मजबूरी हो चली यहाँ पर

असत नहीं छिप पता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है


किसी हादसे में कहीं से

आलसी अगर आ जाता है

ch च करते करते वहाँ

ख़ुद घायल हो जाता है

अन्ताहल में आकर सबको उस पर रोना पड़ता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

कुछ अच्छे कुछ बुरे जुटते

रहते उस शोकापन में अपनी बीती बातों को
कह जाते एक घतानापन में
वो विचरते देते सुख हम पर

दुःख ही उनको मिलता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

कुछ सहकारी कुछ ग्रामीनी

आ जाते दो जन के गम में

कुछ घूसखोरी कुछ खिश्निपोरी

कर जाते उनके अंधेपन में

चिंता मुझको इस पर होता है

जल्द मानव घबडाटा है

अगर कहीं कुछ हो जाता है

अपनें विगत गत जीवन को वो

खुश्खोरों को बताते हैं

स्थ घूसखोरी के कारन

एक को चार बनाते हैं

सब बातों को छोड़ जवान दिल

इनकी बातों में उलझता है

अगर कहीं कुछ हो जाता है ................ ।




सोमवार, 3 मार्च 2008

और दे जायेंगे काम यही १०-५ रुपये

अब नहीं सहा जाता और ना ही तोदेखा जाता है आर्थिक तंगी की दशा । जैसे जैसे दिन बढ़ रहे हैं , उम्र बढ़ रही है ऐसा आभाष होता है की ये आर्थिक समस्याएं पूरी तरंह से हमें अपनी गिरफ्त में लेती जा रही हैं। जबकि ऐसा नहीं है कि इससे मैं ही दुखित हूँ या ये कि मैं ही झेल रहा हूँ । भोग रहा हूँ। इस दशा को इसके पहले भी हमारे ही दादा, बाबा, यहाँ तक कि बड़े भाई तक इस तंगी से मुखातिब हो चुके हैं । और जैसा कि अब भी झेल रहे हैं , हालांकि वैसी मुसीबत मेरे ऊपर नहीं आयी पर आज ये भी नहीं कह सकता कि मैं एक एक पैसे के लिए नहीं सहका । आज मैं विद्यार्थी जीवन का निर्वहन कर रहा हूँ ,कहा जाता है कि विद्यार्थी जीवन सबसे सुखमय जीवन होता है। ना कूँ चिंता और ना ही तो कोई फिक्र । खासकर आजके इस फैश्नबुल जमानें में तो और भी सही है । पर ऐसी स्थिति में पैसे के मत्वा को तो नजरंदाज नहीं किया जा सकता । जब तक जेब में १०-५ रुपये नहीं होते न तो किताब नजर आती है और ना ही तो कुछ पढ़नें का दिल करता है। वैसे भी १०-५ रुपये आज के इस महंगाई के दौर में कोई मायनें नहीं रखता पर कहीं भी बैठ जाओ एक दोस्त के साथ तो २०-२५ के करीब वैसे ही पड़ जाते हैं । पर क्योंकि कोई साधन नहीं है, कोई विशेष आश्रय नहीं है और ना ही तो पिता की कमाई । माँ है जिसका ख़ुद का खर्चा अपाध है ,बड़े भाई तो हैं पर क्योंकि १८ की उम्र पार कर चुका हूँ अब वह बचपना भी नहीं रही कि जिद करके या रो के ले लूँ, मांग लूँ। बडा हो गया हूँ और स्वाभिमान का अभिमान । १०-५ ही मेरे लिए बहुत है और कोशिश करता हूँ कि ये बचे रहें खर्च न हों । पर फ़िर भी कमबख्त यूँ ही आँख के सामनें से ख़ुद के ही हाँथ से स्वयं के जेब से निकलकर चले जाते हैं दूसरों के पास ।

पहले (बडे भाई के पास रहते हुए)समोसे अच्छे लगते थे ,न्यूदाल्स और मंचूरियन प्यारे लगते थे । वर्धमान मंदी में जाकर गोल गप्पे खाना तो एक परिवेश ही बन गया था मेरा। पर वही जब अब कहीं दिखते हैं तो तुरंत मन मचल जाता है। पहुँचनें की एक कोशिश तो करता हूँ उनके पास पर असफल क्योंकि वही १०-५ अगर बच जाते हैं तो दूसरे दिन मिर्चा आ जाएगा , या फ़िर एक्शातेंशन लाइब्रेरी में २ रुपये साइकिल स्टैंड के लगते हैं और दी जायेंगे कम यही १०-५ रुपये । ऐसी स्थितियां प्रायः लोगों के पास कम ही आती होंगी पर हमारी तो दिनचर्या ही इसी से सुरु होती है। अर्थात सुबह से ही १०-५ रुपये को बचानें का उपक्रम करता रहता हूँ और शाम होते होते २०-२५ रुपये खर्च होकर अंततः एक दिशाहीन मोड़ पर आकार सोंचानें के लिए मजबूर हो जन पड़ता है।

आज नंददुलारे वाजपेयी द्वारा लिखित पुस्तक कवि निराला पढ़ रहा था और क्योंकि निराला की दिनचर्या भी लगभग इसी लहजे में हुआ करती थी प्रारम्भ और यह जानने पर कि निराला का दानी स्वभाव बहुत हद तक उनकी अर्थ समस्या थी " रिक्शे वाले या पं वालों को पैसा देकर वापस न लेना उनका स्वभाव नहीं अपितु कट जाता था उसमें जिसे प्रायः वे उधार(कर्ज) लिए रहते थे । खीझ उत्पन्न हुयी सम्पूर्ण मानवीयता पर पर यह जानकर कि आर्थिक दुर्दशा अन्य दुर्दाषाओं से प्रायः थिक हुआ कराती है अपनें आप को समझाते हुए यह एक लेख लिखना ही उचित समझा। ......................

हमपे क्या गुजरेगी जब हम उस गुरु को छोड़कर नव जीवन के नव आँगन में प्रवेश करेंगें ?

कादम्बनी के "आयाम" स्तम्भ में प्रकाशित विश्वनाथ त्रिपाठी की प्रायः गद्य विधा के संस्मरण विधा में रची रचना या आत्मीय लेख ,"उन छात्रों की याद आती है" पढ़कर सहज ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गुरु गुरु ही होते हैं उनका स्थान तो कोई और ले ही नहीं सकता । एक स्थान पर वे जब कहते हैं,"गुरु माँ-बाप नहीं होता"तो मुझे ऐसा लगा जैसे कोई बहुत बडा रहस्य आज की पीढ़ी से, खासकर हम नवयुवकों से छुपाकर रखा जा रहा है । पर जब उसी अंदाज में आगे वे लिखते हैं,"वह कुछ ऐसा भी होता है, जो माँ-बाप नहीं होते" तो मुझे अपना छात्र जीवन याद आ जाता है । जो अब भी मैं अपनें उसी गुरु के संरक्षण में छात्रीय जीवन को न सिर्फ़ जी रहा हूँ अपितु उसका आनंद उठा रहा हूँ। श्रीमान त्रिपाठी जी जिस तरंह आपका श्री प्रकाश अपने घर के समस्याओं से आहत था ठीक वही दशा आज हमारी है। फर्क तो सिर्फ़ इतना है कि उसके पास आप गुरु विश्वनाथ त्रिपाठी थे और मेरे पास गुरु सुनील अग्रवाल जी जो कमला लोह्तिया सनातन धर्म कालेज( लुधियाना) के राजनीती शास्त्र के प्रमुख अध्यापक हैं। वह समस्याएं आपको सुनाता था मैं सुनील सर को ।
पर निहायत ही आज के इस समय में बहुत से विद्यार्थी ऐसे होते हैं जो न तो अप जैसे गुरु का दर्शन ही कर पते हैं और ना ही तो अपने आपको ऐसे छात्र के रूप में प्रस्तुत ही कर पाते हैं जिससे कि गुरु और शिष्य के उस सम्बंध को एक उए "आयाम"तक पहुँचाया जा सके । बात तो यह भी सही है कि "सभी छात्र इतनें प्रिय और आत्मीय नहीं होते" क्योंकि आज वे शिक्षा को शिक्षा की तरंह नहीं अपितु व्यावाशय के रूप में ले रहे हैं । और ऐसी स्थिति में तो जो गुरु शिष्य परम्परा का केन्द्र होता है संवाद पूर्ण रूप से टूट गया है।जहाँ एक अध्यापक को अपने सिर्फ़ ४५ मिनट के लेक्चर से मतलब होता है वहीं विद्यार्थी का उस प्रणाली के डेली अतैन्देंस से यथास्थिति तो आज ये कहती है की अध्यापक जन अपना अध्यापकत्वा ही खोते जा रहे हैं । अब तो आप जैसे लोग जो यह कहते हैं ," विश्वविद्यालय में क्लास लेनें के बाद तीसरे पहर , मैं अक्सर छात्रों के साथ बैठकर गप मरता था ।" न होकर ऐसी श्रेणी के अध्यापक प्रायः हो रहे हैं जो उतने समय गप मरनें के भी शुल्क (फीश) ले लिया करते हैं अन्यथा इस रूप में उनके पास नहीं बैठते की उनके लिए उनके परिवार से ही फुरसत नहीं है।
पर हकीकत यही तो नहीं है । संवाद का जरिया यहीं से टू खत्म नहीं हो जाता। एक अनजानें अंचल पर रह रहा छात्र जिसका प्रायः ना तो उसका वहाँ घेर होता है और ना ही तो उसका अपना जन्मभूमि । होते हैं तो आप ही "जो कुछ ऐसा भी होता है जो माँ -बाप नहीं होते ।" ऐसी स्थिति में वह विद्यार्थी स्वार्थी तो नहीं कह सकता पर अभागा जरूर हो सकता है जो अपनें गुरु नहीं गुरु के रूप में पाया हुआ माता-पिता को अपना हाल नहीं देता और ना ही तो उसका लेता है ।वे शायद यही भूल जाते हैं की "माँ-बाप का दुःख असहनीय होता है, वे रोते धोते भी हैं"
वास्तव में जब आप कहते हैं,"मेरे अनेक विद्यार्थी ऐसे भी थे, जो हमें बीच में ही छोड़कर चले गए । निहायत आत्मीय, प्रतिभाशाली छात्र । उनकी याद से हूक सी उठती है । हमारी स्मृत चेतना विवश चीख करती है और चुप हो जाया कराती है ।" मैं प्रतिभाशाली होनें की तो आशा नहीं कर सकता और ना ही तो यह कह ही सकता हूँ की आपके श्री प्रकाश और अन्य विद्यार्थियों की तरंह गुरु की पवित्र आत्मा में जगंह ही बना पाया हूँ पर एक बात जो मुझे सालती है वह यह की आप तो गुरु हैं, अर्थात माता-पिता, जिन्हें गमों और दुखों को सहेना लगभग एक आदत सी बन गयी होती है , किसी तरंह उनके बिछुदन को सह भी लेते हैं , पर मैं या मेरे जैसे अन्य छात्र जब आप और सुनील सर जैसे माता के आँचल और पिता के प्यार को सिर से उठाते देखते होंगे या आभाष करते होंगे तो उनका क्या होता होगा ? आपकी इस रचना को पढ़कर वास्तव में ह्रदय द्रवित हो गया है। आँखें नम हो आयी हैं । इसलिए तो हई है की आप के दिल पर व आप पर क्या गुजरती होगी जब हर साल ऐसे शिष्य को विदा करते होंगे , इसलिए भी की हमपे क्या गुजरेगी जब हम उस गुरु को छोड़कर नव जीवन के नव आँगन में प्रवेश करेंगे ? क्या उस समय भी आप जैसे गुरु या सुनील सर जैसे गुरु हमें मिल पायेंगें ? जो "छात्रों के साथ क्लास लेनें के बाद तीसरे पहर में अक्सर बैठकर गप मारा करें."

बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

जहाँ पढ़ना और पढाना ही सब कुछ होता है...

आज कई दिनों से जब मैं स्व-वेदना और पारिवारिक दुर्दांत के ग्रसन से मुक्त हो अपने अध्ययन कार्य में पुनः व्यस्त हो चुका हूँ, तबसे मेरे कुछ दोस्त अक्सर ये कहते हुए, और जैसा की मैं भी मनता हूँ कि मैं कालेज बराबर नहीं आ रहा हूँ। यदि आ भी रहा हूँ तो लगभग क्लासों में बंक मार जाता हूँ । मेरे चाहने वालों में तो कई लोग यह भी कहते हुए नहीं हिचकते कि कहीं मैं "इलाहबाद "में चल रहे "नहावन" में तीर्थ यात्रा करनें तो नहीं गया था। सही है उन सब का सोंचना, और जाहिर है ऐसे प्रश्नों का उठना । दरअसल अबतो मैं भी मनता हूँ कि मैं तीर्ता यात्रा में नहीं पर तीर्थ-स्थल पर जरूर रहता हूँ । जहाँ पर कभी कभी मुझे इलाहबाद के ;"शास्त्री पुल"पर " निराला" की "वह तोड़ती पत्थर"वाली औरत भी मिल जाया करती है और कभी कभी मुंशी प्रेमचंद के "गोदान" का होरी गऊ दान के स्वप्न लिए उसी तट पर दिखाई देता है । जहाँ दिनकर के "रश्मिरथी" का कर्ण दलितों के उत्कर्ष के लिए हांथों में अर्ध लेकर सूर्य से प्रार्थना करते हुए दिखाई देता है वहीं अज्ञेय के "हरी घांस पर क्षण भर" के लिए बैठे एक प्रेमी जोडा यह सोंच कर उठता हुआ प्रतीत होता है कि कहीं ये ईर्ष्यालु समाज उनको कुछ और न समझ बैठे ।
इस तीर्थ- स्थल की जीतनी भी प्रसंसा की जाए उतनी ही कम है । क्योंकि यहाँ पर हमारी संस्कृति है , सभ्यता है , परम्परा का निर्वहन कराने के लिए नए और पुराने व्यक्तियों के बीच संवाद का जरिया है और है जीवन को जीने की कला । एक ऐसी कला जिसमें मार्क्सवाद के दर्शन यदि आर्थिक समस्याओं के हल खोजने की प्रेरणा देता है तो गाँधी जी के विचार उसको पाने का तरीका बतलाता है । जहाँ कबीर दास ,"का बाभन का जुलाहा" कहकर समाज में भाईचारा को बढ़ने और जाती-पांति को ख़त्म कर देना चाहते हैं वहीं घनानंद जी यह बतानें के लिए उद्यत हो रहे हों कि इस मार्ग पर चलने का एक ही तरीका है और वह है प्रेम । एक ऐसा प्रेम "जहाँ सांचे sचले तजि अपुनपौ झाझाकी कपटी जे निसाक नहीं।"
यहाँ मोहन राकेश के "अशाध का एक दिन"से संवाद करती मुक्तिबोध की "अंधेरे में "खड़ी कविताएँ है जो पूर्ण होते हुए भी मोहन राकेश के दुनिया में "आधे अधूरे " हैं। यहाँ पर आशा है, निराशा है , वेदना है संवेदना है और है फणीश्वरनाथ रेणू की आंचलिकता । "मैला आँचल" "परती-परिकथा"यदि जीवन की वास्तविकता पर आने के लिए मजबूर कर देती हैं तो "रस्प्रिया", "तीसरी कसम", "आदिम रात्रि की महक",तथा "संवदिया" मध्यम से श्रद्धालु परदों के पीछे छुपे हुए सत्य को पहचानकर मानवीय संवेदना को वेदना के स्वर से भर कर समाज में नव क्रांति लाने को उद्यत हो उठता है । जहाँ पर हर कोई ऐसे पवित्र स्थल पर मत्था टेक कर जतिवादिता और वर्ग-भेदभाव के कारण खड़ी दीवार को तोड़ देना चाहता है, दहा देना चाहताहै और चाहता है निर्माण करना ऐसे परिवेश और सभ्यता का जहाँ पर मानव का मानव के साथ व्यापार का नहीं मानवीयता का सम्बंध हो ,और हर कोई , हर किसी से , अशोक वाजपेयी जी के "कविता का गल्प" का माने तो संवाद करता हुआ दिखाई दे , चिंतन करता हुआ दिखाई दे , अपने जीवन के प्रति , अपनी वास्तविकता के प्रति और सबसे आवश्यक तथा महत्वपूर्ण समस्या साहित्य और समाज के प्रति । की जब साहित्य व्यक्ति की समस्याओं को केन्द्र में रखकर उनके लिए निराकरण खोजने का प्रयास कर रहा है तो आखिर क्या कारण है कि साधारण-वर्ग से लेकर उच्चा-वर्ग , और अध्यापक वर्ग से लेकर विद्यार्थी -वर्ग तक उससे अपनी दूरियां बढाये जा रहा है । कि जब कविता चाहे "भिक्षु" हो या "दींन" , चाहे "वह तोड़ती पत्थर" हो अथवा अर्थहीन जीवन का रोना रोता वृद्ध "चल रहा लाकुटिया टेक" हो इन सबका इन सबके अपने अपने अर्थों में साथ दे रही हो तो आखिर वे सब क्यों उसके विकास और संवर्धन के विषय में उदासीन हैं ।
वास्तव में दोस्तों मुझे बहुत ही आनंद आ रहा है इस तीर्थ स्थल पर आकर। जो तीर्थ यात्रा से ज्यादा पुण्य कमाने का अवसर देती है । श्रद्धा देती है और देती है हौसला जबकि क्लास में क्या है वही ४५ मिनट डेस्क के सामने कुर्सी पर बैठा एक इन्सानिं मूर्ती । या समय पर पहुँच कर लगातार ४५ मिनट लिखवाने वाला ट्यूटर , अथवा फ़िर ये कहें कि गुरु के मर्यादाओं के साथ खेलते हुए "बुद्धिमान बुद्धू" विद्यार्थिओं की संगती । बहुत हद तक अब तो आप सब ये sweekare ही होंगे कि हाँ "ये सब ये सब कुछ" । तो जब ये सब ये सब कुछ है तो आप सब भी आ जाओ इस तीर्थ स्थल पर "जिस तीर्थ स्थल का नाम है "साहित्य" "साहित्य का संसार" और अगर गुरु प्रो० सुनील अग्रवाल सर का मानें तो "आनंद का स्वर्ग" , जहाँ पर पढ़ना और पढाना ही सब कुछ होता है । ..............................

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

आलस्य-युग में मनुष्य लक्ष्यहीन एवं पूर्णरूपें कर्महीन होगा

जंग करना आसान है। जंग में विजय प्राप्त करना आसान है। किन्तु यह जंग तलवारों की हो न की आपसी विवादों की । जहाँ जंग तलवारों की होती है वहां फैसला बाहुबल पर जाता है तथा विजय प्राप्त करना कुछ हद तक मुमकिन हो जाता है। और जब यग लड़ाई आपसी विवाद की होती है , तब दिल कुछ भी करनें से इंकार कर देता है। फिर इन्सान कर भी क्या सकता है? कलह, अशांति व्यक्ति को इतना लाचार कर देती है कि व्यक्ति दिन प्रतिदिन निराशा एवं आत्मग्लानी में डूबता जाता है। एक दिन वह समय आ जाता है जब जिंदा आदमी बुत्परस्त बन जाता है । सब कुछ देखता हुआ भी अनदेखा कर देता है । सब कुछ जानकर भी वह अनजान बन जाता है । अपनी पहचा वह इस कदर भूल जाता है, जैसे डाल से टूटा हुआ पत्ता । यह आत्मविश्वाश ही कितना सहायक होगा ? नसीब ही कितना साथ देगी ? कोई किसी का भला क्या कर सकेगा ? इन सभी विवादों में उलझाना, साथ ही साथ इन विवादों का निराकरण कैसे निकले ? कौन हल करे ये छोटे- छोटे दो चार विवाद ?
अजीब विडंबना है । आज इन्सान खुद को ही नहीं बता पा रहा है कि वह क्या है, उसके अंदर कितना गुण समाहित है,वह समाज के लिए कितना उपयोगी है ? वास्तविकता तो यह है कि आज प्रत्येक व्यक्ति अपनें स्वाभिमान के परे एक कायर की भांति जीवन बितानें में अपना कर्तव्य समझ रहा है। फिर क्या हक है उसे किसी दूसरे पर टिप्परी करनें की ? वह क्यों भाषण देता है कि हम परिवार या समाज की भलाई के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर सकते हैं ? एक आलसी की भाँती जीवन यापन करना इन्सान को शोभा नहीं देता। आलसी व्यक्ति अपनें किसी कार्य को करनें में असमर्थ होता है । फिर वह परिवार समाज या किसी और के विषय में क्या सोंच सकता है ? यदि आज जन जन, बच्चा - बच्चा आलस्य का त्याग नहीं करेगा तो आने वाला समय आलस्य - युग के नाम से जान जाएगा। अर्थात , आलस्य-युग में मनुष्य लक्ष्यहीन एवं पूर्णरूपें कर्महीन होगा । .............

सोमवार, 4 फ़रवरी 2008

फिर क्यों रख रो रही वह अपनी पकी रोटी?

जल रही आग के आगे
तप रहे तावे पर , बैठी
रख रही वह पिसान कि तहें
धीरे धीरे नरम हांथों से
उलटती पलटती देखती
फिर चौपतती
फिर पहुँचाती सबके सामने
कच्ची है रोटी
काले धब्बे ज्यादा पड़ गए हैं
अभी और पकाना था
नहीं लगाई आंच
पक तो गयी , पर जल गयी
ज्यादा लगाई आंच
नहीं इसमें कोई स्वाद
हो गया सब बर्बाद
रख , पका दूसरी रोटी
देना उसे जो आये मेरे बाद
जली , भुनी , रोई
पस्ताती फिर ले आयी रोटी
वही धुवां वही आग
पर पसीना है नया
उलट पलट तरासती
फिर वही नयी रोटी
बन गयी रोटी एकदम नयी
पर फिर क्यों रख रो रही
वह अपनी पकाई रोटी ?.............

रविवार, 3 फ़रवरी 2008

..........इज्जत क्या,उनको रोटी भी नसीब होती है तो इन्हीं चमारों के कारन

कभी कभी, जब कभी , कोई ऐसी रचना हमें पढनें को मिलती है, जिसमें भारतीय वर्ण-व्यवस्था के प्रति व्यंग और मानव जीवन को पाने के बावजूद पशुतर जीवन जीने के लिए मजबूर निचली जातियों, अर्थात दलितों की समस्याओं को सत्य के धरातल पर रख उनके निरासमय जीवन के प्रति, कुंठित भावनाओं एवं संवेदनाओं को, जहाँ दुखों को सहना उनकी परंपरा और वैसे वातावरण में रहना, जहां न तो साफ सफाई हो और ना ही तो कोई घर बार हो , हो तो झुग्गियां- झोपरियाँ । जिनका समय या असमय कभी भी नष्ट हो जाना निश्चित ना हो, उनका परिवेश बन जाता है। ऐसी कहानियो को सुनकर या पढ़कर निश्चित ही ह्रदय में दो तरहं की चिंगारियां फूटती हैं जिसमें एक वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरहं समाप्त कर देना चाहती हैं जबकि दूसरी उन दलितों को, जो पशुतर जीवन जी रहे हैं, वर्ण-व्यवस्था के प्रधान, ब्रह्मण और क्षत्रियों के बीच खड़ा कर देना चाहती हैं।
रामनिहोर विमल की कृति,"अब नहिं नाचाब" हालांकि इसकी रचना १९८० के आसपास की गयी पर भारतीय वर्ण-व्यवस्था की प्रधानता से पूरी तरहं लड़ती हुई और सूद्रों , चमारों एवं दलितों के अधिकारों का समर्थन करती हुई एक ऐसे रंगमंच का निर्माण करती है जहां यदि दलितों को उत्साहित होनें की प्रेरणा मिलती है तो क्षत्रियों और ब्राहमणों को ग्लानी और वर्ण व्यवस्था के प्रति, जो हमारे पूर्वजों, वेदों, तथा उपनिषदों के द्वारा हमें प्रदान किये गए, क्शोभित होनें के लिए हमें मजबूर कर देती है।
अपनें वक्तव्य में विमल जी यह बात मानते हैं,"हमनें इस कहनीं को घटी होते हुए नहीं देखा।"पर आज के परिप्रेक्ष्य में और खासकर जिस समय यह लिखी गई, पूर्णतः सत्य सिद्ध होती है। कन्हाई भगत का, जो कहानी का मुख्य पत्र है, पंडित विद्याधर चतुर्वेदी तथा बाबु साहब शेर शिन्घ से दंडवत प्रणाम करना और उनका ध्यान ना देना। ध्यान देते हुए भी,"उठ उठ ससुर तुम लोग को समय असमय का जरा भी ख्याल नहीं , जब भी मेहरिया भेंज दिहिस, चलि दिहें।"दुत्कार कर अपमानित करना ब्रह्मण और क्षत्रियों का तो परिवेश ही बन चूका था। आज के परिवेश में भी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के लगभग ८०% दलितों की, जहां सवर्णों की बहुलता पाई जाती है,यही दशा है । जो ना तो उनके सामनें खड़ा हो सकते हैं और ना ही तो उनके साथ, उनके खाट पर बैठ ही सकते हैं। ये आज भी समझते हैं,"चमारों की इज्जत जानें से गाँव की इज्जत नहीं जाती। और जिस गाँव में चमारों की इज्जत होती है, उसमें फिर हम लोगों की इज्जत नहीं होती।" पर शायद ये भूल जाते हैं कि इज्जत क्या उनको रोटी भी नसीब होती है तो इन्हीं चमारों के कारन।............................