सोमवार, 5 नवंबर 2007

आंसू की सार्थकता

आंसू जो कभी कभार भा करते हैं। बेवजह और अनायास। तब जब हम किसी को विदा करते हैं या किसी के घर से विदा होते हैं। अथवा कोई अचानक आ जाता है और हम दौड़ पड़ते हैं इस आंसू को लेकर। उनका स्वागत करने के लिए, अगवानी करने के लिए। ये तो हुयी प्रेम की आंसू जिसके कोई न कोई वारिस होते हैं। यह अनाथ नहीं होती, दूसरों की उसमें कम से कम कुछ न कुछ अभिव्यक्ति होती ही है। जो चूकर गिरने से पहले ही थाम ली जाती है। पर क्या हम इस आंसू को वास्तविक आंसू कह सकते हैं? यह कैसी आंसू है जो कभी कभार बहा करती है और दूसरों की दिलासायें पाकर अपने आपको तिलान्जित कर लेटी है? आंसू तो शायद वी होते हैं जो अनवरत बहा करते हैं ,जो लावारिस होते हैं । जिसमें दूसरों की अभिव्यक्ति होती है तो शोषण के लिए। दिलासायें होती हैं तो विकास को विनास में परिवर्तित करने के लिए जिसमें यदि स्वर्थाता होती है तो दो रोटी के लिए और यदि निह्स्वर्थाता होती है तो अपने आपको समर्पण करने के लिए। इसके शिवाय वो कर ही क्या सकते हैं? ना तो विद्रोह और ना ही तो विरोध। पर यदि विद्रोह और विरोध करें भी तो किस आधार पर सब कुछ राजनीतिकों का जो ठहरा। धन- दौलत, रूपया- पैसा, मान-ईमान।
भारत में चल रहे आतंकवादी हमले हों या आसाम में सितम ढा रहे उल्फा संगठन के कारनामें अथवा दिल्ली के मास्टर प्लान के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण मामले या तो फिर निठारी हत्याकांड,इन सब में इन्हीं आंसू के तो दर्शन होते हैं। जिसमें निह्स्वार्थ्ता होती है । स्वर्थाता होती है । निरासा , डर ,भय , अनुकम्पा होती है। जो जीवन के समतल पर ऐसा बहा करती है जैसे नदियों के पानी। जिनको न तो कोई पूछनें वाला होता है , और ना ही तो कोई रोकने वाला। कभी कभार यदि रोकानें की कोशिश की भी गयी तो बाँध बनाकर किसी नाम से विभूषित कर दिया गया । घोट दिया गया गला उसका,उसके विकास का और उसके व्यक्तित्व का । पर यहाँ यह भी कहना तो एक देश के लिए , उसके लोगों के लिए , हमारे लिए, अन्यायपूर्ण होगा , कि आंसू रोके नहीं जाते । वी अनवरत बहते रहते हैं । वे लावारिस होते हैं । उनको कोई पूछनें वाला नहीं होता। नहीं;ऐसा नहीं है। जरूर कोई न कोई होता है। उसे रोकानें वाला । उसके बदले भले ही वह अपने आंसू बहाए। पर वह एक कोशिश तो करत्ता है-लाखों आंसू को बहनें से रोकने के लिए । भले ही वह सीलिंग मामले के अंतर्गत अन्यायपूर्ण ढंग से जेलों की रोटी खाए या फिर उसमें उसकी राजनीतिक हित छिपा हो, पर वह एक संघर्ष तो करता है इन असहाय आंसुओं के साथ । यदि इन्हीं के जैसा देश का ३५% भाग करनें लगे तो ये आंसू बहे ही क्यों? फिर तो ना राजतन्त्र , न लोकतंत्र , ना तो प्रजातंत्र , सब तंत्र आ जाये । स्वतंत्र तंत्र आ जाये । जिस स्वतंत्र तंत्र में न तो पुलिस हो, ना तों अन्याय हो , ना तो कानून हो । पर, ये तो गांधीवादी विचारधारा है । इसका समर्थन कौन करेगा ? कांग्रेस , भाजपा , या फिर अन्य राजनीतिक दल? शायेद कोई नहीं। क्योंकि उनके पास ये आंसू नहीं है । हित है। राजनीतिक हित। वर्ग हित । समोहिक हित । समाज हित से कोई मतलब नहीं । समाज क्या कर रहा है? क्या हो रहा है? कहाँ जा रहा है?कोई मतलब नहीं , कोई परवा नहीं। कुछ हो रहा है वो भी बुरा, कुछ न हो रहा है वहतो बुरा हयी है । जो कुछ कर रहे हैं वो आलोचना के शिकार , और जो नहीं कर रहे हैं वो तो आलोचित हयी हैं ।
फिर आंसू कौन है? कहाँ है? कैसे है? किस तरह से उसको परिभाषित किया जाय? किस तरह से उसकी सार्थकता दिखाई जाय ? कैसे नाम दिया जाय उसको आंसू का ? क्या आंसू nirasray है?जो यूँ ही choo padati है। जो यूँ ही bhaauk हो uthati है। बहनें लगती है , गिरने लगती है, चुनें लगती है झरनों की तरह , किसी को देखकर । शायेद यही। .....................




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