शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2007

बाज़ार

आचार, शिष्टाचार, व्यवहार, परिवार

कितनी तीव्र हो रहा परिवर्तित संसार

घट रहा, बढ़ रहा, स्थाई नहीं, चल रहा

फिर भी सूना पड़ा मानवता का बाज़ार


है नहीं आता समझ क्या विस्तृत होगा

पैरा-पुतही, घांस-फूंस से

नव निर्मित मानव घर-बार

होगा यह चिरस्थाई क्या पुराने ईंटों से गर्भित दीवार

या यूँ ही रह जाएगा संकुचित कुजडे, बनिये का बाज़ार


नहीं सुरक्षित, वैचारिक स्थिति,

व्यावहारिक परिस्थिति से खंडित आचार

छोटे छोटे खंडों में, टुकड़ों में हो रहा विभाजित बाज़ार

गया परिवार, लोपित शिष्टाचार, नश्वरता ही रह गया आधार

बनते बिगड़ते शेअरों में विनष्ट हो रहा एक विस्तृत बाज़ार ॥

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