सोमवार, 13 दिसंबर 2010

'दस्तूर दुनिया की हम सबको निभाना है .

यही है जीवन . इसमे और उसमे कितना फर्क है . एक तरफ ख़ुशी के फौव्वारे फूट रहे होंगे तो दूसरी तरफ गम के बादल बरस रहे होंगे . " रुंधे गले से सोचते हुए वह बोला था तब जब लडकी की बिदाई हो रही थी . छाती पीट रोई थी उसकी माँ . उसके लिए जो अब तक आँगन की एक चिड़िया थी . हंसती थी, बोलती थी और अपने बालक पण से सबको हर्षित करती थी . उसके लिए जो अब
घर की मालकिन थी . घर का  सारा काम काज , साफ-सफाई ,चौका -बर्तन , खाना-पीना , दिया -सलाई आदि सभी जिम्मेदारियां निभाती आई थी . जिसको वह पाली पोशी थी .आज वह विदा होकर जा रही थी और माँ उसकी रो रही थी छाती पीट पीटकर .
                        'सही है पर उसमे ढोंग है . दिखावापन है . रुढियों के आवरण में पिसता हुआ जीवन है . पर यहाँ वास्तविकता है . सत्य है . और सत्य होता भी वहीँ है जहां दुःख होता है , गम होता है और होती है विपदा . " दूसरा उस बात को स्पष्ट करते हुए बोला था .
                    इसके पहले ही वह एक बारात कर चूका था . दूसरे में सामिल हुआ था .खूब मजा उठाया था पहले बारात में . जम के काफी लिया था . मिठाइयाँ तो खूब खाया था .बफर सिस्टम था . कोई पाबन्दी नहीं थी .ना ही तो किसी से कुछ मांगना था . और न ही तो किसी का इंतजार करना था . सभी कुछ तो सजा कर रखा हुआ था . जो मर्जी सो  खाता . छोला, फुलकी , कुल्फी , चाट, पापड़ क्या नहीं खाया था वह .पर अब इतना ज्यादा खाया था कि और खाया नहीं जाता था .तब देखने लगा था खड़ा होकर अन्यों को .
                 "कैसे कैसे आदमी आये हैं हमारे गाँव के , हमारे सगे सम्बन्धी ,हमारे अतिथि . ........ पर नहीं नहीं वे नहीं हो सकते " असमंजस में पड़ा था वह " अरे!यह रवि पंडित है . ये तो चप्पल पहनकर खाना खाना गलत समझते है .और यह क्या विनय जी तो कभी पन्त में बैठ कर खाते ही नहीं थे . " यह आशचर्य हुआ था उसको . इसलिए नहीं कि वे खाना खा रहे थे . अपितु इसलिए कि ये धर्म के सबसे बड़े ठीकेदार थे . पर आज उनका व्रत , उनका संयम ,धिर्म उनका स्वयं पर रो रहा था और वे खाए जा रहे थे . इनके साथ ही गाँव के अन्य मानिंद व्यक्ति भी थे जो लीनों में खड़े होकर , कतारों में खड़े होकर , कलछुल हाथ में लेकर खाना ले रहे थे . खा रहे थे . हंस रहे थे . चिल्ला रहे थे .मनो उस व्यवस्था पर नहीं , उस सिस्टम पर नहीं. मानवीयता पर मानव द्वारा बनाये गये समाज पर . क्योंकि कुत्ते भी इस तरंह क्या खाना खाना पसंद करते . कवर उठाओ , उठाकर फैंक दो क्या मजाल कि मुंह मार दे . पर यहाँ मुंह ही  नहीं मार रहे हैं . घिस रहे हैं "
                  एक एक करके उसे वह सारा दृश्य याद आ जाता है . पर रात्रि में ही वह चला आया था विदाई  के इस माहौल से साक्षात्कार उस दिन उसका नहीं  हुआ था .पर आज , आज वह दुखी है . आज वह परेशां है और है वह चिंतित लोगों को देखकर , समझकर जानकर .
                 यही है मानव यही है मानव समाज . एक के गम के लिए , एक के दुःख के लिए , एक  के विपदाओं , वेदनाओं में सांत्वना देने के लिए दूसरों के संबंधों का आधारस्तंभ क्या ऐसा ही होना चाहिए . वह अपना सब कुछ दे दिया . रुपये- पैसे , सर-सामान ,जहां तक हो सकता था  दे दिया . . जीवन की आस जीवन की डोर, जो एक मात्र अंधे की लाठी थी सौंप दिया उसको .पर क्या वे जो यहाँ पर आये हैं . खा रहे हैं . खाए हैं . क्या उन्हें रंच मात्र भी अफ़सोस है . दुःख है . उस माँ के लिए , उस भी के लिए . जो रो रहे हैं , विलख रहे हैं , सिसक रहे हैं?   ..............   सोंच रहा है वह उस रोती हुई आवाज को सुनकर ..
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                    लावारिस सा असहाय सा लड़की का भाई , दीन हीन , सामाजिक परम्पराओं के दंश से शोषित और व्यवहार से अफ्सोषित , दुखी चेहरा लेकर रो रहा था . सिसक रहा था . मानो इस बात को भुलाने की कोशिश कर रहा था " उसके भी कोई बहन थी . राखी बंधी थी. एक दूसरे के सुख- दुःख में , विपदा आपदा में , स्थितियों और परिस्थितियों में , एक साथ रहेने की कसमें खाई थी . ली थी . यह कहके " भैया मेरे राखी का लाज निभाना " और आज आज वह जा रही है . किसी दूसरे के घर , किसी दूसरे की दुनिया में . सजाने सवारने . आबाद करने  उसे . बर्बाद करके भाई के घर को , भाई के अरमानों को . इच्छाओं और अभिलाषाओं को "
                  यह भी उसने देखा था . रो रहा था वह सिसक सिसक कर . भोकर छोडकर , गलाफाड़ कर नहीं , हुचक हुचक कर  .क्योंकि चिल्लाने से वेदना दब जाति है . गम का उफान हल्का हो जाता है . और हिचकने से वह अन्दर ही अन्दर उबाल फेंकती है . झंकार करती है . इस सामाजिक व्यवस्था से , इस सामाजिक परम्परा से , लड़ने के लिए , प्रतिवाद करने के लिए , द्रोह और विद्रोह करने के लिए .
                 तभी बारात  मालिक बजा वालो को साथ लेकर पहुंचा था . विदाई नहीं पाए थे वे . सब पा गये थे . और फिर खीझा था इस सामाजिक व्यवस्था से " एक तरफ वह रो रहा  है . उसका सब कुछ चला जा रहा है दुखी है , प्रताड़ित है समय की मार से और दूसरी तरफ इन्हें विदाई की पड़ी है . किसी का घर जले और कोई घूर बताए . भला ये भी को मानवीयता है . कोई इंसानियत है . लोलुप दम्भी , लालची क्या इसके बहन बेटी नहीं हैं . क्या यह समाज से बहार है या वह जिन स्थितियों परिस्थितियों से गुजर रहा रहा है नही बीतेगी इस पर , नहीं गुजरेगी इस पर ."
                 और भूल गया था वह रोना . हिचकियाँ बंद हो गयी थी . आंसू रुक गये थे . क्योंकि सारे दुःख , सारे गम , और विपदा से भी बदा स्तित्वा होता है जिम्मेदारी का . खासकर तब जब पिता न हो और घर का सारा कारोबार उसी को सम्हालना हो . " महसूस किया था वह और उठकर चल दिया था उस मंडप से , उस द्वार से , यह सोचकर " गलती उसकी नहीं है और ना ही तो उसकी  'दस्तूर दुनिया की हम सबको निभाना है ."

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