शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2007

स्वार्थी सूरज

गोधूलि बेला हो गयी है। सूर्य धीरे धीरे अपने निवास स्थल को जा रहा है । एक अजीब की लालिमा है। जो एक समय पर देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि उसमे वही तेज विद्यमान है जो तेज तब था जब वह उदित हो रहा था। छोटी छोटी तेज्युक्त लालिमा किस तरह मोतियों-सा प्रतीत हो रही थी। जब वह उदित हो रहा था। पर, अगर यदि सच कहा जाय तो इस समय जब वह जा रहा है अपने पुराने स्थल को, जहां से वह आया था। एक अजीब सी मायूसी उसमे देखने को मिल रही है। ऐसा लग रहा है जैसे इसके आँखों में आंसू भरे हों। वह चाह रहा हो रोने के लिए पर रो ना प रहा हो। शायद इसलिये कि कहीं उसको रोते देख वो भी ना रोने लगे, जो शायद उसके प्रकाश के तले अपना जीवन यापन कर रहे हैं। या फिर इसलिये कि कहीं वह निस्तेज ना हो जाये क्योंकि उसे तो कल फिर वहीं आना है। पर यही तो चिन्ता का विषय है कि कल जब वह फिर आएगा तो क्या यहाँ के वासियों को वैसा पायेगा जैसा कि छोड़ गया था? नहीं ना। शायद नहीं। क्योंकि तब तक तो पता नहीं कितने वहां से जा चुके होंगे और कितने वापस आ चुके होंगे। एक दुनिया को छोड़कर एक नयी दुनिया में। एक नयी सवेरा और एक नयी आशाओं के साथ। एक नवे सभ्यता में। एक नवे परिवेश में। एक नवे समाज तथा एक संगत में।
फिर उनके लिए उस सूर्य का क्या महत्व?वी तो यही सोंचेंगे ना कि यह कोई रही है। भूखा है। प्यासा है। किसी से मिलाने जा रहा है। रास्ता भूल गया है। लाओ लाकरके एक लोटा पानी दे दो । बिछा दो खात सोहता ले । आराम करले। उनको क्या पता होगा कि यह वही सूर्य है जो इसके पहले सबदो एक प्रकाश देकर गया था। एक आशा देकर गया था। जीवन में कुछ पाने की।

पर दूसरे पल यह महाशूश होता है कि कहीँ वह इनको पहचान रहे हो कि ये उनका पूर्वज है। और पर इसलिये नकार दे रहे हो कि यह स्वार्थी हो जो हम सबों को दुखों में छोड़ गया था और जब ख़ुशी देखा तो वापस आ गया। हाँ, एक पल के लिए सही हो सकता है। जब सूर्य सबको समान समझ रहा था। अपना समझ रहा था तो आख़िर छोड़कर क्यों चला गया वह? क्या उसे यहाँ कोई बहोत अधिक परेशानी थे। जैसे सब जीं रहे थे वैसे वह भी जीता. क्यों नहीं सम्मिलित हुआ वह लोगों की खुशियों में ?दुखों में? लोग तो निराश थे जब वह जा रहा था, क्यों वह ख़ुशी की लालिमा लिए चला गया मुस्कुराते हुये?
पर क्या सूर्य को स्वर्थाता का अपराधी बताना ठीक होगा? ये माना जा सकता है की वह स्वार्थी है। सबों को जिस हालत और जिन हालातों में छोड़ गया उसे नहीं जाना था। रहना था सबों के दुखों में, सुखों में। पर क्या वह अपने लिए ही गया?नहीं वह अपने लिए ही नहीं गया। ये तो सोंचने वालों की गलत फहमीं ही हो सकती है। यदि उसे अपने तक की ही चिन्ता होती तो वह भी अन्यों की तरह दो रोटी खाकर पड़ा रहता गरजते हुए। क्या जरूरत थी उसको एक जगहं की ठण्डी और दूसरे जगाहन की गर्मी सहते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जानें की। सबकी चिन्ता थी सबकी परवा थी तब वह छोड़कर गया सबों को। उसका प्रकाश ग़ायब हो गया था । वह क्षीण होता जा रहा था अपने आप में। जिससे लोग प्रकाश हीन होकर विलाख रहे थे इधर उधर। सड़कों पर आए. भीख मँगाने की नौबत आयी। तब मजबूरन उसे जान पड़ा। आकिर कौन है ऐसैस संसार में जो अपने को दुःखी देख सके। पर फिर भी ऐसे सूर्य भुला ही दिए जाते हैं। नहीं रहता किसीको उसके प्रकाश का ख्याल। उसके तेज का ख्याल।तथा उसके सतीत्व का ख्याल इसीलिये शायद सूर्य भी बांवला हो गया है। आता है, खोजता है अपने पुराने इज्जत को, सतीत्व को, साथी और संगाती को। पर जब नहीं पाता तो एक अजीब सी वेदना लिए हुए चला जता है रुंवासा होकर। लेकिन उसे जब फिर भी संतोष नहीं होता तो चला आता है दौड़ा दौड़ा। पर इस स्वार्थी संसार में कोई नहीं खाता तरस उस पर। उसके कार्य पर। उसके प्रयास पर॥

1 टिप्पणी:

The Campus News ने कहा…

यह एक बहुत ही अच्छा प्रयोग है।