शनिवार, 24 मई 2008

न देंगे अपना आदर्श किसी को

नवदीप खिले थे
मन में
अंतर्मन में
अंतरतम ह्रदय में
मेरे अपनें सुन्दरतम तन में
फ़िर क्यों वो बुझ गए ?

क्या बोलने से
डोलने से , या फ़िर
कुछ अच्छा सोंचनें से
बतानें से
या फ़िर
कुछ आदर्श सिखानें से

मैं इतना निरादर्ष भी तो नहीं हूँ कि
कुल गलत बोल जाऊं
या बोलने से पहले
किसी के बातों को तोड़ जाऊं
किसी के भावनाओं को
कुभावनाएं बनाकर ठेस पहुँचाऊँ

मन है
स्थाई अस्थाई
बोल ही दिया करता है
कुछ गलत
कभी कभी कभी
फ़िर उस पर गुस्सा क्यूं
आख़िर छोटा ही तो हूँ

चलो अब नहीं भी
सिखाऊँगा आदर्श
किसी को कहीं भी
कभी भी
ऐसा भी हो सकता है कि
कुछ बोलने से पहले
तौल लिया करूंगा उसको
कहावतों को सिद्धस्त करते
अपना स्वयम का पहचान समझ के
अभिशाप समझ के
या किसी की आशीर्वाद
अथवा दुवायें समझ के ............. ।

1 टिप्पणी:

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

कविता में अच्‍छे भाव दिये है बधाई