शनिवार, 3 जुलाई 2010

सभी को एक ही परिदृश्य पर खड़ा करके सुधार का पाठ पढ़ाते हैं कबीर ....

वियोगी होगा पहला कवी ,'' जब पन्त ने यह बात कही थी तो शायद उनका ध्यान सीधे कबीर की तरफ गया था क्यों की यही एक ऐसा सख्स है जो सामाजिकता के परिप्रेक्ष्य में 'पहला ' और जीवन के धरातल पर 'वियोगी' होने का उत्कृष्ट प्रमाण पेश करता है । क्योंकि कबीर के काव्य के पहले सामाजिक वातावरण का व्यापक परिदृश्य कहीं भी नजर नहीं आता है , अगर है भी कहीं तो श्रृंगार है , दरबारी व्यवहार है , सत्ता और नारी के बीच पिस रहे राजाओं की स्वतंत्र तकरार है । और जहाँ सत्ता और नारी है वहाँ सामाजिकता का बोध ही किसे होता है । सारी फिजा ''खावै और सोवै ''के परिवेश पर फ़िदा होता है ''जागे अरु रोवै '' की श्रेणी में तो वही न आ सकता है , जो घुट रहा हो ,लुट रहा हो ,पिस रहा हो ,घिस रहा हो , उंच नीच , भेद-भाव , जाती-पांति के अँधेरे में ,अपमान तिरस्कार और दुत्कार को न सिर्फ मह्शूश कर रहा हो अपितु झेल रहा हो इन अमानवीय प्रताड़नाओं को और इसके बावजूद भी ''बाजार'' में खड़ा होकर सबके लिए ''खैर'' मांग रहा हो । ना काहूँ से दोश्ती न काहूँ से बैर'' के सिद्धांत पर ।
जो सभ्य हैं वो भी और जो असभ्य है वे भी , सभी की एक ही समस्या है । सभी माया से ग्रसित है । सभी जाती-पांति के पहरेदार हैं । स्वार्थ लोलुपता ,दरिद्रता,कंगालिपन और पारिवारिक भावुकता से सभी ग्रसित हैं । फिर कबीर किससे दोस्ती करे और किससे करे 'बैर' । सभी में सुधार की आवश्यकता है इसीलिए वह'' मांगे सबकी खैर '' । फिर 'का हिन्दू का मुसलमाना '' का बाभन का सूद '' सभी को एक ही परिदृश्य पर खड़ा करके सुधार का पाठ पढ़ाते हैं कबीर '' बलिहारी गुरु आपने '' जे माध्यम से ।
यही नहीं'' कबीरा खड़ा बाजार में '' जाती के आधार पर समाज पर रौब गांठने वाले ब्राह्मणों से खुले रूप में पूंछ बैठता है''तुम काहें को बाभन पांडे हम काहें के सूद '' अथवा ''काहें को कीजै पांडे छोटी विचारा छूतिः ते उपजा संसारा'' ''जे तूं बाम्हन बहमनी जाया और द्वार ह्वै क्यों ना आया ।'' इसी तरंह हिन्दू और मुश्लिम के बीच फैले तमाम प्रकार के रूढ़ियों और अंधविश्वासों को कबीर ने न सिर्फ दूर करने का प्रयास किया अपितु अपने स्वतंत्र और फक्कड़ मिजाज के बल पर दोनों को ही सामाजिकता के रंग में रंगने के लिए मजबूर कर दिया । और यह उनका स्वतंत्र व्यक्तित्वा ही था जो तत्कालीन समय के मुश्लिम समुदाय से भी , जिनके हाथ में हिंदुस्तान का शासन था ' पूंछ बैठता है ''कंकर पत्थर जोरि के मस्जिद लई बनाय ता चढ़ी मुल्ला बाग़ दे का बहरा हुआ खुदाय । '' जे तुरुक तुरुक्नी जाया भीतर खतना क्यों न कराया । '' और तो और उनकी आस्था पर भी क्या गजब का सवाल करते हुए दिखाई देते हैं कबीर ,''दिन भर रोजा रखत हैं रात हनत हैं गाय , यह हत्या वह वन्दगी कैसे ख़ुशी खुदाई । ''
इस प्रकार की स्वतंत्रता ,स्वच्छंदता , इस प्रकार की सामाजिकता और समाज से जुड़े हुए प्रत्येक वर्ग के प्रति व्यावहारिकता , रूढ़ियों और समाज विरोधी परम्पराओं को खुली चुनौती देने की प्रतिबद्धता क्या कबीर से पहले के किसी कवी में पाई जा सकती ? इसीलिए तो महान आलोचक और भारतीय साहित्य के शलाका पुरुष आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने स्पष्टतः उदघोष किया किया की '' हिंदी साहित्य के हजार वर्षों में कबीर जैसा व्यक्तित्वा लेकर ना तो कोई उत्पन्न हुआ और ना ही तो होगा । ''

कोई टिप्पणी नहीं: