रविवार, 1 जून 2008

यादें

यादें! तेरे कितने रूप , कितने लक्षण, रे तूं है कितनी अनूप । कभी कभी ज्येष्ठ की दुपहरिया लगती और कभी कभी हो जाती है पूस की धूप। सच में बोल तूं कितनी सुंदर है और हैं तेरे कितने प्रतिरूप ? हर जगंह तू मिलती है। दुःख हो कि गम , चिंता हो या प्रसन्नता , दुर्लभता हो या सहजता , हर जगह हर वातावरण में , समूहों में एकान्तिकता में कोलाहल हो या नीरवता में प्रतिपल प्रतिक्षण रहती है तूं मौजूद । बता ना तेरे कितने प्रतिरूप ?
कभी कभी बीते हुए पलों में जाकर , वो तू ही है न जो कर देती है रोने को मजबूर ना चाहते हुए भी तूं ला देती है दूसरों के साथ विताये गए पलों को , गुजारे गए लम्हों को , किए गए वादों को । क्या इसलिए कि हमारा समय पास हो या फ़िर इसलिए कि हों टूटे हुए रिश्ते प्रगाढ़ ? प्रगाढ़ता आयेगी कैसे बोल ? क्या टूटे हुए दिल के तार कभी सांत्वनापूर्ण जुडते हैं , यदि ऐसा होता तो क्यों कहलवाती तूं रहीम से "रहिमन धागा प्रेम का तोड़ो न चटकाय" पगली तूं क्या है रे , क्या अब तेरा मिलन आत्मा से नहीं होता ? तभी तो हो जाती है बैठे बैठे बोर और आ जाती है समय बिताने के लिए हमारे स्मृति पटल में । पर तब , जब तूं समय बिताने आती है , क्यों नहीं लगती मेरे अनुरूप ? तूं है क्या यादें ही या कोई और , पहले स्पष्ट कर तेरे कितने प्रतिरूप ?

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