शुक्रवार, 23 मार्च 2012

राजेन्द्र यादव की ''जहां लक्ष्मी कैद है '' पढ़ते हुए ...

जीवन मानवीय पृष्ठभूमि की एक ऐसी कड़ी  है जिसमें प्रकृति ने जो कुछ भी दिए है मानव को मानवीयता के सन्दर्भ में , आवश्यक हो जाता है . उसमे से किसी एक की कमी या अभाव जहां उस जीवन को नारकीय बना देती है वहीं यह प्रश्न चिन्ह भी लगा देती है , क्या वह मानव कहलानें का अधिकारी है ? क्योकि एक जीवन को पूर्णता प्रदान करने में रुपये-पैसे , धन-दौलत अर्थात भौतिक साधन जितना अधिक सहायक होते हैं उससे कहीं ज्यादा सहायक उसका अपना वह परिवेश , वह समाज , वह समय, समूह , संगठन या परिवार होता है , जिसमे की वह रहता है और जीवन यापन करता है . पर अगर उन्हें इन्हीं प्राकृत संसाधनों से , जो उसे मानव बनाती है , दूर कर दिया जाय तब ?

                         इस प्रश्न चिन्ह की ही साकार अभिव्यक्ति है राजेंद्र यादव की  " जहां लक्ष्मी कैद है "*१* . क्योंकि ''यह कहानी विष्णु की पत्नी लक्ष्मी के बारे में '' नहीं है जो समस्त शक्तियों से संपन्न , लोककल्याणकारी , महिमामयी और शक्तिशाली है . अपितु यह ''लक्ष्मी नाम की ऐसी लड़की के बारे में ''  है जो भारतीय परंपरा , रूढ़िवादिता में लुटती  पिटती कूटती जकड़ी हुयी संकीर्ण मानसिकता की स्वार्थता की उपज है . उपज है वह मन मानव में विचरण करने वाली उन कभी न पूरा होने वाली इच्छाओं की , अभिलाषाओं की जिसके पीछे व्यक्ति कभी कभी सब कुछ गँवा देता है कुछ पाने की चाहत में . और इस 'चाहत' का ही परिणाम है वह ''लड़की' ''जहां लक्ष्मी कैद है ''
.
                       बहुत गहरे में कहानी कर के सामने नव स्वतान्र्य हिंदुस्तान है और इस स्वतंत्रता में सम्पूर्ण समाज में विद्यमान , घूम रहा ,टहल रहा , विचरण कर रहा एक ऐसा हैवान है जिसे सिर्फ और सिर्फ संग्रह ही दिखाई देता है . स्वस्थ भविष्य के लिए वर्तमान का संहार ही सुझाई देता है . क्योंकि डर होता है उसे , सम्पूर्ण मानव को , संग्रह वह नहीं करेगा तो लेगा दूसरा कोई  और इस भावना के रूप में कहानीकार लक्ष्मी के पिता रूपराम को कहानी में रखता है .  है तो धनवान . चक्की मशीन , मोटर , ट्रक , रिक्शा , नोकर चाकर क्या नहीं है इसके पास लेकिन फिर भी  " आज की तारिख तक यह विचार भाग दौड़ कर , लू धुप की चिंता छोड़कर जमा कर रहा है . एक पाई उसमें से खा नहीं सकता जैसे किसी दूसरे का हो .''  वाकई ऐसी स्थिति में उसकी दस ऐसी हो गयी थी कहानीकार के जुबान से ''जैसे धन के ऊपर बैठा सांप . खुद उसे खा नहीं सकता , खाने तो उसे देगा क्या ?''४'   दरअसल उसकी रखवाली करना और जोड़ना ये परिदृश्य इस एकमात्र रूपराम की नहीं अपितु उस समाज में रह रहे अनेक ऐसे रूपराम की थी जो सिर्फ संचय करना जानते थे उस समय ना तो उसका उपभोग और ना ही तो उपयोग .

                 सामने कोई बैठा हो समोसे खा रहा हो . दूसरी तरफ दूसरा कई दिनों से भूखा हो . दो कवर रोटी भी न नशीब हो पाया हो .तब आखिर वह क्या करेगा? बहुत हद तक ''रहिमन चुप ह्वै बैठिए'' का भाव तो उसमे ना ही जागेगा .जागेगा भी तो बस एक ही भाव , मारो साले को मर जाय.  नहीं खाऊँगा तो खाने भी क्या दूंगा इसको . इतनी सूक्ष्म मानसिकता की इतनी तीव्र परख तो राजेंद्र यादव जैसे कहानीकार के यहाँ ही संभव है . लाला रूपाराम के विरुद्ध चौकीदार की यही भावना पाठको के सम्मुख पहुँचती है . स्पष्टतः वह कहता है ,''और कभी कभी मन होता है ,छुरा लेकर साले की छाती पर जा चढूं और मुरब्बे के आम की तरह गोदूं . अपने पेट में जो इसने इतना धन भर रखा है उसकी एक एक पाई उगलवा लूं ''.
               
                 पर यहाँ जो बात लक्ष्मी की है , जिसके ऊपर सम्पूर्ण कहानी निर्भर करती है वह भी उसी 'संचय' की शिकार होती है .उसी चाहत की एक प्रकार होती है ,'' कूद खाने और दूसरों को न खाने देने '' का सेन्स यहाँ भी लागू होता ही है . और यही बात दिलावर सिंह , जो रूपराम के यहाँ चौकीदार है , बताता है गोविन्द को '' बाप है उसे भोग नहीं सकता और छोड़ तो सकता नहीं .''६'' मानों यह लक्ष्मी की ही बात नहीं है उसके द्वारा संचय की गयी उनसभी धन संपदाओं की है जो सिर्फ और सिर्फ संचय किया है वह और जैसे वह लक्ष्मी के रूप में कह रही हो ''ले तूने मुझे अपने लिए रखा है , मुझे खा , चबा मुझे , भोग . ''

                  लक्ष्मी जो हालांकि उसके घर में 'सचमुच एक लक्ष्मी ही बकर आयी ' और जिसके विषय में वह चौकीदार कहता भी है '' यह मिटटी भी छू दे तो सोना बन जाए और कंकड़ को उठा ले तो हीरा दिखे . '' क्या वह मात्र धन पैदा करने की मशीन ही मान ली गयी .या फिर भविष्य की की एक ऐसी निधि जिसके जाने से उसका सर्वनाश हो जाता  सबकुछ . क्या यह रूढ़िवादिता नहीं है ? क्या यह भाग्यवाद की कोरी कल्पना नहीं है ? क्या यह वाकिया दूसरों के अधिकार का , जीवन के अधिकार हरण नहीं है ? आखिर क्या इसे व्यक्ति स्वतान्त्र्य के प्रति किया गया कुठाराघात नहीं कहा जा सकता .? समाज के सामने इन्हीं प्रश्नों को उठाने का एक माध्यम है ''जहां लक्ष्मी कैद है ''.

                 ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि लक्ष्मी यह सब प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में सहती चलती है .उतना तीव्रतम विरोध वह नहीं कर पाती जितना कि घोर यातना सहने के बाद व्यक्ति विशेष को करना चाहिए . ''लक्ष्मी पर पहरा बैठा दिया गया . उसे स्कूल से उठा लिया गया .और वह दिन सो आज का दिन बेचारी नीचे नहीं उतरी .......... विल्कुल नंगी हो जाती है और जांघे पीट पीट कर बाप से कहती है ''ले तूने मुझे अपने लिए रखा है मुझे खा ,मुझे चबा, मुझे भोग .''


               बहुत गहरे में यह लक्ष्मी-नारियों की स्थिति है जो ना तो आवाज उठा सकती है , ना बोल सकती है और ना ही तो कर सकती है विरोध . हाँ अगर कर सकती है कुछ तो समर्पण मात्र . वह भी तन-मन , तन- धन से . क्योंकि जिस लक्ष्मी की दशा दिशा का वर्णन किया गया है वह युवा थी , सुन्दर थी, चंचल थी और थी तेज तर्राक .(दिलावर के अनुसार ) . भाग सकती थी वह. आग लगा सकती थी . फांसी चढ़ सकती थी . सिर फोड़ सकती थी वह उन 'चिमटा' 'संडासी' 'तवा' से जो  वह बहाती है . पर कहानीकार नहीं चाहता . क्योंकि वह जानता था  इस पुरुष प्रधान देश में ऐसी लडकियां उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं . यह तो उन नारियों या लड़कियों की कहानी है जिनके जीवन में लिखा है रोना , चिल्लाना ,दहाड़ना विलख विलख कर . 


                  सम्पूर्ण कहानी मानव-मन के अन्दर मचे अंतर्द्वंद को झकझोरती है. कोशाती है  मानवीय संवेदना को. उभारती है  मानव के प्रति मानव की  अंतर्वेदना को . इस लिए नहीं की वह उसे सुनकर शांत हो जाए शिथिल हो जाये बल्कि इसलिए की वह कदम उठाए एक , एक  आवाज उठाए और उठाए एक वीणा व्यवस्थात्मक सुधर के प्रति क्योंकि '' क्या सचमुच जवान लड़की की आवाज को सुनकर अनसुना किया जा सकता है ? '' प्रेरणा देती है समाज के उन रहीसों को उन भल्मानुसों को जिनके आरी बगल पता नहीं कितनी लक्ष्मियाँ एक नहीं कितने नवयुवकों के आगे मजबूरी का यह प्रस्ताव रखती भी हैं --- '' मैं प्राणों से अधिक प्यार करती हूँ'' मुझे यहाँ से भगा ले चलो '' '' मैं फांसी लगाकर मर जाऊंगी '' . पर सुनते कितने है . जो सुनते भी हैं वो उसमे ढूंढते है वासनात्मक खुशबू . गोविन्द के सेन्स में सौन्दर्यात्मक ललक .

                  नई कहानी के धरातल पर लिखित यह कहानी संपूर्णतः सफल होती है . चाहे वह भाषा की बात हो या फिर संवाद की . पात्र  की बात हो या फिर पात्र के चरित्रांकन की एक मिशल पेश करते हैं यादव जी . पर ''ये पंचतंत्र के सामान एक कहानी के भीतर अन्य कहानी को निकलने के लिए लालायित रहते है .''*२* और इसीलिए शायद इन्हें कहा गया ''वे चक्र के भीतर चक्र(व्हील विदीन व्हील ) के कहानीकार है . यही कारन है कि उनमे उलझाव आ जाता है .''*३*यह उलझाव स्पष्तः इस कहानी में भी विद्यमान है . सुरुआत गोविन्द के मनोवृत से होता है ''एकदम घबड़ाकर जब गोविन्द की आँखे खुली तो वह पसीने से तर था '' फिर राम स्वरुप और लाला रूपराम पर टिकती है .अचानक ही , कुछ दूर चलकर ,कहानीकार मिस्त्री और चौकीदार को भी मुख्या भूमिका में रख देता है और उस पर प्रकाश देने लगता है .यही पाठक कुछ हद तक उलझन में आ जाता है . ना तो वह गोविन्द के साथ अपना तादात्म्य बैठा पता है और ना ही तो चौकीदार पर सहानुभूति . लक्ष्मी के प्रति वह होता जरूर द्रवित है .पर तब तक कहानी अन्त्प्राय हो जाती है और यह जिज्ञासा भी बराबर बनी रहती है कि क्या हुआ होगा उस चौकीदार,राम स्वरुप या मिस्त्री का .


                           पर अभिव्यक्ति की कला , मानवमन को टटोलने की परख शायद राजेंद्र यादव की अपनी एक अलग विशेषता है  . गोविन्द की लक्ष्मी के प्रति क्या सोच है  , कहानी कर के शब्दों में, जो हर जवान दिल की एक स्थाई विशेषता होती है ---''उसने उसे अपने कोमल हाथों से छुआ होगा . तकिए के नीचे , सिरहाने भी यह रही होगी ........ लेटकर पढ़ते हुए हो सकता है सोचते सोचते छाती पर भी रखकर सो गयी हो .''

                 इस कहानी के सभी पात्र सजीव है . बोलते है और कहानी को एक नई अर्थवत्ता प्रदान करते है . संवाद बोझिल न होकर , व्यवहारात्मक है और उत्सुकता बढ़ाने में सहायक है . अनावश्यक विस्तार से सर्वथा बचा गया है  . संवाद का एक नमूना --
   ''विधवा है ? ''
    ''अजी उसने शादी ही कहाँ की है ? ''
    ''नाम क्या है ? '' गोविन्द से रहा न गया .
   ''लक्ष्मी ?''
   ''लक्ष्मी !'' उसके मुंह से निकल गया और जैसे .....

जहां तक सवाल कहानी के उद्देश्य का है उसमे कहानी कार का सम्पूर्ण ध्यान समाज में बैठे , जी रहे . कुछ भले बनमानुसो और समाज को दिशा देने वाले महानुभावों को सुधरने की रही है  . जो चौकीदार के इन वाक्यों से पूरा हो जाता है ,''लोग जमा करते हैं की बैठ कर भोंगे . यह राक्षस तो जमा करने में ही लगा रहता है . इसे जमा करने की ही ऐसी हाय हाय रही है की दौलत किसलिए जमा की जाती है , इस बात को यह विचार विल्कुल भूल गया है . ''      

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची -
१-राधा कृष्ण प्रकाशन , नई दिल्ली, पटना , इलाहाबाद
 ''   जहां लक्ष्मी कैद है    '' कहानी संग्रह .  पृष्ठ संख्या - १४९-१६६
२- शिव कुमार शर्मा ,'हिंदी साहित्य : युग और प्रवृतियां .पृ.सं. -६४९
३- बच्हन सिंह , आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहाश , पृ .सं.-३६४     

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