मंगलवार, 29 जून 2010

परिवर्तन का चक्र

परिवर्तन का चक्र चलता रहता है । जो ऊपर है वो नीचे और जो नीचे है ओ ऊपर होता रहता है ."(जवाहरलाल नेहरु ) । और यही वो परिवर्तन है जो पहले तो अस्थाई रूप से हमें अपनी आहट भर देता है लेकिन बाद में स्थाई रूप धारण करके हमारे ही जीवन का एक अंश हो जाता है और स्वीकार करना पड़ता है हमें उसको और उसके स्तित्वा को । पर क्यों ? क्यों होता है इतना परिवर्तन ?इतने विस्तृत रूप में इतने व्यापक रूप में । वो हमारे सामने आता है और सब कुछ देखते ही देखते रिक्त क्र चला जाता है। और हम ना तो उसका आना समझ पाते है और ना ही तो उसका जाना । आखिर क्या चक्कर है उसको आने का ?
क्या मानव जीवन की अनिश्चितता का बोध कराने आता है यह या फिर अनागत भविष्य के प्रति चिंतित होने का संकेत लाता है । पर यदि चिंतित होने का संकेत ही लाता होता तो जो पूर्ण रूप से नाश के द्वार पर खड़े होते हैं , विलासिता के कगार पर अड़े होते है , और पड़े होते हैं कंगाली के रस्ते पर क्या वे सुधर ना जाते ? स्वयं को फिर उसी मार्ग पर न लाकर खड़ा क्र देते जहां से वे सिक्स को अपने जीवन में न्य आयाम दिए थे ? फिर आखिर वे अपने स्वर्णिम इतिहाश के दिनों को कीचड से दबे हुए वर्तमान की भयावह स्थिति को क्यों सौंपते ? फिर एक राजा राजा ही न रहता । वह सड़कों पर क्यों आता ? भीख मांगनें के लिए पेट भरनें के लिए या सब कुछ गंवाकर मर मिटने के लिए?
नहीं परिवर्तन सचेत करनें के लिए नहीं आता और ना ही तो किसी को अचेत करने के लिए आता है । अगर वह आता है तो सिर्फ और सिर्फ प्रेरणा रूप में । ये बात और है की जो अनुसरनक है वे इससे किस रूप में प्रेरित होते है । नहस रूप में या विकास रूप में ? पाकिस्तान की आतंकवादी गतिविधियाँ , , अफगानिस्तान और तालिबान की मानवीयता के खिलाफ न्रिशंश नीतियाँ , और भारत में नक्सलियों की विद्रोही उक्तियाँ इसी परिवर्तन का ही एक रूप है । एक अंश है । जो एक दूसरे को सचेत क्र रहा है । अब कोई इनसे बचने की तरतीब सोंच रहा है तो कोई इनसे लड़ने की । कोई इन्हें मारने की तरतीब लिए बैठा है तो कोई स्वयं मर मिटने की । जिस प्रकार से विभिन्न देश है उसी प्रकार से विभिन्न विचार । यहाँ कौन किस रूप में प्रेरित होता है वह तो वही ' परिवर्तन का चक्र; ही निर्धारित करता है । जो आता है और देखते ही देखते एक व्यापक परिदृश्य सामने रखकर चला जाता है । परिवर्तन का चक्र ... ।

माँ तू आज मुझे याद आई

माँ तू आज
मुझे याद आई
चारों तरफ की हरियाली
हो गयी ख़ाली खाली
नव पल्लव से सजते
दिखी मुझे सूखी डाली
भर गयी उस्डौरी सारी
डूब लाई हरियाली
तब माँ तेरी वह 'भूमिका'
मेरे मन मष्तिष्क में आई
माँ तू आज मुझे याद आई

खाने को रोटी नहीं
कपडा गन्दा साफ़ नहीं
धूल उड़ जब धरा से
धीरे धीरे तेज वेग से
मेरे मुख मंडल पर आयी
याद उस आँचल के
तनिक छुवन की कर
जब मेरी आखें भर आई
तब माँ !
तू आज मुझे याद आई ...... ।

उदास मेरा मन

न जाने क्यों मन मेरा
रहता है उदास हर तरह
चाहता हूँ वह खुश रहे
समझे न समझे पर
छोड़े न कुछ अनकहे
आता नहीं समझ
आखिर क्या है वजह
रहता है उदास हर तरंह
तोड़ता रहा
नैतिक वर्जनाओं को
बंधता रहा नैतिक बंदिशों में
अनैतिकता के डर से
शंकाओं के भय से
भागता रहा मन
परम्पराओं के कहर से
फिर भी रीतियों से उलझा मन मेरा
रहता है उदास हर तरंह ........... ।

उजड़े चमन हमारा न ऐसी परंपरा जगाओ

ऐसी भी क्या कमी थी कमजोरिय क्या ज्यादा
मजबूरीयां ही बनती गयी रह गया अधूरा वादा
आता नही समझ कुछ ऐसा भी क्या हो रहा
सब कुछ उजड़ते देखते भी 'सिस्टम' अभी तक सो रहा

है खो रहा वजह बस स्वार्थ सिद्ध ही सही
पर क्या उन्हें पता 'इज्जत' भी मिलती है कहीं
पहले भी इसीलिए नीलाम इज्जत यूं होता रहा
डूबा कोई विलासिता में कोई स्वतंत्र हो सोता रहा

हुए गुलाम तबतो क़ानून दूसरों का था
मारता था मरते थे हम 'जूनून' दूसरों का था
अब तो है सब तुम्हारा फिर भी क्यूं लूटता रहा
तुम्हारे ही देख रेख में जन जन यूं टूटता रहा

सो रहे हो , सो लो,पर थोडा तो सर्माओ
विस्वास ना हिन्दजन की हिन्द-विधि से उठाओ
अच्छा है जन समूह यहाँ का अभी भी सोता रहा
सुप्तावस्था के आवरण से घोटाला घपला यूं होता रहा

फिर भी न समझो पागल ना मूर्ख यूं बनाओ
कायर हो , गर सही , न वीर झुण्ड में तुम आओ
आया यहाँ जो इस कदर फटकार ओ खाता रहा
सत्कार की जगह बस दुत्कार ही पाता रहा

आस्था है गर हमारी तो तुम भी निष्ठां रखो
हमारे कोप स्वाद, न प्रलय के द्रष्टा चखो
अब भी न बिगड़ा है अधिक ,फिर भी सुधर जाओ
उजड़े चमन हमारा न ऐसी परम्परा जगाओ.......... ।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

कितने जगह मनाओगे शहीदी दिवस को ?

चौको न बस सोचो ज़रा ये क्या हो गया

संचित सदा की एकता का साख खो गया

कैसी घड़ी , समय दुखद , मानव संघार का

थी स्वागताकांक्षी धरा दानव चिग्घाड़ का ॥ १॥

घटना न कभी ऐसी स्वतंत्र हिंद में हुई

रो पड़े जिसने भी उस हालत को सुनी

आँखे खुली थी जिनकी वो भी सूर हो गए

कितने लड़े, शहीद, हिंद-ऐ-नूर हो गए ॥ २॥

पर वो रहे डकारते खा खा के पूरियां

पहुंचे न क्षति , बनाए रखे ऐसी दूरियां

जब तक कि बात उठती गोलियां बरस गयी

अपने बिरन को लखने को अखियाँ तरस गयी ॥ ३

फ़िर वो लगे फुदकने कायरों ही की तरंह

अवशेष ढूँढने लगे , आतंक की वजह

कुछ हो तो मिले खैर राजनीती ही सही

कम्युनिस्टों ने कह ही दिया जो कोई ना कही ॥ ४॥

अब तक तो लड़े जान हथेली पे रखके यूँ

मानो न उनका कोई , देश ही है सब कछू

पर देश के गद्दारों नें ये क्या कर दिया

उनके शहीद होने पर , सवाल जड़ दिया ॥ ५॥

ऐसी बनाओ नीति ना कुनीति पर चलो

जिस देश में हो रहते उस देश की कहो

कितने जगंह मनाओगे शहीदी दिवस को

हरेक जगंह रही गर जिंदगी सिसक तो ॥ ६॥

चलेगा न काम धुप , अगर, माल से

आतंक का जवाब दो आतंकी ताल से

हम हैं भला कमजोर वो सहजोर ही कहाँ

भाग जाय सब छोड़ , एक हिलोर हो जहा ॥ ७॥

तबतो मजा है , आनंद इस जलसे जुलूस का

हम स्वाद भी चखा दे दर्दे जूनून का

इक बार गर "सरकार " तूं तैयार हो गया

समझो वतन स्वर्ग का 'घर द्वार ' हो गया

बुधवार, 25 नवंबर 2009

पर आंसू किसका गिरा, आह किसने की , आत्मा ने ही तो की?

आज मन अधीर है । चिंतित है । वह मन जो आज कई दिनों से स्वयं में उल्लासित था आज उसकी ये दशा है मैं स्वयं नहीं कह सकता की आख़िर ऐसा क्यों है । क्यों आज यह स्थिर है , जडवत है , वेग नहीं है , गति नहीं है , थका हारा दंडवत है ? क्या इसे किसी ने कुछ कहा या फ़िर अपमानित हुआ यह किसी ऐसे जगंह जहाँ मैं ले गया अथवा यह स्वयं गया ऐसा भी समझ नही आता कुछ। फ़िर क्या वजह है ? क्या यह कही चला जाना चाहता है किसी ऐसे जगह जहाँ न तो कही कोई देख सके और ना ही तो समझ सके । सके अगर कोई कुछ कर तो सिर्फ़ महसूस उसके अन्तर्दशा को , दुर्दशा और विवशता को । कुछ कहा नहीं जा सकता ।

फ़िर आत्मा तो एक सर्वसत्ता है । मन उसका एक अंश मात्र । तो क्या अंश की विकलता सम्पूर्णता से छिपी रह सकती है । शरीर का कोई एक अंग ही तो टूटता है पर दर्द का आभाष तो मानसिक प्रक्रियाओ से ही होता है न ? तो क्या हम ये नही कह सकते की आज हमारी आत्मा ही दुखी है ? मन में तो एक ठोकर ही लगा , सम्हला वह कुछ भले ही गिरते गिरते सम्हला । पर आंसू किसका गिरा ? आह किसने की ?आत्मा ही ने तो की । चोट खाने वाला तो बेहोश हो जाता है दर्द की कडवाहट झेलता तो वही है जो निगरानी करता है रखवाली करता है ।

मन भी दुखी है । आत्मा भी दुखी है । तो क्या यह भी कहना आवश्यक है कि हमारे शरीर के सरे अवयव ही दुखी हो गए है ? शिथिल हो गए हैं ? ना तो ये पहले की भाँती फुदुक सकते हैं और ना ही तो रह सकते हैं स्थिर । फ़िर ,जब इन्हे सर्दी , खांसी , ना मलेरिया हुआ ' तो ये नया रोग नई बीमारी कहाँ से आ टपकी । जिसके प्रस्तुत ध्वनि मात्र से हमारे शरीर के सरे अवयव पंगु हो गए ।

ऐसी दशा इस समय सिर्फ़ हमारी ही है या सम्पूर्ण मानव जाती की । एक सुंदर पथ पर गमन करते करते असुन्दरता का ये कड़वा मिश्रण बिना किसी निमंत्रण के बिना किसी प्रयोजन के आख़िर मेरे बीच कहाँ से उपस्थित हो गयी ? जो मुझे कीचड मन धकेले जा रही है , घसीटे जा रही है । लिए जा रही है । मैं नहीं जाना चाहता । वह कीचड , वह मैल , वह दलदल मुझे नहीं पसंद है । मै नही जाना चाहता । रोको , कोई रोको , पूछो , कि मैं जब नहीं जाना चाहता तो मुझे यह क्यों लिए जा रही है ? क्यों नहीं छोड़ देती मुझे उसी जगंह जहाँ पर मैं पहले था ? पर पूछे कौन ...................?

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

जब हिन्दी में सपथ लेने से अबू आजमी (सपा विधायक ) को भरी सदन में थप्पड़ मारा जा सकता है ....... तो हमारी क्या औकात?

क्या लिखूं क्या सोचू और विचारू क्या समझ में तो यही नहीं आता । कमजोरी योग्यता का नहीं है , भाव का नहीं है , विचार का नहीं है , है तो बस उस बात का की माध्यम तो हिन्दी ही है । वही हिन्दी जो कभी फारसी, उर्दू आदि से लड़ती हुई दिखाई दी । लुटी पिटी पर सम्हली किसी तरंह से । अंग्रेजी की रखैल बन गयी । सौतन का-सा सम्बन्ध रहा । यह (हिन्दी) पुरानी और वह (अंग्रेजी) नई फ़िर तो सम्मान नई को ही मिला । दे दिया गया एक कोना संविधान का । अदालती कार्यवाही का । यह ना सोचे लोग की निकल दिया है भारत ने इसे (हिन्दी को)अपने घर से ,राष्ट्रभाषा का कुनबा भी पहना दिया गया । पर हाय रे किस्मत! अनाथ तो अनाथ ही होता है । नीच कुत्सित, बेहया भी समझा जाता है। भले ही कितनों शालीन क्यों ना हो । भले ही कितनों सभ्य क्यों न हो । दरिद्र और निघर्घट ही कहा जाता है । दुरदुराया जाता है । फटकारा जाता है । भगाया और दुत्कारा जाता है क्योंकि जो सौंदर्य , जो रस , जो श्रृंगार नये में झलकता है पुराने में वह होता ही कहाँ है । भले ही उसका आधार पुराना ही हो जीवन पुराना ही हो , उसके बिना ना तो उसका स्थायित्व है और ना ही तो उसका स्तित्व । पर द्वार की शोभा, सेज की शोभा, हृदय और अंतरात्मा की शोभा बढाती तो नई ही है ,पुतानी तो नाली की गली की , मैल और गन्दगी की संवाहिका होती है , संरक्षिका होती है ।

फ़िर मैं कैसे लिखूं इस हिन्दी में अपने विचार को ? क्या वजूद है हमारा , हैशियत क्या है ? जब हिन्दी में शपथ लेने से अबू आजमी (सपा -विधायक)को भरी सदन में थप्पड़ मारा जा सकता है एक महिला विधायक के साथ दुराचार किया जा सकता है , जबकि वहां कानून है ,सुरक्षा है , स्थिति है किसी भी परिस्थिति से निपटने की फ़िर भी उनको मारा गया तो हम आम आदमीं की क्या औकात ? जबकि वो "गोधन, गजधन बाजधन और रतन धन खान " से परिपूर्ण हैं फ़िर भी पिटे हिन्दी बोलने मात्र से , तो क्या हम बचे रह सकते हैं ? हम तो उड़ाए जा सकते है दिन दहाड़े , भरी सभा में , अकारण ही बिना किसी कारण के , बिना किसी प्रयोजन के । कहीं भी किसी भी स्थिति में । हमें न तो इस देश का कानून तंत्र ही बचा सकता है और ना ही तो सुरक्षा तंत्र । फ़िर उस कानून से उस सुरक्षा तंत्र से आशा ही क्या किया जाय जिसकी भरी संसद में धज्जियाँ आए दिन उडाई जाती रही हैं । आतंकवादियों द्वारा अतिक्रमण दिन-प्रतिदिन ही किया जाता रहा है । यहाँ तक की धमकाया जाता रहा है जो किसी पड़ोसी देश के द्वारा प्रतिपल प्रतिक्षण , और यह कायरों की भांति , कोढियों की भांति , नापुन्षकों की भांति सुनता रहा है । न तो लज्जा आती है और ना ही तो शर्म । चारो तरफ़ से फटकार खाने के बाद डांट खाने के बाद जगा भी , उठा भी तो हिला दिया अपनी दुम कुत्तों की तरंह । साफ हो गयी आरी बगल की जगंह सिर्फ़ उसके बैठने भर की । आशाएं ही क्या रखे ऐसे अपंग , लाचार कानून और शाशन प्रणाली से ?