रविवार, 14 अक्तूबर 2007

वह मजदूर

जिसमें उत्साह था अदम
सह चूका था जो हर सितम
रक्त नलिकाएं भी
दौड़ लगा रही थी
चुस्ती जुर्ती के साथ
जो था समाज की
राजनीति से बहुत दूर
वह मजदूर

फावड़ा लिए अपने कन्धों पर
चला जा रह था
वह निश्चिंत हो बेपनाह
बेहिच्किचाहट
समाज समुदाय की
गन्दी कूटनीति से
बहुत दूर
वह मजदूर

राजनीति, कूटनीति
थी सीमित उसके लिए
यहीं पर
हो नसीब मात्र
दो वक्त की रोटी
सुख सुकून से
किसी तरहं चलाता जाए
परिवार का गुजर बसर
चलाता फावड़ा वह इसीलिये
रात को दिन में बदल देते हैं वे
अपने लिए
हो वास्तविकता के निकट
ख्वाबों से बहुत दूर
वह मजदूर
वह मजदूर। ॥

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