शनिवार, 30 अगस्त 2008

यदि आदि तुझसे है तो अंत भी तुझी से है .......


इस समय मुझे ये नहीं पता की तूं खाना खा रही है या सोनें की तयारी कर रही है अथवा गाय के साथ लुका छिपी खेल रही है क्योंकि रात्रि के ९ बज गए है और रेडियो के "माइ ऍफ़ एम् " पर चांदनी रातें" कार्यक्रम सुरु हो गया है। इस चैनल पर प्रायः पुरानें गीत ही अधिक आया करते है इसलिए पुरानी बातों का स्मरण होना आवश्यक हो जाता है ,और पता है यही बस कि अब मैं खाना खा चुका हूँ , समय पढनें का पर अतीत के सुंदर वातावरण में पहुँच कर , पुरानीं यातनाओं की बेसुरी श्रृंखलाओं को जोडनें मे लग गया हूँ । इस समय एक एक बातें अकारण ही चेतन स्मृति में आकर परेशान सी कर दे रही हैं । जिसमें तेरे साथ बिताये गए कुछ समय तो याद आ ही रहे हैं तुझसे दूर होनें के कुछ असार्थक पहलू भी सामनें आकर खड़े हो गए हैं । कहना न होगा माते कि ऐसी स्थिति में मैं आज क्या हूँ , कैसे हूँ पर जैसे भी हूँ एक असहाय , मजबूर और अपाहिज उस रोगी की तरंह जिसके पास हर वो सुविधाएं हों जो प्रायः एक व्यक्ति के पास होनी चाहिए पर क्योंकि वह रोगी है और चिंता उसे बस रोगी होनें की ही सता रही हो , जिसे ना तो वो किसी को बता सकता हो ना दिखा सकता हो और ना कर सकता हो व्यक्त अपनीं व्यथाओं को, उनके पास भी जो प्रायः उसके उस दुःख को समझ सकते हों । क्योंकि उस रोगी को शायद यह बात बहोत गहरे में साल रही हो कि अगर वह कहेगा किसी से तो अगला यही समझेगा कि कहीं यह मुझसे कोई सहायता ना मांग ले । और क्योंकि वे समझते भी यही हैं कि वह तो रोगी ही है वर्तमान तो उसका ठीक है ही नहीं , भविष्य भी कैसा होगा और ऐसी स्थिति में व्यथा और वेदना को छोड़कर वह दे ही क्या सकता है । जबकि बात यह भी बहोत हद तक सहीं हो सकती है कि वह रोगी न तो उन्हीं मानसिक रूप से परेशान करनें की सोंचा हो और ना ही तो शारीरिक और आर्थिक सहायता की कोई आशा लिए हो, पर की हों अपेक्षाएं इस बात की कि भले हैं लोग , अच्छे हैं लोग , और हैं मिलनसार अगर इनसे प्रेम की दो बातें की जायें , इनके दुःख को सुना और अपनी खुशियों को इनसे बताया जाय तो एकांतिक नीरवता सामूहिक प्रेम के वातावरण में परिवर्तित हो सकती है । पर उसकी इन अपेक्षाओं को होना पड़ता है दमित वैसे लोगों की उपेक्षाओं से , जो प्रायः स्वस्थ हैं । पर बहरहाल , ये हमारी स्थिति है और क्योंकि परिस्थितियाँ हैं मेहरबान तो हो क्या सकता है इसका अंदाजा तो सहज ही सहजता के साथ लाया जा सकता है । पर मुझे पता है कि अब तेरी ये स्थिति नहीं होगी । तूं सो रही होगी तो लोग आते होंगे बुलानें के लिए कि चलो अम्मा खाना खा लो तैयार हो गया है ! तूं सोनें के लिए जाती होगी तो पीछे पीछे "महासुगंधित" का तेल लिए भाभी जी पहुंचती होंगी और जमके घंटों तक सेवा करती होंगी । रोज ही तुझे अब आधा एक किलो दूध मिलता होगा और 'दावा के लिए कोई परेसनिं प्रायः नहीं होती होगी । इतना ही नहीं माते , तूं तो अब कपडे भी नहीं धोती होगी ? कौन कहे बर्तन माजनें और धोनें की तू तो चूल्हे के सामनें भी जाती नहीं होगी अच्छा है माते तूं सुखी है । कुशी हूँ मैं कि तुझे सुख देनें वालों की संख्या दुःख देनें वालों से ज्यादा है । पर माते दुःख तो यही है रे!कि कहीं तूं - कहीं तूं उस सुख के वातावरण में रहकर इस दुखिया के कुतिया का परित्याग ना कर दे । क्योंकि जितना दुःख तुझको मेरी दुनिया में मिला उतना तो शायद तूं कभी पाई होगी । दुःख इस बात का भी होता है कि यहाँ मैं तुझे दुःख और आंसू के सिवा कुछ भी दे नहीं सका जबकि लायक था मैं सब कुछ करनें के । सुबह-सुबह ४-५ बजे उठकर ठंडी में बर्तन माजना और आठ बजे तक खाना तैयार कर देना जहाँ मुझे गुस्सा दिलाता था वहीं तेरे न्हानें के समय एक बाल्टी पानी ना भर पाना और तेरे कपडों को साफ करनें बजाय अपनें कपडे तुझसे साफ करवाना अथवा खानें के लिए ठीक तरंह से भोजन , चाय के लिए दूध, दवा के लिए दूध ,और सोनें के लिए एक तक्थे और खात की व्यवस्था ना कर पाना मुझे रोने के लिए मजबूर कर देता था । फ़िर भी खुशी होता था टैब जब तुझे और तेरे हंसते हुए चहरे को थोड़े समय तक देखता था । मेरे लिए भले ही कुछ न हो पर तेरे लिए जब कुछ लाता था तो खुशियों का ठिकाना नहीं रहता था और गर्व होता था मुझे कि जो काम पैसा कमाते हुए हमसे बडे भी न कर पाए ,उसे मैं कर रहा हूँ । पर मन यहीं शंकित हो जाता है , हल्का हो जाता है ,कमजोर हो जाता है, और हो जाता है विवास कि क्या तूं फ़िर कभी अब ऐसा दुःख सहनें के लिए मेरे पास आएगी । नहीं आएगी ना ?सही है नहीं आएगी । क्योंकि मुझ रोगी के पास , मुझ कमबख्त के पास है ही आख़िर क्या ? वही गम,दुःख,वेदना जो दो आंसू के सिवा अगर कुछ दे भी सकता है तो सांत्वना बस इस बात की कि "माता जी तुम मेरे पास ही रहना । कमाऊँगा , खिलाऊंगा । पर बहोत हद तक दुःख के पलों को गुजारकर तूं फ़िर चली जायेगी । अभी तो भला फोन पर बातें करना ही कम की है । हल चल पूंछना ही कम की है पर शायद इस बार जायेगी तो एकदम से भूल ही जायेगी । पर नहीं करना माते तूं ऐसा मत करना तूं वहीं उसी सुख के सागर में रह , मुझे कोई परेशानी नहीं है । तेरे हंसते हुए दो बोल या हमारे दसा के सम्बंध में बहाए गए तेरे दो आंसू , मुस्कुराते हुए चहरे पर हंसते हुए सफ़ेद बल के समूह की कल्पनात्मक सुख से ही हम जी लिया करेंगे । पर यह जानकर कि तूं यद् करना छोड़ चुकी है , भूल चुकी है मुझे , निकाल चुकी है अपनी ममता से , वास्तव में माता जी सबसे दुखद दिन होगा मेरे लिए । लोगों के पास अपनें सुख दुःख सुनानें के पर्याप्त पर्याय है पर मेरे लिए तो उन पर्याय के प्रस्तुति में भी तेरी उपस्थिति आवश्यक है क्योंकि तूं तो ऐसी निधि है जिसका पर्याय तो अभी तक जन्म ही नहीं । और विश्वास है मुझे अपने आप पर कि ना ही तो कभी जन्मेंगा । क्योंकि माते यदि आदि तुझसे है तो अंत भी तुझी से है ।अंत में अगर कहा जाय तो सच में तूं ही वह महँ विभूति है जो हर रोगी के दुःख और सुख को समझती है या अनुभव कर सकती है । एक तूं ही है जो एक रोगी को लेकर रात भर अस्पताल में आंसू बहा सकती है या ५०० किलोमीटर की यात्रा कर सकती है ............ ।

1 टिप्पणी:

Anwar Qureshi ने कहा…

अच्छी पोस्ट है बधाई ...