रविवार, 4 नवंबर 2007

हम क्या थे क्या हो गये

आया था कभी ख्याल जो वो ख्याल बनकर रह गये

सोंचा भी न था जो कभी वो सोंच बनकर कह गये

देखा न ख्वाब जिसकी मैं वो ख्वाब बनकर बह गये

सोंचते हैं, क्या थे पर आज क्या हम हो गये


चारों तरफ बाहर थी संयुकतता गुहार की

रहते थे ख़ुशी हर समय आनंद सी फुहार थी

थे एक हम अनेक में वो संगम कि धार थी

वे धार अमरता के थे पर अल्पता में बह गये


स्वत्वों का अमंद गान था अनंत पर भी मान था

थे स्वर्गवासी नरक में हम सबका ऐसा शान था

गिरते न कभी गिर के भी जन जन का ये अभिमान था

पर मान अपनी बेंचकर अभिमान में ही ढह गये


है बात सारे जाति की सब हिंद के प्रजाति की

स्वजाति पर निर्भर थी जो उस देश के प्रभात की

उन धीर की सुधीर की विद्वान उन गंभीर की

जो मार्ग पर ही चलते चलते मार्ग से बिछड़ गये


वह देश हिंदुस्तान है जो विश्व का खाद्यान्न था

लुटते हुए सहस्र बार फिर भी जो महान था

था पास इसके अतुल्यता न और किसी के पास था

पर तुली यह ऐसा हुआ न विश्व में कोई भए


कारण कुछेक एक ना असंख्य के करीब थे

थे सभी अमीर,जन व्यक्तित्व ही गरीब थे

धन था धान्य था खेत खलिहान था

था सभी गुजर बसर, अनजान से सब गुजर गये


कहता हूँ आज मैं यहाँ जो मामले संगीन थे

रंगीन थे जो होते कभी, वो स्वप्न में नशीब हैं

शश्यामला थी धरती यहाँ पुत्र नौनिहाल था

जो जैसा था अच्छा ही था चारों तरफ खुशहाल था


सरसों के फूल फूलते, सूरजमुखी बाहर थे

सितार नवरंग में जौ, धान, गेहूँ, सार थे

फुहार था प्रकृति यहाँ वातावरण कुहार था

निर्माता न कोई भाग्य का मनुष्य कूदी लुहार था


पर दुर्भाग्य हम उनकी कहें कि खेल ईश्वरी जाति का

धीरे धीरे न बहोत पर क्षति हुआ प्रजाति का

कुछ तो लुटे खुदी, शायद ईश्वरी अभिशाप था

कुछ को गया लुटाया यही सबसे बड़ा आघात था


बाहरी अधिक प्रवीन थे बल शक्ति से न क्षीण थे

थे बडे, छोटे, बुरे लालची प्रखर मलीन थे

पर था न ऐसा हिंद में यह भारती दरबार था

जिसके लिए सदा से ही अतिथि देवो संसार था


अर्थ स्थिति थी प्रबल विकट इस जहान् की

न कोई पाप संसय जो भी थी वो शान की

माता थी ये तब धरती उनकी प्रांगन कृषि संसार था

बोले जो भी बोली धारा की जीवन से उसका हर था


पर दिन कहाँ वी दूर थे मानवीयता से सुदूर थे

निकल पड़े जो पग जनों के लखते हुए भी सूर थे

बिकने सगी ये माता उनकी पुत्र ही खरीददार था

है बात कोई और कि पीछे कोई स्वर था


खाली पड़ीं जो सड़कें सूखी धुल रेत कांट की

कुछेक के जीवन बनायी कुछ के लिए खाट थी

बाकी चले आशा चलाये एक शहर चार था

माता पिता परिवार पर सीधा बुरा प्रहार था


सोंचा ना होगा कोई स्वप्न ऐसे दुराचार का

झेलना पड़ेगा अब दुःख गुलामी के प्रहार का

माता पिता पथ लखते यहाँ रोटी दो आचार का

शहरों में छोटे पुत्रों का खटखट के बुरा हाल था


अब और क्या सुनाएँ दर्द हिंद के निहार के

पहने थे कितने कपड़े व कितने कहाँ उघार थे

थी जमीदारी प्रथा तो कर क्रिया प्रधान था

औरतें थी भोगी हवस की ऐसा वह संसार था .............

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