शनिवार, 25 सितंबर 2010

शायद मैं , आंसुओं का समुन्दर हूँ एक

शायद मैं
आंसुओं का समुन्दर हूँ एक
छाती है घटा जिधर से भी
देता हूँ दो बूँद फेंक

हर मौके की अपनी
सिनाखत होती है एक
वहीँ छोटी सी इस जिंदगी में
आफत होती है अनेक
कोई समझे न मुझे
रहता हूँ बेखबर इस दुनिया से
पल दो पल बाद
देता हूँ दो बूँद फेंक

फिर भी कुछ लोग समझे
धुंए के तेज से निकली
आँखों का पानी है ये
समय बेसमय इसीलिए
देता हूँ दो बूँद फेंक

न हंसी हो हमारी
न बदनामी उन आसुओं का
कि समझे लोग
खेल है ये किन्हीं मासूमों का
खाकर गम ही सही 
देता हूँ दो बूँद फेंक
शायद , शायद मैं
आंसुओं का समुन्दर हूँ एक .............. .

कोई टिप्पणी नहीं: