बुधवार, 20 अगस्त 2008

श्रृंगार के झरोखे से

रूप कली गुलाब कीं वाणी मधु की बूँद
लोचन तीखी तीर सम कातेत तन जस सूत ॥१॥

क्यों बैठी तड़पाइ रही आहु पास इठलाई
चम्पक चमकि चवरि धरि भेटहुं तुम बलखाई ॥२॥

कोशों दूर खड़ी अडी साधि रही अकवार
देखत चितवत चमक तर आँख -भँवर ललकार ॥३॥

देखहूँ प्रभु की दीनता दिया क्या सौन्दर्य हार
लचकन भर में उनके आवत बसंत बहार ॥४॥

यौवन - कसा झीनी - लता नवयौवना मदमस्त
देखि रूप - लावर्न्यता कविगण होत सिद्धस्त ॥५॥

देखन में जो आनंद रस मिलत कबहूँ नहीं भोग
है आंकन में जो दिखत बनत कबहूँ नहीं जोग ॥६॥

2 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत ही सुन्दर ,अति सुन्दर भाव,धन्यवाद

Udan Tashtari ने कहा…

वाह! बहुत सुन्दर.