गुरुवार, 15 नवंबर 2007

एक सुबह









एक सुबह एक बालक आया

अपनी माँ के पास

ममता की छाया पाने को

जो था बहुत निराश

एक अनिंद्य आशा का

दीप जलाए हुए बोला वह,

ऐ माँ!

तू क्यों छुपाये है मुख

दे न वही सुख फिर

जो कुछ समय पहले दिया करती थी


काश! आज तूं जानती

मैं कितना हूँ विह्वल

कितना दुःख है

पीडा है

निराशा पन है

देखके तेरी ये बिखरी बिखरी सी सूरत


मुझे कुछ नहीं चाहिऐ इस झूठे समाज से

मैं भूखा हूँ-गम नहीं

प्यासा हूँ - गम नहीं

यदि मरता हूँ तब भी मेरी माँ

मुझे गम नहीं


न दे कोई मुझे एक रोटी

थोडी सी दाल

एक दाना चावल का

चर टुकडा जूठा अचार

पर तूं तो दे दे माँ एक बार

फिर वही प्यार

जो बचपन में दिया करती थी

कम से कम ख़ुशी तो रहेगी

मेरी आने वाली अगली सुबह

कुछ समय पहले जैसे थी .........

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