रविवार, 1 मार्च 2009

कारण अकारण

दर्द उठा भीतर कोई

ढूंढ रहा मैं बावला हो

पता ना चला कारण कोई

क्या तार छिटका दिल का कहीं से

या अपने की कोई पुकार आयी

बरस पडी आँखें अचानक

क्या वेदना नें ले ली है अंगडाई

खिन्न मन , टूटी आत्मा, रूठा ह्रदय

अनेको विकल्प उस कारण के

फ़िर भी उलझा मन अकारण

शायद नहीं दिया कुछ भी सुनाई .......... ।

जरूरत एक कुशल न्याय-व्यवस्था की ......

मानव उत्पत्ति हुई विकास हुआ विकास होने से परस्पर ईर्ष्या द्वेष बढे । और परस्पर ईर्ष्या-द्वेष बढ़ने से विभिन्न प्रकार के अपराधों की उत्पत्ति हुई तथा इन अपराधों की वृद्धि से एक बार पुनः मानव समाज विकास की ओर अग्रसारित होने लगा । इन विनाश को रोकने के लिए एक न्याय प्रणाली दायित्व में आई जो काफी हद तक उन अपराधों को रोकने में सफल रही और मानव समाज पुनः विकास गति पर चल सकी ।

लेकिन तब मानव समाज खतरे की लकीर पर डगमगा रहा था और आज ख़ुद वह न्याय व्यवस्था । अतः अगर आज किसी की जरूरत है तो उस न्याय व्यवस्था के न्याय की जो न्याय व्यवस्था को उसके पूर्व स्वरुप पर ला सके । राजधानी दिल्ली की बहु चर्चित प्रियदर्शिनी-हत्याकांड हो या जेसिकालाल - हत्याकांड अथवा कोई अन्य जघन्य अपराध । इन सब मामलो पर आज की न्याय व्यवस्था की गिरती हुई स्थिति को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।

प्रियदर्शिनी , जिसको उसी के ही घर में संतोष सिंह [जो एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का लड़का ] द्वारा हवास का शिकार बनाया गया और हवस पूरी करने के बाद उसकी हत्या कर दी गयी । मामला कोर्ट में पहुँचा । जब बात उसको सजा देने की आयी तवो अदालत के द्वारा यही कहा गया की वह सजा देते हुए भी नहीं दे सकता । आख़िर उस अभियुक्त को सजा लायक समझा गया और अदालत के द्वारा भले ही अभी तक कोई सजा ना निश्चित की गयी हो पर यह तो स्पष्ट है की वह दोषी है और उसको सजा दी जायेगी पर यही कार्य जो अब हुआ उसी समय होता जब न्यायलय द्वारा यह कहा गया था की हम सजा देते हुए भी नहीं दे सकते तो न्याय व्यवस्था की गरिमा कुछ और ही होती । अब इस बात के खोखले धिधोरे पीते जा रहे है कि न्यायलय की जीत हुई ।

ये तो प्रिदार्शिनी - हत्याकांड का सौभाग्य था जो मीडिया की छाया मिली और मीडिया ने इस मामले को उछाल कर उन जगहों तक पहुँचाया जहाँ से उसे न्याय प्राप्त हो सकी। पर क्या ऐसी भी सोंच कभी विकसित की गयी है कि जहाँ पर ये मीडिया नहीं पहुँच पति उनका क्या होता होगा ? प्रियदर्शिनी और जेसिका जैसी लाखों मामले , बलात्कार , हत्या,फरेब , शोषण आदि के ऐसे होंगे जो न्याय के लिए अब भी न्यायलय के दरवाजे खटकता रहे हैं जबकि वे उतने ही पुराने हैं जितना कि प्रियदर्शिनी हत्याकांड । ये इसलिए हैं क्योंकि शायद इनको मीडिया की छाया नहीं मिली और न्याय व्यवस्था में या तो इनके समस्याओं को सुना ही नहीं जा रहा है और यदि सुना भी जा रहा है तो उसे एक कागजी कार्यवाही समझकर कोरम मात्र पूरा कर दिया जा रहा है । जो न्याय व्यवस्था जैसी पवित्र संस्था के लिए एक सर्मनाक बात है ।

अतः इसमें कोई दोराय नहीं है कि वर्तमान समय में न्याय व्यवस्था ख़ुद अपने साख के धरातल पर डगमगाता नजर आ रहा है जिसे पुनः विश्वास पथ पर लाने के लिए आज एक कुशल न्याय प्रणाली की आवश्यकता है । वो न्याय प्रणाली जो हरेक अपराध को एक अपराध समझते हुए बगैर किसी के हस्तक्षेप के शीघ्रताशीघ्र अपना निर्णय सुना सके जिनसे किसी को ये कहने का अवसर ना मिले कि हमारी न्याय प्रणाली लचीली है अथवा वह अपने कर्तव्य पथ से विमुख हो गयी है ( प्रियदर्शिनी हत्याकांड और जेसिकालाल हत्याकांड के फैसले के समय लिखा गया एक पुराना लेख ) ............. ।

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

पर क्या कभी उस माँ के भी व्यक्तिगत दर्द को समझने की कोशिश हमारा यह समाज और हमारी यह मीडिया करती है ......?

अभी चलेगा । और चलेगा यह तांडव । तब तक जब तक कि इस समाज का शिक्षित और धनिक वर्ग लोभ लिप्सा को चरम गति तक ना पहुँचा देंगे । तब तक कन्या भ्रूण हत्या होता रहेगा । आज पंजाब में , दिल्ली में, हरियाणा में तो कल दूसरे अन्य राज्यों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश ,बिहार, उडीषा और महाराष्ट्र में । दरअसल यह जहाँ अभी तक सिर्फ़ अपराध के रूप में समझा जाता रहा है वहां इसके लिए कानून बनाये जाते रहे हैं । और समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग , चाहे कानून के दंड व्यवस्था के डर से या फिर आबकारी अफसरों की सक्रियता की वजह से , इस अपराध से किनारा कर लिया अथवा व्यक्तिगत लिप्तता को कम कर लिया । पर ज्ञातव्य है कि अभी तक ऐसा कुछ कुछेक जगहों पर हुआ है जबकि अन्य जगह ऐसे अपराध को ना सिर्फ़ मान्यता दी जा रही है अपितु स्वेक्षा से निरापराध अपनाया जा रहा है। क्योंकि शायद यह उनके लिए अपराध नहीं प्रत्युत उनकी अपनी मजबूरी है ।
कन्या भ्रूण हत्या में लिप्त एक डाक्टर दिल्ली ,जो कि भारत की राजधानी है , में रेंज हाथों पकड़ा गया, ऐसा दैनिक समाचार में पढनें को मिला ,मनाता हूँ मैं कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था । वह शिक्षित था । वह धनाढ्य था । वह सबसे पहले सामजिक व्यक्ति था । धनालोभ में इस तरह मानवीयता की न्रिसंस हत्या नहीं करनी थी उसे । जब वह ही ऐसा करता है तो अशिक्षित और अनपढ़ लोग कैसा व्यवहार करेंगे ? पर क्या कभी उस मान के भी व्यक्तिगत दर्द को समझने की कोशिश हमारा यह समाज और हमारी यह मीडिया करती है ? क्या कभी ये पूछने की चेष्टा किसी ने की कि वह सिर्फ़ पुत्री को ही क्यों मरना चाहती है ? क्यों अपने भ्रूण में पल रहे उस भ्रूण को इसलिए गिरवा रही है कि वह लड़का नहीं लड़की है ? शायद नहीं ? क्योंकि ऐसा पूछने में बहुत गहरे में जिस जवाब की आशा उस माँ को होगी वैसा ना तो हमारे समाज के पास है और ना ही तो इन मीडिया वालों के पास अथवा विधि निर्माताओं के पास ।
जबकि जमीनी हकीकत यह है कि जो शिक्षित है, जो धनवान है वह प्रायः ऐसा अपराध नहीं करता क्योंकि चाहे वह लड़का हो या लड़की हो उसके लिए दोनों ही बराबर होते हैं । कमाता लड़का भी है लड़की भी है । जीवन उसका भी है , उसकी भी है । यह बात धनाढ्य और शिक्षित माता - पिता को अच्छी तरह मालुम होती है । क्योंकि उनके पास होता ही इतना सब कुछ है कि वह उनकी परिवरिश , शादी-व्याह आदि बड़े मजे से कर सकते हैं । पर क्या ऐसा उसको भी नसीब है जिनके पास ना तो खाने को रोटी है और ना ही तो तन ढकने का कपड़ा । और ऐसी स्थिति में यदि वो उस बेटी को जन्म भी देती है तो किस आधार पर पलेगी ? चलो किसी तरंह पाल भी लिया । नौकरी किया । बर्तन माजा । बेगारी की । पर जब १६-२० साल की वह पुत्री हो जाए तब ...... कहाँ से लाये वह इस महगाई में एक लाख रुपये दहेज़ देने के लिए और शादी करने के लिए ? फ़िर , फ़िर क्या यहीं से सुरु होती है भ्रूण हत्या की कहानी । जैसा कि प्रेम रोग , ऋषि कपूर द्वारा अभिनीत फ़िल्म में राधा की सहेली और उसकी बहन का व्याह एक बुजुर्ग और गंजे के साथ कर दिया जाता है कि वह गरीब घर की लड़की थी और उसे अधिकार नहीं है अधिकार है भी तो क्षमता नहीं है अपने मनपसंद के वर को चुनने के लिए ।
रही बात सरकारी महकमे की तो मुलायम सिंह , पूर्व मुख्या मंत्री, उ प्र, का +२ पास लड़कियों के लिए २०००० का पैकेज किसी से छुपा नहीं है , जिसको पानें के लिए कितने अविभावक बैंकों के चक्कर काटते रहे और कितने स्कूलों में सलामी देते रहे । रही बात कुमारी मायावती , मुख्या मंत्री , उ प्र , के "महामाया बालिका आशीर्वाद " योजना तो उसकी परिणत भी संतोष जनक स्थिति में होगी कहा नहीं जा सकता ।

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

यदि मनुष्य दीवाल है जिसे कोई हटा नहीं सकता तो भाषा एक नींव है जिसे हटाने के प्रयास में दीवाल को ही जाना है ......

कुछ बातें ऐसी होती हैं जो पास होते हुए भी अपनी उपस्थिति नहीं बतला पाती हैं । पर कुछ तो ऐसी होती हैं जो कहीं पर वर्णित या यों कहें की किसी व्यक्तित्व द्वारा कथित अथवा एक विचारणीय अवस्था में उत्पादित होकर भी हमें और हमारी आत्मीयता को अन्दर तक झकझोर डालती है। इतना ही नहीं ये ऐसी स्थित पर चले जानें के लिए मजबूर कर देती हैं जहाँ पर उस विवेच्य विषय से सम्बंधित चिंतन कराने और एक आवश्यक सोच विकसित करने के अलावा हमारे पास कुछ बचता ही नहीं है हालांकि हम ऐसा नहीं चाहते । ख़ुद को एक ऐसे विषय के प्रति समर्पित करना , जहाँ वह या तो अपने जीवन के अंत पर हो अथवा उसका स्तित्व हाशिये पर हो । पर ऐसे समय में जब वह अपने स्तित्व के लिए , स्वयम मैदान पर आ गया हो तब और खासकर उस समय में जब उसके विरोधी ख़ुद हो रहे हो , समर्पित करना एक सुखद आनंद ही हो सकता है ।

आनंद दुःख की उपस्थिति में ही प्राप्त किया जा सकता है और दुःख प्रायः सुख के अवसान पर । इन दोनों की उत्पत्ति शायद एक दूसरे की उपस्थिति में संभव हो पर द्वंद्व तो तभी होता है जब दोनों आमने सामने हों । एक दूसरे को ललकार रहा हो और दूसरा उसका सामना करनें के लिए उत्प्लावित हो । पर स्थिति तो वही है । भाषा और मानव । दो विरोधी । दोनों ही सामान अवस्था में , एक ही मैदान पर । एक दूसरे के आमने सामने , एक दूसरे पर दूसरा दूसरे पर निर्भर । सोचने का विषय यहाँ पर ये नहीं है , अंग्रेजी फिल्मों की तरंह की मनुष्य मशीनी मानव का निर्माण ख़ुद और स्वयं अपने हाथों से करता है अपने दुश्मनों क सफाया करने के लिए , पर बाद में वही मशीनी मानव सम्पूर्ण इंसानी जाती के लिए खतरा बन जाता है । और अंत में मानव ही उसके स्तित्व को ख़त्म कर स्वयं के स्तित्व को बचाता है ।

और क्योंकि ऐसा समझा जाय की भाषा का निर्माण मनुष्य नें किया , अपने बौद्धिक स्तर को विकसित करने के लिए तो ना ही तो ये वास्तविक है और ना ही तो तर्कसंगत । मनुष्य ने भाषा के ऊपर यदि कोई उपकार किया तो सिर्फ़ वही जो प्रकृति ने मनुष्य के प्रति । यदि कोई ये कही की प्रकृति नें मनुष्य को संवारा तो हम ये दावा के साथ कह सकते है की भाषा ने मनुष्य को एक ऐसा आधार प्रदान किया जिसके माध्यम से मानव और प्रकृति के बीच संवादात्मक व्यवस्था का जन्म हुआ । और ऐसी स्थिति में फ़िल्म HISTORICAL TRUTH को याद किया जाय की मशीनी मनुष्य को ख़त्म करके इंसानी मानव अपने स्तित्व को बचाया तो निश्चय ही अब वह समय दूर नहीं जब , और क्योंकि प्रकृति मानव के हाथों जा रही है और मानव स्तित्वा को भाषा ख़तम कर देगी । क्योंकि भाषा अमर और शाश्वत है । यदि ये कहा जाय की मनुष्य दीवाल है जिसे कोई हटा नहीं सकता तो यह भी सत्य है की भाषा एक नींव है जिसे हटाने के प्रयास में दीवाल को ही जाना है ।

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

गाँव की हशीन वादियों में बस जीता जा रहा हूँ ....

कहाँ क्या हो रहा घाट रहा क्या राज में

कौन कैसे जी रहा क्या होने वाला समाज में

नहीं पता मुझे कुछ भी सब भूलता जा रहा हूँ

गाँव की हशीन वादियों में बस जीता जा रहा हूँ

सुनता हूँ कुछ घटनाएं , अचरज सा कुछ होता है

जगाता हुआ हृदय फ़िर भी मौन होके सोता है

चिल्लाता है रो ज़माना सुनता जा रहा हूँ

गाँव की हशीन वादियों में बस जीता जा रहा हूँ

है सुख का समुन्दर दुःख कहीं यहाँ पर नहीं

वहीं खड़ी मुशीबत पर है कोई डर नहीं

परसानियां है कुछ परिवारी निपटाता जा रहा हूँ

गाँव की हशीन वादियों में बस जीता जा रहा हूँ

आंटा है, ख़तम चावल , झगडा भाभी नें किया

खाया नहीं भइया , डाटा, भाभी नहीं माता ने रो दिया

छोटी हैं ये समस्यायें पर विश्व से जोड़ता जा रहा हूँ

गाँव की हशीन वादियों में बस जीता जा रहा हूँ ॥

कहता हूँ कुछ कहनें ही दो ...........

रोता हूँ रोने ही दो
खोता हूँ खोने ही दो
ना दे सको ऐ दुनिया वालो
कहता हूँ कुछ कहने ही दो

रोटी की कमी रहती है मुझे
पानी की किल्लत यहाँ नहीं
है मुशीबतें इफराद मेरी दुनिया में
चाहिए मुझे क्या और भला
इस दुनिया में ही रहनें दो

आंखों में आंसू आशाओं के
चाहती हैं आज ही बह जाना
चाहिए नहीं तुम्हारी वह सुख की दुनिया
कृपा करो और ,
निराशाओं में ही मुझको पालनें दो

पलने दो भूखे प्यासे
गम नहीं आंधी तूफ़ान से
रेह धूल दूब माटी है
काँटों की झुरमुट और मकरी की जाली
दीवाल ईंट की नहीं तो क्या
झुरमुट में ही जीनें दो ॥

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

गया चला वह शाल पुराना इन नये दिनों की शान बनो

सत्ता पर काबिज पूज्य जनों

फूलो फलो और महान बनो

गया चला वह साल पुराना

इन नये दिनों की शान बनो

क्या हुआ मुम्बई काँप गयी तो

सब सैन्य व्यवस्था हांफ गयी तो

शाशन की गीला गपाली में

दुनिया कमजोरी भांप गयी तो

लथपथ खून से यह धरती

वरण पाप मार्ग को करती

पढ़ते पढ़ते नैतिकता की नियमावली

मानवीयता सारी चिग्घाड़ उठी तो

यह मान चलो तुम बहरे हो

अब हम अनधन की जान बनो ।।

ऐसा भी तुम पहले हमलो में

कुछ और नया क्या करते थे

मरते थे सिपाही गोली खाकर

ख़ुद होटल में बैठ डकारते थे

हाँ , पहुंचते दूसरे देशों में

उबले हुए बेजान आवेशों में

वाद-विवाद कर आतंकवाद पर

झूठी सांत्वना दंगा फसाद पर

अच्छा तुम्हारे एजेंडे में नहीं तो

बुरे कर्तव्यों की पहचान बनो । ।

वर्षांत पर हम करते हैं प्रण

देश की खातिर तन-मन -धन अर्पण

करेगा दुह्साहस गर कभी आतंकी मन

तो जाग उठेगा सारा विश्व संगठन

जगंह जगंह से चीत्कार उठेगा

हिंदुस्तान हुंकार भरेगा

जल उठेगा सारा पाकिस्तान

करते हैं हम फ़िर से आह्वान

पहले आह्वान से देश बटा था

अब विश्व बँटवारे का संधान बनो ।।

बनो बनो कुछ और बनो

इतने से क्या काम चलेगा

उगता सूरज डूबेगा नहीं तो

कैसे नया चाँद निकलेगा

तब तो हिंदू-मुस्लिम जड़ थी

उस पर सबकी गहरी पकड थी

जिधर भी देखो नारे लगे थे

जगंह जगंह हत्यारे खड़े थे

गांधी - शास्त्री तो बन न सकोगे

जिन्नाह - जवाहरलाल बनो

गया चला वह साल पुराना

इन नये दिनों की शान बनो ।।