शुक्रवार, 23 मई 2008

रोजी रोटी और नैतिकता के आगे भी एक समस्या होती है .......

आज कई दिनों से मैं परेशान हूँ । घर की आतंरिक माहौल या पढ़ाई की समस्या अथवा दो रोटी मिलनें की चिंता या फ़िर ये कहें कि आर्थिक तंगी , सामान्यतः लोग इन्हीं को समस्या का प्रथम कारक सिद्ध करते हैं पर इसके आगे भी एक समस्या होती है जो कहनें को तो तब मानव-मष्तिष्क में प्रवेश करती है जब व्यक्ति अपनें युवावस्था में प्रवेश करता है , लेकिन यदि वाश्तविकता समझनें की कोशिश की जाय तो यह बालकपनसे ही जब हम ४-५वीं में पढ़ रहे होते हैं , हमारे अंदर प्रवेश करनें लगती है । और वह है सेक्स, काम-वासना । आज तो इसने मुझे दुखित ही कर दिया । दिक्कत की बात तो ये है कि मैं जहाँ भी गया संभवतः इस काम-वासना से बचने की कोशिश करता रहा पर वासना है कि माना ही नहीं । अख़बार उठाया , मल्लिका शेरावत और बिपासा बसु नें रिझाया। पत्रिका उठाया एक बेहूदा किस्म का पोस्टर ना सिर्फ़ कल्पना करनें के लिए मजबूर कर दिया अपितु रस्ते में जाते हुए " परदे में रहनें दो " फ़िल्म के साथ ख़ुद को अनावरण होनें के लिए बेबस कर दिया । घर में टीबी चनल खोला , एक साधारण सा धारावाहिक आ रहा था , मन उस समय तक शांत हो गया था पर अचानक ही एक २२ वर्षीय किशोर का २० वर्षीय नवयुवती को उठाकर चुम्बन लेना और उसका उसके बाँहों में कसमसाना फ़िर से मुझे उसी वातावरण में ला धकेला । अब तक मैं अपनें आप को असंतुलित पा रहा था , परीक्षा का समय कोई इधर उधर की हरकत भी नहीं कर सकता था क्योंकि सबसे बड़ी दिक्कत तो स्मृति-दशा को एक संतुलित अवस्था प्रदान करना था ।



ऐसे में अगर मेरे पास कोई चारा बचा था ख़ुद को वासना से बचानें के लिए तो एक मात्र , साहित्य-संसार। वस्तुतः यह एक ऐसी दुनिया है जिसमें वासना नहीं है , कुंठा नहीं है , शारीरिक प्यास नहीं है और नहीं है दो जोशीले जिस्म के टकरानें की चाह ,ऐसी धारणा प्रायः हमारी थी क्योंकि ये भ्रम कई दिनों पहिले ही हमारे मष्तिष्क में विद्यमान थी कि , साहित्य में तो हमारे उन कर्मठ पुरुषों की वाणी रहती होगी जो भारतीय संस्कृति के संवाहक हैं , पर जैसे ही हमनें एक पुस्तक उठाई , मुंह खुला का खुला रह गया , हाँथ थर्थरानें लगा , शरीर तो ऐसा बेकाबू हो गया जैसे मानों कोई अंदर प्रवेश करनें लगा हो और क्यों कि समाहित ना हो पा रहा हो तड़प उठा और बौखला उठा । मैं " सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक "(सुरेन्द्र वर्मा का नाटक ), डॉ मिथिलेश गुप्ता की समीक्षा "विवाह के पाँच वर्ष तक कुंवारी रहनें के बाद संतान प्राप्ति के लिए जिस पर -पुरूष के पास भेजा जाता है तो सारे शील छोड़कर उसके भीतर की नारी भड़क उठती है और पति है नारीत्व की सार्थकता मातृत्व में नहीं, महामात्म्य है केवल पुरूष के सम्भोग के सुख में । " पढ़कर उठनें लगा मन में तरह तरह के सवाल । स्त्री का विवाह के बाद कुंवारी रहना , दूसरे पुरूष के पास भेजा जाना और उसके पास पहुंचकर , उसके नारीत्व का जागना आख़िर ये सब क्या है ? क्यों वह पुरूष के सम्भोग सुख से ही नारीत्व को प्राप्त हुई ? यह सम्भोग क्या होता है ?कैसे होता है , क्या जब स्त्री - पुरूष अकेले में मिलते है , एक दूसरे के बाँहों में झूमते हुए कसमसाते है या कल जो मैं दैनिक भास्कर पढा था , जिसमें एक व्यक्ति ६ वर्ष की लड़की का बलात्कार करता है अथवा परसों की " कृष्णा " फ़िल्म सनी दयोल की प्रेमिका को निर्वश्त्र करके खलनायक उसके जिस्म के साथ खेलता है , कि आजकल हर उस जगंह जहाँ व्यक्ति पहुँच रहे होते है , कंडोम को प्रयोग कर , निरोध को प्रयोग कर सहवास करनें की प्रेरणा दी जाती है ,क्या यही है सम्भोग क्या इन्हीं सब तत्वों के माध्यम से होता है सम्भोग सुख की प्राप्ति आज यह सवाल सिर्फ़ हमारा नहीं है जो १८-२० साल के उम्र को क्रास कर रहे हैं अपितु उन सभी बच्चों और किशोरों का है जो प्रायः अख़बार पढ़ रहे हैं , फ़िल्म देख रहे हैं , गानें सुन रहे हैं और कर रहे हैं अपनें आरी पडोस के लड़कियों या लड़कों से बातचीत । जब समाज के हर घर पर , हर गली , घर रस्ते , दरवाजे चाहे वह फ़िल्म हो या साहित्य , विज्ञान हो या कला , अख़बार हो या रेडियो , हर एक जगंह और प्रत्येक क्षेत्र में सेक्स एक प्रमुख आईना बनकर खड़ा है , एक मुख्य जरूरत के रूप में मुखरित हो रहा है , आख़िर ऐसी अवस्था में भी सेक्स एडुकेशन को क्यों नहीं स्कूलों में अनिवार्यता दी जा रही है ? समाज का एक बडा वर्ग इसके विरोध में तो अपनीं प्रतिक्रिया देता है पर अगर किसी भी दरवाजे पर जाकर किसी भी एक लडके या लड़की से सेक्स के विषय में अगर कुछपूंछा जाय तो शायद ही , वही जो पागल होगा , कोई न बता पाए बाकि तो ऐसा सब कुछ बता सकते हैं जिसको सुननें के बाद ना सिर्फ़ हम सोंचनें के लिए मजबूर हो जायेंगे अपितु हो उठेंगे संकित कि जरूर इन्हें कोई बिगड़ रहा है । जबकि उनको कोई बिगड़ता नहीं है । कम्पूटर , साहित्य , फ़िल्म , अख़बार तो इस प्रकार के मनोवृत्तियों को उभार ही रहे हैं ऐसे में कभी कभी हमारे घर का परिवेश ही उन्हें ऐसा कुछ सोंचनें और करनें के लिए मजबूर कर देता है ।

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