गुरुवार, 1 जुलाई 2010

यही सचेतनता यदि ना आयी होती 'धाम धन ' छोड़ने की तो शायद ही ........ .

आदर्शता और नैतिकता क्या कभी विकास का पर्याय हो सकते हैं ? समझ में यही नहीं आता । विकास वह विकास जिसमें भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार का उद्देश्य लक्षित हो और वह आदर्शता और नैतिकता के आवरण में फलता फूलता दिखाई दे । पर ये सिर्फ और सिर्फ संभावनाएं हैं और अटकल हैं । जिसमें सिर्फ आशाये की जा सकती है । अटकलबाजी की जा सकती है । वास्तविकता दूर दूर तक कहीं भी नजर नहीं आ सकती । फिर आखिर किस प्रकार विकास पथ को सुदृढ़ किया जय ?

चारित्रिक दृष्टि से तो आदर्शता और नैतिकता की बात कुछ हद तक तो समझ में आती है पर ये एक ऐसी कड़ी है जो कभी भी चाहे वह आध्यात्मिक मार्ग हो या फिर भौतिक मार्ग ठीक ठाक तरीके से सिर्फ जीवन यापन करने का तरीका दे सकती हैं ना तो आध्यात्मिकता का संबल प्रदान कर सकती हैं और ना ही तो भौतिकता का आनंद । क्योंकी इतिहाश गवाह है , जो कोई भी, कभी भी अपना विकास किया है , भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही अस्तर पर , उन्हें इस आदर्शता और नैतिकता को ठुकराना पड़ा है । छोड़ना पड़ा है और पड़ा है त्यागना । फिर चाहे वह महात्मा गांधी हों , [सत्य के प्रयोग], या फिर गौतम बुद्ध । भीमराव आंबेडकर हों या फिर क्रन्तिकारी सरदार भगत सिंह । 'सत्य के प्रयोग' में महात्मा गाँधी जब वकालत के लिए विदेश का रुख करते हैं उन्हें मिलता क्या है -जाती निकला का तमगा जिनके चलते इन्हें उन नैतिक नियमों को तिलांजलि देना पड़ा । दलित वर्ग को ठीक ठाक स्थिति में लाने के लिए हिन्दू धर्म को त्यागने का निर्णय आंबेडकर को भी करना पड़ा था। हालांकि रोक लिया गया ये बात दूसरी थी , पर रास्ता तो वही था ''विद्रोह'' आदर्शता और नैतिकता से ।

विद्वनों, कवियों और दार्शनिको की भी मने तो यही बात सामने आती है और कुछ तो इसे माया की संज्ञा देकर ''माया महा ठगनी हम जानी '',कहा तो कुछ ने पारिवारिक वातावरण से दूर होकर ''छोड़ धाम धन जाकर मैं भी रहूँ उसी वन में '' की धरना अपनाई । जबकि बहुतो ने '' अब हम तो चले प्रदेश की मेरा यहाँ कोई नहीं '' या ''ये गलियाँ ये चौबारा यहाँ आना नहीं दुबारा '' की प्रवृत्ति का अनुसरण किया ।और यही '' मेरा यहाँ कोई नहीं '' की प्रवृत्ति ने ही उन्हें विकास का फलक प्रदान किया । और इस भाई- भतीजावाद की भवचक्कर में कुल्चक्कर में उलझकर बर्बाद हों से सचेत किया क्योंकि यही सचेतनता यदि ना आयी होती 'धाम धन' छोडनें की तो शायद ही यहाँ पर गाँधी और विवेकानंद जैसे प्रेरणाश्रोत के दर्शन होते ।

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