मंगलवार, 17 मार्च 2009

दोहे

अरस शमन है प्रगति का घमंड वीरवशान

क्रोध खंगारत रिश्ते को तजहूँ समय धरि ध्यान ॥

सुरभि चमके सुरभि में तारा ज्यों द्विज पास

मानव चमके शुद्धाचरण धरि संतन के आश ॥

अनंत शर्म निज कर्म पर चखि अरस कर स्वाद

सोवत विगत समुन्नत लखि रोवत होत बर्बाद ॥

अनिल गुरु सन जाय के सीखहूँ सगुन सहूर

दुर्गम पथ तजि सुगम पथ धरहूँ नाहिं अति दूर ॥

देखहु तो या जगत में नीचन की भरमार

जहाँ नीच होइहैं बहुत तहां संत दुई चार ॥

जीवन वितत ढूँढत सफर सफर सवारी गात

श्रवण शान्ति मन भ्रान्ति विकल कहत निशा परभात ॥

3 टिप्‍पणियां:

अनिल कान्त ने कहा…

waah bhaiya

रंजना ने कहा…

वाह !!! बहुत ही सुन्दर ...

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

बहुत बढ़िया दोहे . धन्यवाद