मंगलवार, 29 जून 2010

उजड़े चमन हमारा न ऐसी परंपरा जगाओ

ऐसी भी क्या कमी थी कमजोरिय क्या ज्यादा
मजबूरीयां ही बनती गयी रह गया अधूरा वादा
आता नही समझ कुछ ऐसा भी क्या हो रहा
सब कुछ उजड़ते देखते भी 'सिस्टम' अभी तक सो रहा

है खो रहा वजह बस स्वार्थ सिद्ध ही सही
पर क्या उन्हें पता 'इज्जत' भी मिलती है कहीं
पहले भी इसीलिए नीलाम इज्जत यूं होता रहा
डूबा कोई विलासिता में कोई स्वतंत्र हो सोता रहा

हुए गुलाम तबतो क़ानून दूसरों का था
मारता था मरते थे हम 'जूनून' दूसरों का था
अब तो है सब तुम्हारा फिर भी क्यूं लूटता रहा
तुम्हारे ही देख रेख में जन जन यूं टूटता रहा

सो रहे हो , सो लो,पर थोडा तो सर्माओ
विस्वास ना हिन्दजन की हिन्द-विधि से उठाओ
अच्छा है जन समूह यहाँ का अभी भी सोता रहा
सुप्तावस्था के आवरण से घोटाला घपला यूं होता रहा

फिर भी न समझो पागल ना मूर्ख यूं बनाओ
कायर हो , गर सही , न वीर झुण्ड में तुम आओ
आया यहाँ जो इस कदर फटकार ओ खाता रहा
सत्कार की जगह बस दुत्कार ही पाता रहा

आस्था है गर हमारी तो तुम भी निष्ठां रखो
हमारे कोप स्वाद, न प्रलय के द्रष्टा चखो
अब भी न बिगड़ा है अधिक ,फिर भी सुधर जाओ
उजड़े चमन हमारा न ऐसी परम्परा जगाओ.......... ।

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